दूसरे राज्यों में एससी-एसटी एक्ट पर सवाल बरकरार
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अब कह दिया है कि एससी और एसटी वर्ग के लोगों को केवल उनके गृह राज्य के अधीन सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ दिया जा सकता है। दूसरे प्रदेशों में जाने पर वे आरक्षण के हकदार नहीं होंगे। जबकि केंद्र सरकार की नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण का अधिकार बना रहेगा। साथ ही पीठ ने कहा है कि केंद्र द्वारा शासित राज्यों में जहां भर्तियों के लिए अखिल भारतीय स्तर पर प्रतियोगिता परीक्षा ली जाती है, आरक्षण का अधिकार बना रहेगा। पीठ का कहना है कि यह संविधान सम्मत है। पीठ के मुताबिक पैन इंडिया रिजर्वेशन रूल (सर्व भारत आरक्षण नियम-पीआईआरआर) संविधान के अनुरूप है जो केंद्र/राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के तहत आते हैं।
संविधान पीठ का यह आदेश इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि दूसरे राज्यों में शिक्षा या रोजगार के लिए जाने वाले एससी/एसटी के लोगों पर अत्याचार भी होते हैं और उनके साथ भेदभाव भी होता है। लेकिन उनके प्रवास स्थान पर एससी/एसटी संबंधी कोई क़ानून उनकी मदद नहीं कर पाता है जिसकी वजह से अपने राज्य के बाहर अत्याचार और शोषण का मुकाबला करने में वे असमर्थ हो रहे हैं। उन्हें कोई क़ानूनी संरक्षण नहीं मिल पाता है।
बहरहाल संविधान पीठ का उपरोक्त फैसला भारत सरकार के उस सर्कुलर के अनुरूप है जिसमें उसने स्पष्ट किया था कि एससी/एसटी को अपने राज्य में आरक्षण मिलेगा पर जब वे राज्य के बाहर जाते हैं तो आरक्षण का उनका दावा समाप्त हो जाएगा।
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बीते 30 अगस्त 2018 को पीठ बीर सिंह बनाम दिल्ली जल बोर्ड एवं अन्य (सिविल अपील नंबर 1085, वर्ष 2013) मामले की सुनवाई कर रही है। इसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति रंजन गोगोई कर रहे हैं तथा इसमें न्यायमूर्ति एनवी रमना, न्यायमूर्ति मोहन एम शंतनागौदर, न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर और न्यायमूर्ति आर बनुमती शामिल हैं।

सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति आर. बनुमती ने यद्यपि बहुमत से सहमति जताई कि एक राज्य में अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति को दूसरे राज्य में जहां वह शिक्षा या रोजगार के लिए जाता है, उसे अनुसूचित जाति का नहीं माना जा सकता। परंतु इस मामले में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को अपवाद बनाए जाने पर वे सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि केंद्रीय सेवाओं और केंद्र शासित प्रदेश की सेवाओं के बीच अंतर होना चाहिए जिसके लिए कर्मचारी चयन बोर्ड उम्मीदवारों का चुनाव करता है। न्यायमूर्ति बनुमती का कहना था कि सिर्फ केंद्रीय सेवाओं में ही अखिल भारतीय स्तर पर आरक्षण होना चाहिए और ग्रुप बी, सी और डी में यह नहीं होना चाहिए।
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पीठ ने अपनी टिप्पणी में कहा, “जहां तक केंद्रीय सेवाओं की बात है, वो प्रतिष्ठान जहां भी स्थित हों राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में या किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में, सभी पदों के लिए भर्ती अखिल भारतीय स्तर पर होता है और जो आरक्षण दिया जाता है वह भी पूरे भारत के लिए होता है।”
साथ ही पीठ ने यह भी कहा, “ये स्पष्टतया सामान्य केंद्रीय सेवाएं हैं और शायद, इसी स्थिति की वजह से संघ सरकार ने अपने हलफनामे में कहा है कि दिल्ली प्रशासनिक अधीनस्थ सेवाओं के सदस्य सेंट्रल सिविल सर्विसेज ग्रुप बी (दानिक्स) के लिए फीडर कैडर हैं। इन्हीं कारणों से अखिल भारतीय अर्हता की नीति लगातार अपनाई जाती है”।
पीठ ने कहा कि अगर किसी राज्य को यह लगता है कि किसी वर्ग/श्रेणी के अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को आरक्षण दिया जाना जरूरी है और वह राज्य विशेष की सूची में अभी नहीं है तो संवैधानिक अनुशासन यह कहता है कि राज्य इस बारे में केंद्रीय अथॉरिटी पर दबाव बनाए ताकि उस राज्य विशेष की सूची में उचित संसदीय प्रक्रिया द्वारा संशोधन कर उस समूह को इसमें शामिल किया जा सके। वहीं संविधान के अनुच्छेद 16(4) के सन्दर्भ में राज्य का एकपक्षीय कार्रवाई संवैधानिक अराजकता को जन्म दे सकता है और इसलिए संविधान के तहत इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए, ऐसा माना गया है।”

अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने कल्याण मंत्रालय के पूर्व सचिव और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति व ओबीसी के लिए अधिकारों के लिए काम करने वाले पी.एस. कृष्णन को उद्धृत करते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 341 और 342 के प्रावधानों को सही ठहराया है जो किसी राज्य या केंद्रशासित प्रदेशों के बरक्स एससी/एसटी को परिभाषित करता है। अगर कोई व्यक्ति किसी राज्य में अस्पृश्य की श्रेणी में आता है तो हो सकता है कि दूसरे राज्य में वह उस श्रेणी में न आए। उदाहरण के लिए धोबी उत्तर भारत में अस्पृश्य की श्रेणी में आते हैं जबकि दक्षिण भारत में वे इस श्रेणी में नहीं आते।
पर दलितों पर अत्याचार के मामले में सुप्रीम कोर्ट में उनकी पैरवी करने वाले अधिवक्ता राहुल सिंह का कहना है कि इस मुद्दे को इस नजरिये से भी देखना चाहिए कि कहीं यह प्रवासी मजदूरों को ज्यादा असहाय तो नहीं बना देता है। उनका कहना था कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम भी प्रवासी एससी/एसटी पर लागू नहीं होता और इसलिए इस मुद्दे पर दुबारा नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
(आलेख परिवर्द्धित : 31 अगस्त 2018, 6:56 बजे सायं)
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