देश कैसे चले, इसके निर्धारण डॉ. आंबेडकर द्वारा तैयार संविधान करता है। संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख है और इनमें सबसे पहला अधिकार है समानता का अधिकार। संविधान के अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक में कहा गया है कि जाति, लिंग, जन्मस्थान, धर्म, भाषा आदि के आधार पर देश के नागरिकों में भेदभाव नहीं किया जाएगा। वहीं इसी संविधान के प्रावधानों के अधीन सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है तथा इसे लागू करने के लिए नियम बनाए गए हैं। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय एवं दिल्ली सरकार के अधीन विश्वविद्यालयों के लिए मानों इन नियमों का कोई महत्व ही नहीं है। इसका शिकार पिछड़ा वर्ग के हजारों छात्र-छात्राएं बन रहे हैं ।
विश्वविद्यालयों के पास है जातियों की त्रुटिपूर्ण सूची, भुगत रहे छात्र
फारवर्ड प्रेस को एक छात्र द्वारा जो सूचना भेजी गई है उससे विश्वविद्यालय में दाखिले की प्रक्रिया पर सवाल खड़ा होता है। छात्र ने बताया है कि वह कणडेरा-करन जाति का है जो कि दिल्ली सरकार द्वारा अधिसूचित ओबीसी जातियों की सूची में 20वें क्रमांक पर है। उसने इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए आवेदन किया है। गौरतलब है कि दिल्ली विश्वविद्यालय व दिल्ली सरकार के अधीन अन्य विश्वविद्यालयों के पास दिल्ली सरकार के राजस्व विभाग द्वारा उपलब्ध करायी गयी सूची है। छात्र ने बताया कि इस सूची में उसकी जाति का नाम “कण्डोरा” दर्ज है और केवल इसी आधार पर उसका दाखिला नहीं किया जा रहा है जबकि दिल्ली सरकार की गजट अधिसूचना में कण्डेरा-करन जाति का उल्लेख है।
डीयू को चाहिए लॉकडाउन के दौरान जारी गैर क्रीमीलेयर प्रमाणपत्र
मामला केवल एक ओबीसी छात्र का नहीं है। हाल ही में जब दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की प्रक्रिया शुरू हुई तब ओबीसी छात्रों से कहा गया कि उन्हें दाखिले के वक्त मार्च 2020 के बाद, यानी लॉकडाउन के दौरान, जारी गैर-क्रीमीलेयर प्रमाणपत्र जमा करना होगा। विश्वविद्यालय की इस शर्त का विरोध किया गया। विरोध करने वालों में डूटा के सदस्य भी थे। उनका कहना था कि कोरोना के कारण जब देश में तालाबंदी थी तब बच्चे अपना गैर-क्रीमीलेयर प्रमाणपत्र कैसे बनवा सकते थे। जब विरोध तेज हुआ तब विश्वविद्यालय ने प्रेस विज्ञप्ति के जरिए प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के लिए 15 दिन का समय दिया।

मेरिट वाले ओबीसी छात्र-छात्राओं का दाखिला जनरल की बजाय ओबीसी कोटे में
ओबीसी विद्यार्थियों की समस्या का अंत यहीं नहीं हो जाता। एक और छात्र ने फारवर्ड प्रेस को सूचित किया है कि उसके अंक सामान्य कोटे के कटऑफ से अधिक हैं लेकिन उसका दाखिला ओबीसी कोटे में किया जा रहा है, जो कि गलत है। यह प्रावधान है कि यदि कोई विद्यार्थी प्राप्तांकों के आधार पर सामान्य कोटे के तहत प्रवेश पाने का पात्र है तो उसका दाखिला सामान्य कोटे के तहत ही होगा। परंतु डीयू में इसका अनुपालन नहीं किया जा रहा