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राजमहल की पहाड़ियों के अस्तित्व पर खतरा, संकट में आदिवासी

ऐतिहासिक घटनाओं की साक्षी और प्राकृतिक तौर से संपन्न राजमहल की पहाड़ियां सरकारी उपेक्षा और खनन कंपनियों की लालच के चलते धीरे-धीरे खत्म होने के कगार पर हैं और इसका सबसे बड़ा खमियाजा पहाड़िया और संथाल समुदाय को उठाना पड़ रहा है। बता रहे हैं मनीष भट्ट मनु

अविभाजित बिहार, बंगाल और उड़ीसा की राजधानी रहा राजमहल इन दिनों फिर सुर्खियों में है। ऐतिहासिक पहाड़िया जगड़ा और संथाल हूल का इतिहास अपने में समेटे यहां की पहाड़ियों का अस्तित्व अंधाधुंध कोयला उत्खनन के कारण संकट में है। गोंडवाना सुपरकांटिनेंट के उत्तरी छोर पर मौजूद यह पहाड़ियां प्राचीन हैं। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार ज्वालामुखी विस्फोट से निर्मित यह पहाड़ियां लगभग दस करोड़ वर्ष पुरानी हैं। यहीं मिले 68 से 145 मिलियन वर्ष पुराने हिल्स हाउस प्लांट जीवाश्मों ने अपनी ओर दुनिया भर के भूवैज्ञानिकों और पुरापाषाणवादियों का ध्यान खींचा था। मगर गलत सरकारी नीतियां और लालच की अंधी दौड़ के चलते यह सब समाप्त होने की कगार पर है।

पहाड़ियों के जर्रे-जर्रे में इतिहास

वर्ष 1771 में यहीं शुरु हुआ था पहाड़िया जगड़ा या पहाड़िया विद्रोह। प्रचलित अवधारणा के अनुसार यह इसी विद्रोह के प्रमुख नाम सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया को भारत का पहला आदि विद्रोही (स्पार्टाकस) मा0ना जाता है। हालांकि कुछ अन्य इनके साथ रमना अहाड़ी और आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर को भी इस विद्रोह का अगुआ मानते हैं। अंग्रेजों ने जबरा पहाड़िया को नाम दिया तिलका मांझी, पहाड़िया भाषा से जिसका हिंदी में शाब्दिक अनुवादी उग्र मुखिया होता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार जबरा पहाड़िया एक संथाल आदिवासी थे जबकि कुछ अन्य का मानना है कि यह भ्रम संथालों में भी मांझी उपनाम की उपस्थिति को लेकर जन्मा। इनका मानना है कि जहां पहाड़िया समुदाय में जबरा एक आम नाम है वहीं संथालों में आज भी तिलका नाम कम ही प्रचलित है। इतिहास यह भी बताता है कि वर्ष 1784 में जबरा पहाड़िया ने स्थानीय सूदखोरों, जमींदारों (दिकुओं) एवं अंग्रेजी शासकों के अत्याचारों और आदिवासी समाज की जमीन हथियाने के प्रयासों के चलते समुदाय को संगठित कर इस विद्रोह को धार दी थी। अफसोस यह सफल नहीं रहा और पकड़ने के बाद अंग्रेजों ने 13 जनवरी, 1785 को भागलपुर के चैराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर उन्हें सरेआम फांसी दे दी। रमना अहाड़ी और करिया पुजहर को लेकर इतिहास भी खामोश है।

वर्ष 1763 से 1800 के मध्य का सन्यासी विद्रोह भी इसी क्षेत्र से जुड़ाव पाता है। हालांकि यह कोई एक विद्रोह न होकर उस कालखंड में हुए अलग अलग विद्रोह थे। वर्ष 1855 में इसी क्षेत्र में प्रारंभ हुआ संथाल हूल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आदिवासियों के अदम्य साहस व कुर्बानी का बेजोड़ उदाहरण है। 

