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शब्बीरपुर अभी भी सुलग रहा है

शब्बीरपुर कांड की मूल जड़ सवर्णों और दलितों की एक दूसरे से बिल्कुल उलट चाहतों में निहित है। दलित अब सामाजिक समानता, आत्मसम्मान और आत्मगरिमा के बिना जीने को मानसिक तौर पर तैयार नहीं हैं, दूसरी तरफ सवर्ण किसी भी शर्त पर दलितों को अपने बराबर का मानने को तैयार नहीं हैं

हम लोग शब्बीरपुर गांव में तेरहवें दिन पहुंचे थे। जातीय घृणा के बर्बर तांडव का शिकार दलित टोला भयाक्रान्त था। दलित टोले में ज्यादात्तर महिलाएं ही मौजूद थीं, इक्के-दुक्के पुरूष और कुछ बच्चे और बच्चियां दिख रहे थे। इक्के-दुक्के नौजवान कभी-कभी दिख जाते थे। उनमें से कुछ दूसरे गांव से अपने रिश्तेदारों का हाल-चाल लेने  आए थे। उस दिन दलित टोले में कुछ ज्यादा ही भय व्याप्त था। पहुँचते ही एक महिला ने बताया कि जो राजपूत लड़का उस दिन (5 मई को) मरा था, उसकी आज तेरहवीं (ब्रह्मभोज) है। महिलाएं बताने लगीं की हम लोगों को डर लग रहा है कि कहीं आज भी उसकी मौत का बदला लेने के लिए राजपूत हमला न करें। महिलाएं 5 मई को राजपूतों द्वारा किए गए बर्बर तांडव को दिखाना चाहती थीं और उस दिन के खौफनाक मंजर के बारे में बताना चाहती थीं। अगर कोई घर छूट जाता तो वे बुला कर दिखातीं। औरतों के निचुडे और खौफजदा चेहरों को देखकर कोई प्रश्न पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। फिर अपने  तथ्य जानने और पत्रकारिता के तकाजे के चलते प्रश्न तो पूछना ही पड़ रहा था। एक महिला से बात शुरू हुई, उसके पीछे एक सात-आठ साल की सहमी सी बच्ची खड़ी थी, मैंने पूछा उस दिन क्या हुआ, प्रश्न पूरा होने से पहले ही वह बोल पड़ी (अपनी स्थानीय बोली में) हम लोग गन्ना छीलने खेत में गए थे, अचानक बहुत जोर से शोर सुनाई दिया, चारों ओर धुआं दिखने लगा। छतों  पर आग की लपटे उठ रही थीं, भाग कर घर आए। मेरे घर में आग लगी हुई थी। मेरी दुकान और घर का दरवाज तोड़ दिया गया था। दुकान में आग लगा दी गई थी, सारा सामान तितर-बितर हो गया था। वे लोग (राजपूत) हमारी टी.वी और पंखा तोड़ रहे थे। कुछ भी नहीं छोड़ा उन आतताईयों ने। फिर वह महिला लूटी-जली दुकान, टूटी- बिखरी टी.वी., पंखे और टूटे दरवाजे के हिस्से दिखाती हैं। यह दलित टोले का तुलनात्मक तौर पर समृद्ध परिवार था।

