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अंधविश्वास फैला रहे विज्ञान की कमाई खाने वाले

संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2010 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें भारत में 1987 से 2003 तक 2 हजार 556 महिलाओं को डायन या चुड़ैल कह कर मार देने की बात कही गई थी। एक दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2011 में 240, 2012 में 119, 2013 में 160 हत्याएं अंधविश्वास के नाम पर की गर्इं। दुखद यह है कि इसे बढ़ाने में वे भी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं  जो विज्ञान की कमाई खाते हैं। बता रहे हैं संजीव खुदशाह :

इक्कीसवीं सदी में समाज में अंधविश्वास घटने के बजाय बढ़ता जा रहा है। अंधविश्वास के दूसरे दर्जे भी हैं, जिनमें इसमें भूत है, चुड़ैल है और जिन्न आदि हैं। लोग मानते हैं कि यही सब जब किसी इंसान की जिस्म में जगह बनाकर रहने लग जाते हैं तो इसे असर होना, भूत, चुड़ैल आना कहते हैं। दुनिया की कोई सभ्यता, धर्म-मजहब इस बुराई से बची नहीं है। मुसलिमों में जिन्न का साया या बुरी आत्मा के असरात हों या हिंदुओं में चुड़ैल का साया, या फिर ईसाइयों में घोस्ट की डरावनी छाया। हर तबके में यह अजाना डर था। दूसरी ओर, नास्तिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले लोगों का मानना है कि यह सब मजह दिमागी फितूर है, जिसकी आड़ में कुछ ढोंगी बाबाओं, ओझाओं और दरगाहों पर रहने वाले लोगों की रोजी चल रही है। इस्लाम के विद्वान इसे कुफ्र या नाजायज करार देकर इसकी निंदा करते हैं। इस्लाम में किसी भी तरह के तावीज पहनने, बांधने की सख्त मनाही है। इसके बावजूद कुछ लोग अंधविश्वास की दुकानों के जरिए काला जादू, सिफली इल्म, वशीकरण जादू, तंत्र विद्या आदि के फेर में पड़ जाते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि अंधविश्वास फैलाने में विज्ञान की कमाई खाने वाले डॅक्टर, इंजीनियर भी शामिल हैं और नेताओं के लिए तो यह वोट पाने का सबसे आसान तरीका।

जाहिर तौर पर सरकारें चुप हैं और मीडिया ऐसे ढोंगियों के प्रसार का सहयोगी बन चुका है। इसी अनदेखी का ही नतीजा है कि अंधविश्वास फैलाने वालों का बड़ा नेटवर्क इंटरनेट पर छाया हुआ है। लोग डॉक्टर से ज्यादा ऐसे ढोंगी तांत्रिकों पर यकीन करने लगे हैं। इन बहुरूपियों की शिकार ज्यादातर महिलाएं हो रही है और महिलाओं के जरिए पुरुष भी इनके शिकार बन रहे हैं। विड़ंबना तो यह है कि जिस जादू-टोने को विज्ञान मानने से इनकार करता रहा है आज उसी जन्मी तकनीक के सहारे तंत्र-मंत्र का जाल बिछा हुआ है। लोगों की महत्वकांक्षाएं बढ़ी हैं तो फर्जी लोगों का जाल भी बढ़ रहा है। चूंकि हर हाथ में फोन है और इंटरनेट पहुंच बढ़ रही है तो अंधविश्वास का कारोबार भी इसी के जरिए आपके पास तक पहुंच रहा है।

पिछले दिनों कुछ अखबारों में एक अध्या‍त्मिक समागम का दो सम्पूर्ण पृष्ठ वाला विज्ञापन प्रकाशित हुआ। साथ ही बड़े-बड़े होर्डिगं, फ्लेक्स, बैनर और पोस्टर पूरे रायपुर शहर में लगाए गए। विज्ञापन में या दावा किया गया कि ऐसे तमाम रोग जिसमें चिकित्सा विज्ञान नाकाम हो गया है। उन्हें इस दो दिवसीय समागम में ठीक किया जाएगा। इस विज्ञापन में बहुत सारे लाभार्थियों के फोटो सहित साक्षात्कार थे। इतना ही नहीं, केंद्रीय मंत्री समेत स्थानीय मंत्री एवं सेलिब्रिटी, फिल्म अभिनेता के साथ आशीर्वाद लेते हुए उस बाबा की तस्वीर थी।