विदेशी यात्रियों ने भी किया है उद्धृत

इस क्षेत्र का इतिहास चीनी यात्री ह्वेन सांग, इरानी यात्री अब्दुल लतीफ एवं फ्रांसिस बुकानन के लेखों में भी मिलता है। यहीं पर स्थित है गेट वे ऑफ बंगाल के नाम से मशहूर तेलियागढ़ी किला। जो कभी आर्थिक एवं सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण था। इस किले का 15 वीं शताब्दी में हिंदू साहू राजा ने निर्माण कराया। 16वीं शताब्दी में बंगाल के मुगल शासक जलाल ने साहू राजा को परास्त कर इस किले पर अधिपत्य स्थापित किया। उन्होंने इसे दुर्ग का स्वरूप दिया। बंगाल पर किसी भी आक्रमण को रोकने के लिए यहां सेना की एक टुकड़ी हमेशा रहती थी। प्राचीन बंगाल में प्रवेश करने के लिए इस क्षेत्र से यही एक प्रवेश द्वार था। मेगास्थनीज ने गंगा नदी से सटे पहाड़ पर काले पत्थरों व ईंटों से बने इस किले का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है। चीनी यात्री ह्वेन सांग ने भी इसका उल्लेख किया है। सोलहवीं सदी में भारत आए इरानी यात्री अब्दुल लतीफ एवं अठारहवीं सदी में आए फ्रांसिस बुकानन ने भी अपनी रचनाओं में इसका उल्लेख किया है।

उपेक्षा के कारण विलीन होते तेलियागढ़ी किले के खंडहर

मिले हैं करोड़ों साल पुराने जीवाश्म

इन्हीं पहाड़ियों पर करोड़ों साल पुराने जीवाश्म (फॉसिल्स) मिले हैं। इन पर जुरासिक काल के पेड़ों की पत्तियों की छाप (लीफ इंप्रेशन) है। वैज्ञानिकों के अनुसार ये जीवाश्म उन पेड़ों के हैं, जो कभी शाकाहारी डायनाेसोर का भोजन थे। अब इस इलाके में जुरासिक काल (मेसोज्यायिक एज) के जंतुओं के जीवाश्म (एनिमल फॉसिल्स) मिलने की संभावनाएं फिर से बढ़ गई हैं। अगर ऐसा हुआ, तो शोधकर्ताओं के लिए उनकी रुचि के नए दरवाजे खुल जाएंगे। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) से जुड़े वैज्ञानिक राजमहल की पहाड़ियों की खुदाई पहले भी करते रहे हैं। उन्हें इसी इलाके के कटघर गांव में अंडों के जीवाश्म मिले थे, जो रेप्टाइल्स की तरह थे। मशहूर वैज्ञानिक बीरबल साहनी ने भी इन पहाड़ियों पर लंबा वक्त बिताया था। 1940 के दशक में उन्होंने यहां पेंटोजाइली प्रजाति के प्लांट फॉसिल्स की खोज की। उनके बाद देश-दुनिया के कई वैज्ञानिक यहां आए और जीवाश्मों की खोज की जाती रही। 

पहाड़ियों में कभी खेती थी जीवनयापन का आधार

कभी घने जंगलों और जंगली जानवरों से भरपूर यह पहाड़ियां आजादी के बाद से ही सरकारी उपेक्षा का शिकार होने लगीें। हालांकि एक लंबे अरसे तक यह पहाड़िया और संथाल समुदाय के साथ ही अन्य नागरिकों की आवास, भोजन और बुनयादी जरुरतों को पूरा करती रहीं। कुछ साल पहले तक पहाड़िया जनजाति के लोग यहां पर खेती (स्थानीय भाषा में करुआ) कर जीवनयापन करते थे। दुमका, गोड्‌डा, पाकुड़ और साहिबगंज जिलों में विस्तृत 10 करोड़ वर्ष पुरानी 12 पहाड़ियां यथा गदवा-नासा, अमजोला, पंगड़ो, गुरमी, बोरना, धोकुटी, बेकचुरी, तेलियागड़ी, बांसकोला, गड़ी, सुंदरपहाड़ी, मोराकुट्टी पहाड़ियों का अस्तित्व स्वतंत्र झारखंड बनने के बाद से पत्थर माफिया ने समाप्त ही कर दिया है। इस पहाड़ी इलाकों में बाजरा, मकई, अरहर, सुतली आदि की खेती की जाती रही है। इसके साथ ही यहां औषधीय पौधों का भी विशाल भंडार रहा है। इनमें चिरैता, अश्वगंधा, कालमेघ, खैर, कवाच बीज, गिलोय, वनतुलसी, धतुरा, निर्गुडी, पलास, पूर्णनाका, बेल, जंगली प्याज, गूलर, छतवन, बहेड़ा, सेमल मुसली, सतावर, चिरचिरी, सोनपाठा, रिगेनी, भुई आंवला, धातकी आदि प्रमुख हैं। मगर अवैध उत्खनन और भूजल में लगातार आती जा रही गिरावट के साथ ही बड़े पैमाने पर हो रही अवैध कटाई ने न केवल खेती को मुश्किल बना दिया है वरन यहां मिलने वाले औषधीय पौधे भी खत्म होते जा रहे हैं। 