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थोडा आगे बढने पर

थोड़ा आगे बढ़ते ही एक बरामदे में पांच-सात महिलाएं बैठी हैं, उनके चेहरों को देखकर थोड़ा भी संवेदनशील आदमी कांप उठेगा। निचुड़ा हुआ बीमार-सा दहशतगर्द चेहरा। वे एक साथ कह उठती हैं, जरा यह घर भी देख लीजिए। वह घर पूरी तरह से जल गया था, उस घर के बरामदे में तीन जली मोटर साईकिलें पड़ी थीं, लोहे की आलमारी बुरी तरह से तोड़ी गई, जली पडी थी। महिलाओं ने बताया, कुछ ही दिनों पहले इस घर में नई बहु आई थी। आतताई उसका सारा सामान लूटकर, लेकर चले गए। उन्होंने बताया और दिखाया कि इस घर में कुछ भी नहीं बचा है, सब जल गया है। लगभग कुल 25 घरों में आग लगाई गई। मोटर साईकिल, टी.वी. और पंखा, जिन भी घरों में थे, उन्हें तहस-नहस कर दिया गया। हड्डियों को कंपा देने वाला दृश्य एक बूढ़ी मां के घर का था, उनका एक कमरे का घर था, लगभग 80-85 साल की एक यह बूढ़ी मां एक खाट पर बेहोश सी पड़ी हुई थीं। हम लोगों के पुहंचने पर वह थोड़ी-सी आंख खोलने की कोशिश करती हैं, लेकिन कुछ बोल नहीं पाती हैं। उनके घर की छोटी-छोटी बटुलियों, थालियों और कड़ाही को भी बुरी तरह से  कुचल दिया गया था। उनके पास बनाने-खाने के लिए कोई सामान नहीं बचा था। उस बुढ़ी मां के मिट्टी के चूल्हे को भी महाराणा प्रताप के बहादुर वंशजों ने अपने पैरों तले रौंद डाला था। मेरी विशेष उत्कंठा उस पति- पत्नी से भी मिलने की थी, जिनकी मार्मिक हालात के बारे में इंडियन एक्सप्रेस अखबार के संवाददाता ने 5 मई की घटना के सातवें दिन लिखी था। पत्नी को फालिज मारा है, पति उसे छोड़कर जा नहीं सकता, पति को डर है कि कहीं पुलिस उसे उठाकर ले न जाए। पत्नी कह रही है, हमके छोड़ के न जइह। एक तरफ पुलिस का भय दूसरी तरफ बेबश-लाचार पत्नी का आग्रह।

हम लोग रविदास मंदिर की ओर बढ़ते हैं, अफवाह यह थी कि रविदास जी की मूर्ति तोड़ दी गई है, हम लोगों ने मंदिर में जाकर देखा तो जिस शीशे के अन्दर मूर्ति थी, उस सीसे को तोड़ दिया गया था, छड़ या किसी अन्य चीज से रविदास जी की मूर्ति पर प्रहार किया गया था।

दलित टोले की महिलाओं और घायलों ने दलित टोले में आगजनी और तलवारों-राडों से हमले का वर्णन करते हुए बताया कि हजारों राजपूत तलवार, राड और डंडे लिए हुए, उन लोगों के घरों पर टूट पड़े। दूर से आए कई गांवो के लोग थे। वे लोग योगी वाला अंगोछा बांधे हुए थे। सबसे पहले उन लोगों ने दलित घरों के पास रखे भूंसे के ढेरों में आग लगाई, फिर छतों पर रखे भूंसे, गोइंठा और लकड़ियों में आग लगाई, फिर घरों में घुस कर आग लगाई, मोटर साईकिलों और साईकिलों को फूंका। खाटों पर पहनने वाले कपड़ों को रखकर उसमें आग लगा दी। फिर हर घर में घुस कर टी.वी और पंखा तोड़ डाला। लोगों पर अंधाधुध तलवारों से वार किया। राजपूतों ने एक गन्ने के खेत में भी आग लगा दी, क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि दलित भागकर इसी में छिपे हैं। दलित टोले के लोगों ने बताया कि वे “हर हर महादेव, जै श्रीराम, जै राणा प्रताप” का नारा लगा रहे थे। वे चिल्ला रहे थे कि शब्बीरपुर में रहना है, तो “योगी-योगी” कहना है। हमलावरों की भीड़ आंबेडकर मुर्दाबाद के नारे भी लगा रही थी। जातिसूचक और मां-बहनों को संबोधित कर गालियां दी जा रही थीं। घायलों ने बताया कि मारते हुए और गालियां देते हुए वे लोग कह रहे थे कि बोल राणा प्रताप की जय, बोल अंबेडकर मुर्दाबाद बुरी तरह से घायल भाष्कर ने हम लोगों से कहा कि हम कैसे अंबेडकर मुर्दाबाद बोल सकते थे।