है। मेरिट लिस्ट में शीर्ष स्तर पर जो ओबीसी विद्यार्थी हैं, उन्हें भी सामान्य की बजाय ओबीसी कोटे में दाखिला लेने को कहा जा रहा है। इसमें भी एक पेंच यह है कि डीयू लगभग आधी सीटें सामान्य कोटे के अंतर्गत चिन्हित कर देता है और इसके हिसाब से कटऑफ की घोषणा कर दी जाती है। इसके बाद ओबीसी के लिए कट ऑफ की घोषणा की जाती है, जिसके तहत 27 प्रतिशत सीटों पर आरक्षण देने की बात कही जाती है। जबकि अनेकानेक छात्र सामान्य कोटे के तहत दाखिले की योग्यता रखते हैं लेकिन उन्हें ओबीसी कोटे के तहत दाखिला दिया जा रहा है।
नामांकन प्रक्रिया संबंधी वेबसाइट में है आरक्षण छीनने का पेंच
दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत परिषद के निर्वाचित सदस्य प्रो. सुधांशु बताते हैं कि सामान्य तौर पर लोगों को यह समझ में ही नहीं आता है कि ओबीसी की हकमारी किस तरह की जा रही है। असलियत यह है कि विश्वविद्यालय में नामांकन के लिए जो पोर्टल है, उसी में पेंच है। पोर्टल पर उम्मीदवारों को पंजीकरण कराते समय अपनी जाति का उल्लेख करना होता है। एक बार पंजीकरण होने के बाद दाखिला उनकी जाति के लिए निर्धारित कोटे के तहत ही होता है। मतलब यह कि यदि किसी ओबीसी छात्र ने ओबीसी छात्र के रूप में अपना पंजीकरण कराया है तो भले ही उसके प्राप्तांक सामान्य कोटे के लिए तय प्राप्तांक से अधिक हों, लेकिन विश्वविद्यालय में उसका दाखिला ओबीसी कोटे के तहत ही होगा।
आरक्षण से बढ़ी ओबीसी की हिस्सेदारी लेकिन जातिगत भेदभाव कायम
डीयू में ओबीसी छात्र-छात्राओं को दाखिले में कोई परेशानी न हो, इसके लिए विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा शिकायत निवारण प्रकोष्ठ बनाया गया है। यह व्यवस्था कॉलेज स्तर पर भी है। परंतु यह प्रकोष्ठ भी छात्रों की कोई मदद नहीं कर पा रहा है। इस संबंध में एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि इस प्रकोष्ठ में जो लोग हैं, उन्हें नियमों की जानकारी ही नहीं है। वे छात्रों की मदद कैसे करेंगे। उनके मुताबिक, उच्च शिक्षा में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू होने के कारण विश्वविद्यालय के सभी पाठ्यक्रमों यथा स्नातक, परास्नातक व एम.फिल आदि में ओबीसी की हिस्सेदारी बढ़ी है। लेकिन विश्वविद्यालय में जातिगत भेदभाव किया जा रहा है। यह एक बड़ी समस्या है।
1993 के पहले दिल्ली आए ओबीसी ही ओबीसी
यह पहली बार नहीं है कि डीयू में ओबीसी छात्रों को परेशान किया जा रहा हो। पहले भी उन्हें अद्यतन गैर-क्रीमीलेयर प्रमाणपत्र के बहाने दाखिले से वंचित किया जाता रहा है। इनमें उन छात्रों की समस्या और बड़ी है जिनके माता-पिता दूसरे राज्यों से हैं तथा लंबे समय से दिल्ली में रह रहे हैं। दिल्ली सरकार ने दिल्ली में ओबीसी जाति प्रमाण पत्र के लिए 1993 को कट ऑफ ईयर घोषित कर रखा है। इसका आशय यह है कि दिल्ली सरकार केवल उन्हें ही गैर क्रीमीलेयर का प्रमाणपत्र देगी जिनके माता-पिता 1993 के पहले दिल्ली आए थे।
(संपादन : अनिल/अमरीश)
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