आदिवासी भाइयों और बहनों,
मैं इस खुला पत्र के माध्यम से आप लोगों को बताना चाहता हूं कि आदिवासी युवाओं को राजनीति में आना कितना आवश्यक है। यहां आदिवासी युवाओं का तात्पर्य उन आदिवासी लोगों से है जिनमें अपने समाज के आत्मसम्मान, अस्मिता, पहचान और संवैधानिक अधिकारों के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून हो, चाहे वह शख्स 20 वर्ष की उम्र का हो या 80 वर्ष की उम्र का।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां के लोकतांत्रिक प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है– विधानसभा और लोकसभा चुनाव। इन्हीं चुनावों के माध्यम से तय होता है कि सत्ता किसके हाथों में होगी।लोकतांत्रिक प्रणाली की सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती है कि किसी राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा, बल्कि देश की आम जनता अपने कीमती वोट से समाज के गरीब वर्ग के बेटे को भी चुनकर राजा बनने का मौका देती है।हम इस लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास करते हैं, इसके बावजूद इसमें कुछ छेद हैं, जिसके कारण कमजोर वर्गों का विकास नहीं हुआ और सत्ता पर धनबल, बाहुबल और परिवारवाद का वर्चस्व हो गया।
यह सब इसलिए हुआ क्याेंकि ईमानदार और युवा नेतृत्व ने राजनीति को गलत निगाह से देखा एवं इससे दूरी बना ली। यदि ईमानदार और युवा नेतृत्व राजनीति को गंदे निगाह से देखेगा एवं इससे दूरी बनाएगा तो निश्चित ही इस लोकतंत्र के सत्ता पर धनबल, बाहुबल और परिवारवाद का वर्चस्व होगा। मैं देश के सभी वंचित एवं ईमानदार लोगों से अपील करुंगा कि उन्हें राजनीति में आना चाहिए तभी हम सब मिलकर इस राजनीति एवं लोकतंत्र को स्वच्छ और बेहतर बना सकेंगे और तभी हम एक बेहतर लोकतांत्रिक देश की कल्पना कर सकेंगे।
मैं आदिवासियों की बात करता हू, आदिवासियों का नेतृत्व करता हूं, जिसके लिए मैंने छह साल पहले ‘जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस)’ के नाम से एक सामाजिक संगठन बनाया। जयस 15 राज्यों में मजबूती से सक्रिय है, जिसके कुल 15 लाख से अधिक कार्यकर्ता पूरे देशभर में हैं। मैं मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ के क्षेत्र से हूं और मेरा मुख्य फोकस भी अभी मध्यप्रदेश पर ही है। आखिर हमें ऐसा क्यों लगा कि हम आदिवासी युवाओं को राजनीति में आना चाहिए और आदिवासी नेतृत्व तैयार करना चाहिए? तो इसके अनेक कारण हैं। सामाजिक एवं मानवशास्त्रीय अध्ययनों में सिद्ध हुआ है कि मध्यप्रदेश ईसा काल के पहले से आदिवासियों की आश्रय स्थली रहा है। इतनी पुरानी आबादी होने के बाद भी यह समूह प्रदेश के विकास के साथ कदमताल नहीं कर पाया है। मध्यप्रदेश में भौगोलिक विभिन्नता की तरह ही आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्थाएं भी अलग-अलग हैं। एक सामान्य मुद्दे की बात करूं तो मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों में दूर-दूर तक कोई मेडिकल कॉलेज नहीं है, जब कोई भी बीमार पड़ता है तो 250-300 किलोमीटर दूर इंदौर या भोपाल जाना पड़ता है। लेकिन भाजपा और कांग्रेस के आदिवासी नेताओं कभी इन मुद्दों को नहीं उठाए।
यह भी पढ़ें : ‘इस बार हम मध्यप्रेदश में आदिवासी सरकार बनाने जा रहे हैं’
हमारे देश में विकास की आखिरी पंक्ति में खड़े आदिवासी समाज में 70 सालों के इतिहास में जो राजनीतिक ढांचा रहा है, उसमें हमेशा से ही परिवारवाद और वंशवाद की राजनीति प्रभावी रही है। वर्षों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक-दो परिवारों का ही राजनीति में वर्चस्व रहा है, जिसके कारण आदिवासी समाज के शिक्षित और ईमानदार युवाओं को कभी भी राजनीति में आने का मौका नही मिला। मध्यप्रदेश में जब आदिवासी राजनेता की बात होती है तो कांग्रेस-भाजपा के कुछ लोगों के नाम सामने आते हैं। इन लोगों ने भी परिवारवाद और वंशवाद को ही बढ़ावा दिया और सिर्फ भाजपा-कांग्रेस के बन के रह गये, कभी आदिवासियों के नहीं हो सके। जयस ने पिछले कुछ वर्षों के भीतर जिस प्रकार सामाजिक जनजागरूकता के साथ-साथ युवाओं में राजनीतिक जागरूकता पैदा की है, उससे आदिवासी सामाज की राजनीति पर वर्षों से अपना प्रभुत्व जमाकर बैठे विभिन्न पार्टियों आदिवासी नेताओं के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है, जो अभी तक राजनीति को अपनी जागीर समझते थे।