यह बर्बर तांडव दिन के उजाले में पुलिस की उपस्थिति में हुआ था। लगभग 40 की संख्या में पुलिस वाले घटना के समय भी उपस्थित थे, पुलिस ने किसी को रोकने की कोशिश नहीं किया, कुछ महिलाओं और बच्चियों ने बताया कि पुलिस वाले कह रहे थे कि जो भी करना हो, वह जल्दी करो। दिन में 10 बजे भीड़ जुटनी शूरू हुई थी। 11 बजे से 2 बजे दिन तक राजपूत दलितों पर कहर बरसाते रहे।  दलितों ने आग बुझाने के लिए फायर बिग्रेड बुलाया तो राजपूतों ने उसके आगे ट्रैक्टर खड़ा करके उसे रोक दिया। दलितों के दिलों में जल रही अपमान की आग की तरह ही अभी भूंसों के ढेरों में भी आग सुलग रही है।

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हम लोग इसी गांव के राजपूत टोले में भी गए। कुछ लोगों से बात हुई, उन लोगों का इस बात पर जोर था कि सारा कुछ बाहरी लोगों ने किया है, आग खुद ही पहले दलितों ने अपने हाथ से लगाई थी। यह पूछने पर कि बाहरी कैसे जानते थे कि दलित टोले में वे घर कौन से है, जो दलितों के नहीं, जिनको कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया है। तब उन लोगों ने कहा कि नहीं-नहीं कुछ गांव के भी लड़के थे। राजपूतों का यह भी कहना था कि दलितों ने राणाप्रताप की जयंती का जुलूस रोका, उस पर पथराव किया। उनका यह भी कहना था कि दलितों की छतों पर से पत्थर बरसाए जा रहे थे। उसी पत्थर के लगने से राजपूत लड़का मरा। वह यह भी बताते हैं कि घटना (5 मई) कुछ दिन पहले हम लोगों को पता चल गया था कि भीम सेना राजपूत टोले में आग लगाने वाली है।

अस्पताल में

हम लोग घायलों से मिलने सहारनपुर सरकारी अस्पताल गए। कुल लगभग 17 लोग घायल हैं, सबसे गंभीर रूप से घायल दलित संत कुमार देहरादून के जोली-ग्रांट अस्पताल में भर्ती हैं,  दो बार आपेरशन हो चुका है। उसकी हालात गंभीर है। 5-6 लोग निजी अस्पतालों में हैं। 10 लोग सरकारी अस्पताल में थे। उसमें 4 महिलाएं और 6 पुरूष हैं। सबसे बदतर हालात एक पति-पत्नी की है। जिनका नाम अग्नि भाष्कर और रीना है। सिर से पांव तक दोनों पर तलवार और छड़ों से वार किया गया है। छाती बचाने की कोशिश में रीना के दोनों हाथ तलवार से बुरी तरह जख्मी हैं। दोनों पति-पत्नी के सिर, हाथ, पांव, जांघ, पेट और पीठ पर पट्टियां बंधी हुई हैं। सबसे ह्दयविदारक दृश्य यह था कि रीना की, सबकुछ से अनजान मासूम बच्ची बेहोशी की स्थिति में पड़ी मां के घायल स्तनों से दूध पाने की कोशिश कर रही है।

