केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार द्वारा किस प्रकार शिक्षा के भगवाकरण के साथ-साथ दलित पिछड़े तथा जनजातीय समाज के जागरूक छात्रों को उच्च शिक्षा तथा शोध से वंचित किया जा रहा है। इसका विकृत चेहरा सामने आ रहा है। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में शोध छात्रों की संख्या तथा अनुदान में भारी कटौती के साथ-साथ छात्रों की अनिवार्य उपस्थिति जैसी व्यवस्था करके इसके स्वायत्त स्वरूप को पूर्ण रूप से समाप्त किया जा रहा है। इसके बाद केंद्र सरकार के निशाने पर टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज जैसी प्रतिष्ठित संस्था है। इस सत्र से संस्थान के प्रबंधन ने दलित, पिछड़े तथा जनजातीय वर्ग से आने वाले छात्रों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता तथा छात्रवृत्तियों को पूर्ण रूप से समाप्त करने का निर्णय लिया है। इसके खिलाफ संस्थान के बहुजन छात्र व छात्रायें आंदोलनरत हैं।
इस सम्बन्ध में संस्थान की छात्र यूनियन के महासचिव फैज़ल अहमद का कहना है कि संस्थान प्रबंधन के इस फैसले के विरोध में संस्थान के सभी परिसरों यथा मुंबई, गुवाहाटी, हैदराबाद, तुलजापुर में विरोध प्रदर्शन करने का फैसला किया है। इसके अंतर्गत सभी प्रकार के ज़मीनी शोध, कक्षा बहिष्कार तथा शोध प्रस्तुत करने का कार्य स्थगित कर दिया गया है। उनका कहना है कि 2016-18 के बैच के प्रारंभ में छात्रों को इस फैसले के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी। अब 2017 के सत्र के बीच में इस प्रकार के फैसले से इन वर्गों से आने वाले सैकड़ों छात्रों का भविष्य अंधकारमय हो गया है। इस प्रकार बीच सत्र में छात्रवृत्तियों को समाप्त करने का निर्णय गैर कानूनी है। इन वर्गों के छात्रों को जो अपनी कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण पूरी फीस देने में असमर्थ रहते हैं, उनके लिए शुल्क माफ़ी के प्रावधान को बनाए रखा जाए। इस सम्बन्ध में संस्थान के प्रबंधन का भी कहना है कि सरकार द्वारा अनुदान में भारी कटौती करने के कारण उन्हें यह कदम उठाना पड़ा। इस सत्र में संस्थान को २६ करोड़ का घाटा उठाना पड़ा है। इन कारणों से पच्चीस शिक्षकों को भी अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है।

गौर तलब है कि टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेंज सामाजिक विषयों, विशेष रूप से दलित पिछड़े जनजाति तथा अल्पसंख्यकों की सामाजिक आर्थिक स्थितियों पर शोध करने का एक बेहतरीन संस्थान है तथा इन वर्गों के छात्रों ने अपने समाजों पर इन विषयों पर महत्वपूर्ण शोध प्रस्तुत की है। अनेक महत्वपूर्ण शोध वर्तमान शासक वर्गों के आँखों को खटकने लगी थी। हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित बेमुला की संस्थागत हत्या के विरोध में तथा जेएनयू के आंदोलनों में भी इस संस्थान के छात्रों की भारी पैमाने पर शिरकत थी। इन सभी कारणों से यह संस्थान लम्बे समय से सरकार के निशाने पर था। लेकिन अपवाद को छोड़ अधिकांश मीडिया को इससे कोई सरोकार नहीं था।
वास्तव में यह फैसला पूरी तरह से दलित, पिछड़े तथा जनजातीय समाज के छात्रों को बाहर का रास्ता दिखाने तथा संस्थान को पूरी तरह से समाप्त करने के षड्यंत्र का पहला कदम है। सभी जागरूक जन पक्षधर लोगों को इस सरकारी फैसले का व्यापक विरोध करना चाहिए।
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