अंधविश्वास को बढ़ाने वाला रायपुर में एक अखबार में प्रकाशित विज्ञापन

दरअसल यह विज्ञापन सिर्फ अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाला नहीं है। इस विज्ञापन के जरिये चिकित्सा जगत को चुनौती भी दी जा रही है। लेकिन इस विज्ञापन पर किसी भी डॉक्टर ने आपत्ति दर्ज नहीं कराई और ना ही किसी प्रकार का विरोध किया। डॉंक्‍टरों के संघ ने चुप्‍पी साध ली। अपवाद में कुछेक डॉक्टर सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा करते दिखे। डॉक्टरों की चुप्पी के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने विज्ञापन नहीं देखा हो या वे इन बातों से वाक़िफ़ नहीं होंगे। लेकिन यह बात गलत है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि शहर में आयोजित इस कार्यक्रम में बहुत सारे सरकारी कर्मचारी-अधिकारी, इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस, मंत्री नेता पहुंचे हुए थे। जाहिर तौर पर उनका मकसद विज्ञापन के अनुरूप ही रहा होगा।

इस संदर्भ में यह बताना जरूरी है कि देश के तमाम इंजीनियर और डॉक्टरों द्वारा ही प्रतिदिन किस प्रकार विज्ञान को चुनौती दी जा रही है।। एक बार रायपुर शहर के एक नामी डॉक्टर के पास जाना हुआ। इस डॉक्टर के पास अपाईटमेंट लेने के लिए 15 दिन पहले फोन करना पड़ता है और परामर्श फीस  600 रुपए के साथ दिनभर का इंतजार करना निहायत तौर पर जरूरी है, क्योंकि उनके मरीज़ों की संख्या काफी होती है। इसमें कोई शक नहीं कि वे बहुत ही बेहतर इलाज करते है। लेकिन जब उनके क्लीनिक रूम पर नजर पड़ी तो मुझे यह  देखकर आश्चर्य हुआ कि उनकी टेबल पर व्यवसाय बढ़ाने हेतु तमाम अंधविश्वास की वस्तुएं रखी हुई थीं। जैसे पानी में डूबा हुआ कछुआ, ताबीज, नींबू मिर्च और डॉक्टर के हाथों में बहुरंगी अंगूठियां। देश में वे अकेले डॉक्टर नहीं हैं जो इस प्रकार विज्ञान पर कम अंधविश्वास पर ज्यादा भरोसा करते है। बल्कि यूं कहें कि ज्यादा संख्या में ऐसे ही डॉंकटर आप को मिलेंगे जो कही ना कहीं अंधविश्वास और टोने-टोटके का दामन थामे  हैं ।

इसी प्रकार एक नामी गिरामी आर्किटेक्ट इंजीनियर के घर के सामने अजीब डिज़ाइन का पत्थर पड़ा हुआ था। मैंने कहा कि इस सुंदर घर में आपने इस बदरंग पत्थर को क्यों रखा है। उन्होंने बताया कि यह क्रिस्टल पत्थर है। इसे घर के सामने रखने से मेरे आय में बढ़ोत्तरी होगी। ऐसा उन्हें उनके एक दोस्त ने बताया जो स्वयं भी आईआईटी में पढ़कर इंजीनियर हैं।। फिर उनके आवास पर तमाम ऐसी अंधविश्वास वाली वस्तुएं अनायास ही दिख गयीं। इस कारण मुझे उनकी शिक्षा पर संदेह होने लगा। जाहिर है कि उन्हे  भी अपने हुनर पर कम टोटके पर ज्‍यादा विश्वास है। राजस्थान भरतपुर के पूर्व सरकारी डांक्टर ने तो बाक़ायदा एक मरीज को दवाई देने के साथ-साथ प्रिस्क्रप्सन में टोने-टोटके करने की सलाह दी, जो सोशल मीडिया में काफी चर्चित भी रहा।

अब सवाल उठता है कि क्या हम ऐसे डॉक्टरों और इंजीनियरों से यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वे अंधविश्वास के खिलाफ खड़े हो सकेंगे? उनका प्रतिरोध कर सकेंगे? क्या हम उन मंत्रियों और नेताओं से अपेक्षा कर सकते हैं जो सारी दुनिया में घूमते हैं और उनके उपर देश को अंधविश्वास से मुक्त कराने की जिम्मेवारी है?

बहरहाल आज देश में चुनौती विज्ञापन में दिखने वाला बाबा और अंधविश्वास फैलाने वाले व्यवसायी नहीं हैं । आज विज्ञान के लिए सबसे बड़ी चुनौती है खुद हमारे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, शासकीय कर्मचारी व अधिकारी मंत्री एवं नेता और वैज्ञानिक। अब सवाल उठता है कि समस्या क्या है और उसके समाधान क्या हैं? निश्चित तौर पर हमारी शिक्षा प्रणाली को धर्म से अलग करना होगा और अंधविश्वास पर एक विषय शामिल करना पड़ेगा ताकि अंधविश्वास और विज्ञान का घालमेल ना हो सके।  यह विचार करना होगा कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 100 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय क्यों नहीं शामिल है। हस्तक्षेप जरूरी है ताकि समाज विज्ञान के सहारे आगे बढ़े।


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लेखक के बारे में

संजीव खुदशाह

संजीव खुदशाह दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इनकी रचनाओं में "सफाई कामगार समुदाय", "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" एवं "दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल" चर्चित हैं

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