बाबा साहब के चरणों से गुजरना गवारा नहीं

शब्बीरपुर गांव में दलितों के साथ इस नृशंस अत्याचार की पृष्ठभूमि में तीन कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। पहला शब्बीरपुर गांव में कुछ वर्षों, महीनों और दिनों में घटी घटनाएं। दूसरा स्थानीय स्तर पर सहारनपुर-मेरठ आदि में घटी घटनाएं और देश, विशेष कर उत्तर प्रदेश में घटी घटनाएं। शब्बीरपुर के दलित बताते हैं कि राजपूत दलितों के प्रति उस समय से अधिक नफरत करने लगे, जब गांव के प्रधानी के चुनाव में एक दलित, राजपूतों को हराकर प्रधान बन गया। उसी समय से राजपूत खार खाए बैठे थे। 5 मई को जिस संत कुमार को राजपूतों ने सबसे बुरी तरह से पीटा वह प्रधान का बेटा है, जो जिंदगी और मौत के बीच अस्पताल में जूझ रहा है। उससे पहले भी एक दलित ही प्रधान थे, लेकिन उस समय सीट सुरक्षित थी। सामान्य सीट से दलित प्रधानी का चुनाव जीते थे, वे बसपा के स्थानीय नेता भी हैं। जबकि राजपूत भाजपा, विशेषकर योगी के समर्थक हैं। प्रधानी के चुनाव में एक दलित से पराजय की आग को निकालने का मौका राजपूतों को तब मिला, जब दलित अपने मसीहा बाबासाहब भीमराव अंबेडकर की 126वीं जयंती के अवसर पर उनकी मूर्ति रविदास मंदिर के प्रांगण में लगाने की तैयारी कर रहे थे। सारी तैयारी पूरी हो गई थी। रविदास  मंदिर के प्रागंण में एक चौड़ा और ऊंचा चबूतरा मूर्ति लगाने के लिए बन चुका था। ऐन मौके पर राजपूतों ने प्रशासन से शिकायत की कि बिना अनुमति के अंबेडकर की मूर्ति सार्वजनिक जगह (रविदास मंदिर) पर लगाई जा रही है। प्रशासन और पुलिस ने दलितों को मूर्ति लगाने से रोक दिया। इस घटना ने दलितों के मन में दुख और गहरा आक्रोश भर दिया, क्योंकि बाबासाहब उनके आत्मसम्मान के प्रतीक हैं। दोनों समुदायों के बीच तनाव तीखा हो गया। दलितों ने बताया कि राजपूत कह रहे थे कि ओकर मूर्ति लग जाई त, ओकरे गोड़े के नीचे से निकले के पड़ी। असल में डॉ. अंबेडकर की मूर्ति पांच-छह फीट ऊंचे चबूतरे पर लगने वाली थी, मूर्ति का चेहरा गांव के भीतर की सड़क की ओर था, अंबेडकर की मूर्तियों का एक पांव आगे की ओर चलने की मुद्रा में बढ़ा होता है, वही सड़क राजपूतों के निकलने का भी रास्ता था, उनको लगता था कि मूर्ति के पांवों तले से गुजरना पड़ेगा। फिर 5 मई को राणा प्रताप की जयंती का अवसर आया। यह जयंती शब्बीरपुर  गांव से दूर एक गांव शिमलाना में मनाई जानी थी। दूर-दूर के राजपूतों को न्यौता भेजा गया था। वे लोग शिमलाना में जुटे भी थे, लेकिन सैकड़ों की संख्या में लोग तलवारों, बंदूकों और अन्य हथियारों के साथ शब्बीरपुर में भी जुटे और जुलूस की शक्ल में बाजे-गाजे के साथ शब्वीरपुर से शिमलाना जाने की तैयारी कर रहे थे। दलितों ने बिना अनुमति के इस जुलूस पर अपना एतराज प्रशासन से जताया था, तनाव की आशंका में ही पुलिस पहले से ही शब्बीरपुर में तैनात थी।

उस गांव के तनाव का संबंध आस-पास के इलाकों में राजपूतों और दलितों के बीच तनाव से भी था। इसमें एक घटना ए.एच.पी. इंटर कॉलेज में घटित हुई थी, जिसमें राजपूत लड़के पानी पहले पीएं कि दलित लड़के इस पर एक दलित लड़के को पीटा गया था, बाद में भीम सेना ने इसमें हस्तक्षेप किया, जिसके चलते राजपूतों को झुकना पड़ा था। इलाके में तनाव का दूसरा कारण शब्बीरपुर के बगल के एक गांव घड़कौली के अंबेडकर गांव के प्रवेश द्वार पर “जय भीम, जय भारत” के नारे के साथ लगा “दी ग्रेट चमार” का बोर्ड था। ध्यान रहे उस इलाके में राजपूत लोग “दी ग्रेट राजपूत” का बोर्ड लगाते हैं और अपने घरों के प्रवेश द्वार पर भी “दी ग्रेट राजपूत” लिखते हैं। दी ग्रेट चमार लिखना इसका एक जवाब था। इसको लेकर भी संघर्ष हुआ। इसके अलावा उस इलाके में दलितों और राजपूतों बीच संघर्ष और तनाव की घटनाएं होती रहती हैं। इस इलाके में दलितों की भीम सेना के उभार और इसके द्वारा राजपूतों की दबंगई का प्रतिवाद और कई बार करारा जवाब भी राजपूतों के श्रेष्ठता के दंभ को चुनौती दे रहा है। हजारों सालों से राजपूतों का अपने को दलितों से श्रेष्ठ मानने की भावना या यूं कहें कि दलितों को अपने पांवों की जूती से भी अधिक महत्त्व न देने की जन्मजात संस्कारगत भावना और विचार इन सब तात्कालिक और स्थानीय घटनाओं की जड़ में है। एक अन्य बात की ओर जरूर ध्यान देना चाहिए कि राणा प्रताप की जयंती के दिन शिमलाना में शेर सिंह राणा का भी सम्मान समारोह था, यह वही शेर सिंह राणा है, जिसने फूलन देवी की हत्या की था। हम सभी जानते हैं कि फूलन देवी जहां एक ओर दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के प्रति सवर्णों के अन्याय की प्रतीक हैं, वही राजपूतों के लिए शेर सिंह राणा दलितों-पिछड़ों की नायिका की हत्या कर राजपूतों की हत्या का बदला लेने का प्रतीक है। शेर सिंह राणा उस पूरे इलाके में घूम-घूम कर राजपूतों को ललकारता है कि अपने पूर्वजों के गौरव को स्थापित करना है।

शब्बीरपुर कांड की मूल जड़ सवर्णों और दलितों की एक दूसरे से बिल्कुल उलट चाहतों में निहित है। दलित अब सामाजिक समानता, आत्मसम्मान और आत्मगरिमा के बिना जीने को मानसिक तौर पर तैयार नहीं हैं, दूसरी तरफ सवर्ण किसी भी शर्त पर दलितों को अपने बराबर का मानने को तैयार नहीं हैं। दिक्कत यह है कि दलित का बुहलांश हिस्सा गांवों में सवर्णों पर निर्भर है, गांवों में दलितों के भीतर सामाजिक समानता की जबर्दस्त चाह पैदी हुई है, लेकिन इस समानता को पूरी तरह से प्राप्त करने का उनके पास आर्थिक आधार नहीं, जिन सर्वणों से उन्हें सामाजिक बराबरी हासिल करनी है, गांवों में आर्थिक तौर पर दलित कमोबेश उन्हीं पर निर्भर हैं। राजनीतिक समीकरण ज्यों ही दलितों के खिलाफ होता है, उनकी स्थिति और बदत्तर हो जाती है। यह बात विशेष तौर पर शब्बीरपुर की घटना में दिखाई देती है। शब्बीरपुर में प्रधानी का प्रश्न, अंबेडकर की मूर्ति का प्रश्न, भाजपा या बसपा को वोट देने का प्रश्न सब समानता के प्रश्न थे। मोटर साईकिल, टी.वी., और पंखों आदि को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त करना क्या बताता है? ये वे वस्तुएं हैं, जो दलितों को इन मामलों में राजपूतों के बराबर ले जाकर खड़ा कर देती हैं। मेरे गांव में सवर्ण कहते थे कि इनकरन  (दलितों) के मोटर साईकिलिया रोडवा पर नाहीं हम्मन के करेजवा पर चले ले

शब्बीरपुर में केवल, दलितों की भौतिक प्रगति के साधनों को ही आग के हवाले नहीं किया गया है, उन्हें केवल बेरहमी से पीटा ही नहीं गया है, केवल तलवारों और राड़ों से बुरी तरह घायल ही नहीं किया गया है, इस सबके साथ ही उनकी समानता की भावना को रौंदा गया है, उनके आत्मसम्मान को तार-तार किया गया है, उनकी गरिमा की भावना को कुचला गया, सिर उठाकर जीने की चाहत को तोड़ने की कोशिश की गई है।

हमने महसूस किया कि शब्बीरपुर में भूंसे और गोईठों में सुलग रही आग के साथ ही  दलितों के दिलों में भी आग सुलग रही  है। यदि इस आग से नए भारत का निर्माण नहीं किया जाता है, तो यह आग भारत को झुलसा देगी।

(साथ में डॉ. पुष्पेंद्र, संदीप राऊ, डॉ. सौरभ और मदन पाल गौतम)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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