छत्तीसगढ़ के सुदूर दंतेवाड़ा जिले में आदिवासी पुलिस के जुल्म से पीड़ित तो हैं ही, माओवादियों द्वारा उत्पीड़न के भी शिकार हो रहे हैं। बीते 5 सितंबर 2018 को दंतेवाड़ा के फुलपाड़ गांव में माओवादियों ने गांव वालों की पिटाई की। इस मामले की जांच एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम ने बीते 17 सितंबर 2018 को की। टीम में प्राख्यात समाज सेविका सोनी सोरी, बेला भाटिया, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और सामाजिक कार्यकर्ता लिंगाराम कोडोपी शामिल थे।
टीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पीड़ित ग्रामीणों में सभी साधारण किसान परिवार के थे। उनके बयान के अनुसार 5 सितम्बर की रात तीन बजे के करीब कई माओवादी (जिनमें से एक दो को छोड़कर अधिकतर सादे ड्रेस में थे) फुलपाड के कोयलानपारा और मारकापारा पहुंचे। उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को उठाया और कहा कि सब को जमा होना है। गांव के सभी महिला परुष और बच्चे इकट्ठे हुए। उसी बीच कुछ पुरुषों को अलग ले जाया गया। उनमें से कुछ के हाथों को पीठ के पीछे बांध दिया गया था। उनकी कच्चे बांस के डंडे से पिटाई की गई। इस क्रम में जब एक युवक की मां ने उनसे कहा कि “मेरे बेटे को जो कुछ भी करना है जनता के सामने करो” तो उसकी व उसके पति की भी पिटाई की गई। माओवादियों ने कुल 9 लोगों को मारा-पीटा, जिनमें से 8 कोयलानपारा के थे।

जांच टीम को कुछ पीड़ितों ने पिटाई के निशान दिखाये, जो दस दिनों के बाद भी उनकी पीठ और टांगों पर साफ़ दिख रहे थे। एक पुरुष जिनकी सब से ज्यादा पिटाई की गई थी, वह दंतेवाड़ा हॉस्पिटल में भर्ती हैं। जांच टीम उनसे मिलने अस्पताल पहुंची। उन्होंने बताया कि “मुझे ज़मीन पर लिटाया गया, एक भारी व्यक्ति मेरे पीठ पर बैठ गया। फिर लकड़ी से पैरों के तलवों पर प्रहार किया गया।” पीटने के बाद माओवादियों ने उन्हें हॉस्पिटल जाने से मना किया था। लेकिन घटना के बाद पुलिस को जब जानकारी मिली तब वह गांव में आई थी और घायल लोगों को ढूंढ रही थी। बाकी लोग पुलिस के पहुंचने के पहले भाग ही गये थे। लेकिन यह आदमी गंभीर रूप से जख्मी होने के कारण नहीं भाग पाया था। अब उसको डर लग रहा है की माओवादी लोग उसको पुन: मारेंगे।
माओवादियों ने आदिवासियों को क्यों मारा?
मारने के कारण को समझना आसान नहीं है, लेकिन लोगों के बयान से यह लग रहा है कि माओवादी उनसे इसलिए नाराज़ थे क्योंकि गांव वाले सरकार से संपर्क करने लगे थे। उदाहरण के लिए कुछ लोगों ने प्रधानमंत्री आवास योजना के पैसे से घर बनाया है। कुछ लोग गांव का संपर्क मार्ग बनवाने में शामिल हैं। कुछ लोग क्रिकेट सम्बंधित गतिविधियों में शामिल हुए हैं, जो किसी स्थानीय सरकारी कर्मचारी ने आयोजित की थी। यह कर्मचारी भाजपा का नेता भी है। शायद माओवादियों की एक शिकायत यह भी थी कि सीआरपीएफ जवान कभी-कभी गांव आते हैं। इससे उनका शक बढ़ रहा है कि गांव वाले किनके साथ हैं? – हमारे साथ या सरकार के साथ? इस घटना से गांव वाले कफी चिंतित हैं, क्योंकि माओवादियों ने उन्हें गांव छोड़ कर शहर में रहने को कहा है। साथ ही फसल काटने से भी मना किया है। गांव वालों ने जांच टीम को बताया कि उन्होंने उसी दिन जवाब दे दिया था कि ”हम लोग गांव नहीं छोड़ेंगे।”

फैक्ट-फाइंडिंग जांच टीम के सदस्यों ने बताया है कि ”यह घटना साधारण लोगों पर उत्पीड़न और अत्याचार का मामला है। दुख की बात है कि बस्तर में इस तरह का घटना अनोखी नहीं है। इस तरह के पीड़ित लोगों की सब से बड़ी दिक्कत यह है कि वे कहां जायें और किनके सामने शिकायत करें? उनको संवेदनशीलता से मदद करने के बदले सरकार ने कई बार इस तरह की स्थिति का फ़ायदा उठाने की कोशिश की हैं जिसके कारण लोगों के खतरा बढ़ जाता है। हमारी आशा है कि सरकार इस बार ऐसा नहीं करेगी और माओवादियों से हमारी मांग है कि वे इस तरह की घटना को नहीं दोहराएंगे और फुलपाड के लोगों को अपनी इच्छा अनसुार जीने की आज़ादी देंगे”।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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