खत्म हो रही है पहाड़ियां

इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ के साथ शुरू हुआ हमला

इस पहाड़ियों और उस पर निर्भर समुदाय की मुश्किलों में सर्वाधिक इजाफा किया वर्ष 2001 में स्थापित पैनम कोल माइंस लिमिटेड ने। तत्कालीन पंजाब राज्य विद्युत मंडल (अब पंजाब स्टेट पावर सप्लाई कारपोरेशन) और ईस्टर्न मिनरल एंड ट्रेडिंग एजेंसी के ईएमटीए कोल लिमिटेड का यह संयुक्त उपक्रम 4 अप्रैल, 2001 को ही अस्तित्व में आया था और उसी वर्ष इस संयुक्त उपक्रम को झारखंड के पाकुड़ जिले में स्थित पचवारा कोयला ब्लाक आवंटित कर दिया गया। पहाड़िया और संथाल बहुल आलूबेरा और पचवारा पंचायतों में कोयला खनन हेतु अधिग्रहित की गई जमीनों को लेकर इस कंपनी पर यह आरोप भी लगे कि उसके द्वारा इसके लिए ग्रामसभाओं से सहमति नहीं ली गई है। साथ ही संथाल परगना टेनेंसी एक्ट 1949 तथा पंचायत (अधिसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 के प्रावधानों के उल्लंघन के आरोप भी। 

हालांकि स्थानीय लोगों ने खनन कंपनी और परियोजना का पुरजोर विरोध किया। उन्हें इस बात का अभास था कि इस परियोजना के चलते न केवल उनकी जमीन बरबाद हो जाएगी वरन क्षेत्र से बड़े पैमाने पर विस्थापन भी होगा। इसके चलते उनके द्वारा राजमहल पहाड़ बचाओ आंदोलन की शुरुआत की गई। इस आंदोलन के बैनर तले वर्ष 2006 तक कंपनी और परियोजना को जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा। मगर, एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में 30 नवंबर, 2006 को आंदोलन और कंपनी के मध्य एक एमओयू हस्ताक्षरित किया जाकर भूमि अधिग्रहण और कोयला खनन को स्वीकृति प्रदान कर दी गई। भारत में अपनी तरह के अनोखे और पहले इस एमओयू में पुनर्वास और पुनर्स्थापन को लेकर लगभग चालीस चरणों की योजनाओं उल्लेख है। मगर, कंपनी ने इन्हें पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। अप्रैल 2015 में गठित एक स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण ने अपने प्रतिवेदन में कहा है कि पैनम कोयला कंपनी ने समुदाय में फूट डालने और राजमहल पहाड़ बचाओ आंदोलन के सदस्यों को दूर करने के लिए रिश्वत, मुआवजा, नौकरी और ठेका को एक रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किया। इस न्यायाधिकरण ने पाया कि राजमहल पहाड़ बचाओ आंदोलन के सदस्यों के विरुद्ध पुलिस ने अनेक संगीन अपराधों – अपहरण, वसूली, हत्या का प्रयास आदि – के तहत प्रकरण दर्ज किए। न्यायाधिकरण ने यह भी पाया कि आंदोलन के कई सदस्य और उनके परिजन संदिग्ध हादसों – जिसमें पैनम कोयला कंपनी का नाम भी आया – में मौत के शिकार हुए।

बहरहाल, यह सच है कि ऐतिहासिक घटनाओं की साक्षी और प्राकृतिक तौर से संपन्न यह पहाड़ियां सरकारी उपेक्षा और कंपनियों की लालच के चलते धीरे-धीरे खत्म होने के कगार पर हैं और इसका सबसे बड़ा खमियाजा पहाड़िया और संथाल समुदाय को उठाना पड़ रहा है।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

मनीष भट्ट मनु

घुमक्कड़ पत्रकार के रूप में भोपाल निवासी मनीष भट्ट मनु हिंदी दैनिक ‘देशबंधु’ से लंबे समय तक संबद्ध रहे हैं। आदिवासी विषयों पर इनके आलेख व रपटें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं।

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