जयस ने भारत के 15 राज्यों में अपने मजबूत नेटवर्क के कारण ही भारत की आदिवासी राजनीति में एक नई सोच को जन्म दिया है। जयस बिना धन-बल के भी समाज के गरीब-ईमानदार युवाओं को विधानसभा और लोकसभा में भेजने के लिए राजनीति की नई परिभाषा गढ़ने का प्रयास कर रहा है। जयस के कार्यों के बदौलत ही आज देश और प्रदेश के राजनीतिक हलकों में एक हलचल पैदा हो रही है, जिसके कारण सत्ता के मद में चूर पार्टियों के नेताओं को खतरा महसूस होने लगा हैं। जब आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारो की धज्जियां उड़ाकर उनके जल, जंगल और जमीन को कारपोरेट के हवाले किया जा रहा था, तो ये नेता चुप्प रहे। मैं देश के समस्त आदिवासी युवाओं से जयस के माध्यम से अपील करता हूं कि अगर वास्तव में आदिवासियों को जल, जंगल और ज़मीन पर उनका अधिकार दिलाना है, संविधान की पांचवी अनुसूची, पेसा कानून, वनाधिकार कानून को धरातल पर लागू कराना है तो हमे देश की राजनीति में जगह बनानी पड़ेगी। उसके लिए युवाओं को राजनीति के मैदान में उतरना पड़ेगा।
आज देश में आदिवासियों के नाम पर, संस्कृति-सभ्यता के नाम पर हजारों संगठन आदिवासी या गैर-आदिवासी लोगों द्वारा संचालित हो रहे हैं, इसके बावजूद भी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, तेलंगाना, राजस्थान जैसे आदिवासी बाहुल्य राज्यों में हर रोज आदिवासियों को अपने ही जंगलो से अपनी ही ज़मीन से जबरन खदेड़ा जा रहा है। जो आदिवासी युवा जबरन विस्थापन का विरोध करते हैं, उन्हें नक्सलवादी-माओवादी-उग्रवादी या फिर अलगाववादी के नाम पर मार दिया जा रहा है या फिर जेलों में कैद किया जा रहा है। बस्तर के जंगलो में रहने वाली आदिवासी लड़कियों के साथ बलात्कार जैसा घिनौना कृत्य हो रहा है। जयस के आदिवासियों में उम्मीद की नई किरण पैदा करना चाहता है उनके भीतर यह विश्वास पैदा करना चाहता है कि अगर अब किसी ने आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर जबरन कब्जा करने की कोशिश की तो जयस उनके साथ खड़ा रहेगा, उनकी लड़ाई लड़ेगा।
आज देश में आदिवासी हितैषी होने का दंभ भरने वाले कुछ सामाजिक संगठन हमें राजनीति से दूर रहने की सलाह दे रहे हैं और समय-समय पर उनके द्वारा आम चुनावों के बहिष्कार की घोषणाएं भी होती रहती हैं, लेकिन उन सभी से हमारा सवाल है– बिना किसी राजनीतिक ताकत के समाज के संवैधानिक अधिकारो को धरातल पर उतारा जा सकता है क्या?

यदि बार-बार रैलियां, धरना-प्रदर्शन और नाचने-गाने के सांस्कृतिक कार्यक्रम से पांचवी अनुसूची, छठवीं अनुसूची, पेसा कानून, वनाधिकार कानून के सभी प्रावधानों को धरातल पर लागू किया जा सकता तो पिछले 70 सालों से हम यहीं कर रहे हैं। आजादी के 70 साल बाद भी आदिवासी इलाकों में भूखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, पलायन, खराब सड़कें, बदतर स्वास्थ्य सेवाएं जैसी बदतर हालत बनी हुई है। वास्तव में इन सभी हालातों के लिए समाज का राजनीतिक ढांचा पूरी तरह जिम्मेदार है, जिसमें आज भी आदिवासी के नाम पर ऐसे विधायक और सांसद देश की विधानसभा और लोकसभा में पहुंच जाते है, जिनका आदिवासी मुद्दों से गहरा सरोकार नहीं होता है।
जयस के माध्यम से हमने पिछले 5 सालों से युवाओं को अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में प्रशिक्षित किया है और उन सभी प्रशिक्षित युवाओं को ही जयस के समर्थन में विधानसभा और लोकसभा में भेजने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। यही कारण है कि मध्यप्रदेश की राजनीति में एक हलचल की स्थिति पैदा हो गई है।
हम आदिवासी युवाओं को आदिवासियों के संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए आगे आना ही होगा।
आपका शुभचिंतक
डॉ. हीरालाल अलावा
(कॉपी-संपादन : राजन/सिद्धार्थ)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। हमारी किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति, सामाज व राजनीति की व्यापक समस्याओं के सूक्ष्म पहलुओं को गहराई से उजागर करती हैं। पुस्तक-सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें