बीते 21 मार्च 2020 को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के कसलपाड़ में माओवादी हमले में 17 पुलिसकर्मी शहीद हो गए। राज्य पुलिस के आला अधिकारियों के मुताबिक यह नक्सलियों का बड़ा हमला था। शहीद पुलिसकर्मियों में स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) और डिस्ट्रिक्ट रिजर्व ग्रुप (डीआरजी) के जवान थे। इनमें 15 जवान आदिवासी और दो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) थे।
सीएम भूपेश बघेल ने जताया शोक, मुआवजे की घोषणा का इंतजार
आधिकारिक जानकारी के मुताबिक 21 मार्च को साढ़े पांच सौ पुलिसकर्मी सर्च आपरेशन को अंजाम देने कसलपाड़ गए थे। इनमें सीआरपीएफ, एसटीएफ और डीआरजी के जवान शामिल थे। पुलिस को जानकारी मिली थी कि कसलापाड़ में बड़ी संख्या में नक्सलियों के शीर्ष नेता कैंप कर रहे हैं। वहां से लौटते समय नक्सलियों ने उनपर हमला किया। घटना की पुष्टि करते हुए बस्तर आईजी सुंदरराज ने बताया कि 17 जवानों के शव मिले हैं। इनमें 5 एसटीएफ और 12 डीआरजी के जवान हैं। हालांकि राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा है कि यह नक्सलियों द्वारा पुलिसकर्मियों पर किया गया हमला नहीं था। उनके मुताबिक पुलिसकर्मियों ने नक्सलियों की घेराबंदी की। इस क्रम में दोनों ओर से गोलीबारी हुई और इसमें बड़ी संख्या में नक्सली मारे गए। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इस कार्रवाई में 17 पुलिसकर्मी भी शहीद हुए हैं। अपने शोक संदेश में बघेल ने कहा है कि शहीदों की कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी। नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा।

इस पूरे मामले में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अभी तक किसी तरह के मुआवजे की घोषणा नहीं की गई है। इस संबंध में फारवर्ड प्रेस ने छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक डी. एम. अवस्थी से दूरभाष पर बात करने की कोशिश की। लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका। वहीं इस संबंध में छत्तीसगढ़ के जनसंपर्क विभाग के आयुक्त सारंग प्रकाश सिन्हा ने दूरभाष पर बताया कि मुआवजे की पृथक घोषणा नहीं की गई है। परंतु, राज्य सरकार ने डीआरजी के जवानों के लिए एक नीति के तहत प्रावधान किया हुआ है। यह पूछे जाने पर कि इस नीति के तहत ही शहीदों के परिजनों को कितनी रकम मिलेगी और क्या उनके आश्रितों को नौकरी आदि भी मिलेगी, आयुक्त ने कहा कि वे पॉलिसी की प्रति भेज रहे हैं। (खबर लिखे जाने तक अप्राप्त)
क्रम | नाम/पता | समुदाय |
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एसटीएफ | ||
1 | गीतराम राठिया, ग्राम - सिंघनपुर, थाना - भुपदेवपुर, जिला - रायगढ़ | आदिवासी |
2 | नारद निषाद, सिवनी, थाना बलौद- जिला - बलौद | ओबीसी |
3 | हेमंत पोया, डावरखार, थाना - कांकेर, जिला- कांकेर | आदिवासी |
4 | अमरजीत खलखो, औराजोर, थाना- कुनकुरी, जिला-जशपुर | आदिवासी |
5 | मडकम बुच्चा, टेटरई, थाना- एर्राबोर, जिला- सुकमा | आदिवासी |
डीआरजी | ||
6 | हेमंत दास मानिकपुरी, छिंदगढ़, थाना-छिंदगढ़, जिला सुकमा | ओबीसी |
7 | गंधम रमेश, जगरगुंडा. थाना-जगरगुंडा, जिला सुकमा | आदिवासी |
8 | लिबरू राम बघेल, लेदा, थाना- तोंगपाल, जिला- सुकमा | आदिवासी |
9 | सोयम रमेश, एर्राबोर, थाना- एर्राबोर, जिला-सुकमा | आदिवासी |
10 | उईका कमलेश, जगरगुंडा. थाना-जगरगुंडा, जिला सुकमा | आदिवासी |
11 | पोडियाम मुत्ता, मुरलीगुडा, थाना- कोंटा, जिला-सुकमा | आदिवासी |
12 | उईका धुरवा, जगरगुंडा. थाना-जगरगुंडा, जिला सुकमा | आदिवासी |
13 | वंजाम नागेश, सुन्नामगुडा, थाना-कोंटा, जिला-सुकमा | आदिवासी |
14 | मडकम मासा, चिचोरगुडा, थाना- दोरनापाल, जिला- सुकमा | आदिवासी |
15 | पोडियाम लखमा, जीडपल्ली, थाना- पामेड, जिला- बीजापुर | आदिवासी |
16 | मडकम हिडमा, करीगुंडम, थाना- चिंतागुफा. जिला-सुकमा | आदिवासी |
17 | नितेंद्र बंजामी, कन्हाईपाड, थाना-भेज्जी, जिला-सुकमा | आदिवासी |
उपरोक्त सारणी से स्पष्ट है कि शहादत देने वालों में 15 आदिवासी और दो ओबीसी थे।
सलवा जुडुम का दूसरा रूप डीआरजी, स्थानीय के मुकाबले स्थानीय
नक्सलियों से मुकाबले के लिए छत्तीसगढ़ पुलिस ने डीआरजी की व्यवस्था की है। इसके तहत स्थानीय युवकों की बहाली की जाती है जो स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों से वाकिफ होते हैं। बताते चलें कि पूर्ववर्ती रमन सिंह की सरकार के समय वर्ष 2005-06 में सलवा जुडुम की शुरूआत हुई थी, जिसके तहत स्थानीय लोगों को हथियार का प्रशिक्षण देकर नक्सलियों के मुकाबले में तैनात किया जाता था। इनमें अधिकांश आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली शामिल थे। बाद में जब इसका विरोध हुआ और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशद्वय जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी व जस्टिस एस.एस. निज्जर ने जुलाई, 2011 को इसे अवैध कर दिया तब डीआरजी का गठन किया गया।

डीआरजी के जवानों को मिलता है केवल 15 हजार प्रतिमाह
इस पूरे मामले में उल्लेखनीय यह है कि डीआरजी के जवानों को सामान्य पुलिसकर्मियों की तुलना में बहुत कम मेहनताना मिलता है। यह इसके विपरीत है कि जहां कहीं भी जोखिम होता है, उन्हें ही अग्रिम पंक्तिमें खड़ा किया जाता है। यही वजह भी है कि नक्सलियों की कार्रवाई में सबसे अधिक डीआरजी के जवान शिकार होते हैं। मिली जानकारी के अनुसार डीआरजी के जवानों को प्रतिमाह करीब 15 हजार रुपए दिए जाते हैं। इनमें उन्हें मिलने वाले भत्ते भी शामिल हैं। यह राशि पुलिस के सामान्य कर्मियों की तुलना में बहुत कम है। इसे लेकर डीआरजी के जवानों में असंतोष भी है। एक स्थानीय डीआरजी जवान ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि बेरोजगारी के कारण उनके पास कोई विकल्प नहीं होता है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं की राय
सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने कहा कि छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर जो लड़ाई चल रही है, उसमे मरने वाले आदिवासी, ओबीसी और दलित ही हैं। डीआरजी के जवानों को भी सलवा जुडूम की तरह हथियार पकड़ाकर जंगलों में सरकार मरने के लिए भेज रही है। सरकार को चाहिए कि वह जंगलों में रहने वालों के समस्याओं को सुने और उनका निराकरण करे। परंतु, वह तो हर बार मुंहतोड़ जवाब देने और मरने-मारने की ही बात करती है। सोनी आगे कहती हैं कि छत्तीसगढ़ की वर्तमान कांग्रेसी सरकार का दावा गलत है कि नक्सल घटनाओं में कमी आई है। यदि कमी आयी है तो फिर कसलापाड़ में जो हुआ, यह क्या है।

वहीं मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई के अध्यक्ष डिग्री प्रसाद चौहान का मत है कि राज्य सत्ता और माओवादियों के बीच संघर्ष में सिर्फ आदिवासी व अन्य मूलनिवासी ही शिकार होते हैं। चाहे संघर्ष क्षेत्र में जवानों की तैनाती के मामले हों अथवा सलवा जुड़ूम जैसे आखेट अभियान हों। समस्या की जड़ में आदिवासी मान्यताओं, उनके बुनियादी सवाल और दृष्टिकोण के प्रति उपेक्षा शामिल हैं। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार इन सवालाें से अनिभिज्ञ है। निर्मला बुच कमेटी से लेकर वर्तमान जस्टिस पटनायक कमेटी तक की रिपोर्टों में यह बात सामने आयी है।
(संपादन : नवल/गोल्डी)