एक लोकोक्ति है ‘जाके पांव फाटे बेवाई उ का जाने पीर पराई’। शायद यही वजह रही कि परशुराम राम ने जब जवानी की दहलीज पर कदम रखा और उनपर पारिवारिक जिम्मेवारी का बोझ बढ़ने लगा तब वे रोटी की जुगाड़ में मजदूरी करने गए और दलित, आदिवासी मजदूर के बच्चों को भी अपने मां-बाप के साथ काम करते देखा, तो उनके मन में एक टीस के साथ सवाल उभरा कि ‘क्या ये बच्चे भी मजदूर ही बनेंगे?’
यह सवाल बराबर उनका पीछा करता रहा और वे अंदर ही अंदर इस सवाल से उत्पन्न समस्या का समाधान ढूंढते रहे। अंतत: एक दिन समाधान मिला, मिला नहीं बल्कि सुझा। उन्होंने उन नौजवानों से जो अपनी पढ़ाई के साथ-साथ ट्यूशन वगैरह पढ़ाकर अपनी जीविका भी चलाते थे, को अपने भीतर की टीस के साथ उभरे सवाल से परिचय कराया। तब शुरू हुआ मजदूरों के बच्चों को शिक्षित करने का परशुराम का मिशन। वे शिक्षित नौजवान मजदूर के बच्चों को पढ़ाने को तैयार हो गए। बदले में परशुराम ने उन्हें अपनी मजदूरी से मिले पैसा भी देते रहे।
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परशुराम राम का जन्म 1952 में बिहार के सिवान जिला अंतर्गत आंदर थाना का घटइला गांव के एक दलित परिवार मुखदेव राम घर में हुआ है। जाति के चमार परिवार में जन्मे परशुराम को स्कूली शिक्षा नसीब नहीं हो पायी। खेलते-कूदते कब जवान हो गए पता ही नहीं चला। मगर जब पारिवारिक स्तर से यह एहसास कराया गया कि उन्हें कमाना होगा, तब वे 1972 में रोजी-रोटी की तलाश में बोकारो आए तो यहीं के होकर रह गए। उस वक्त बोकारो इस्पात संयंत्र अपनी शैशवावस्था में था, कारखाना का निर्माण कार्य प्रारंभिक दौर में था। रोजगार के लिए देश के कई भागों से लोग यहां आने लगे थे।
अस्सी का दशक आते-आते वे राजमिस्त्री का काम करने लगे थे। वर्ष 1985 में बड़े भाई की मौत के बाद भाभी को जीवनसंगिनी बना लिया।
नब्बे के बाद उन्हें लगा कि उनके प्रयास से मजदूरों के बच्चे केवल साक्षर भर हो रहे हैं। उन्हें जब स्कूल की पढ़ाई और वैसी पढ़ाई का फर्क समझ में आया, तब उन्होंने 1997 में बोकारो के सेक्टर 12-ए स्थित हवाई अड्डा की बाउंड्री के बगल में एक झोपड़ी बनाकर विधिवत रूप से ”बिरसा मुण्डा नि:शुल्क विद्यालय” की शुरूआत की। मात्र 15 बच्चों से शुरू हुआ इस विद्यालय में आज लगभग 164 बच्चे हैं। जबकि इस विद्यालय से मात्र 3-4 सौ मीटर की दूरी पर सरकारी विद्यालय है, जहां मध्याह्न भोजन की व्यवस्था है।
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परशुराम के इस मिशन में उनकी पत्नी पाना देवी का बड़ा सहयोग रहा है। वे धाई (प्रसव कराना) का काम करके परिवार का भरण-पोषण करतीं रहीं और परशुराम अपनी मजदूरी के पैसों को इन मजदूर के बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करते रहे। परशुराम के चार बच्चे हैं दो लड़का और दो लड़की। एक लड़की की शादी हो गई है, जबकि बाकी तीन बच्चे अपनी पढ़ाई के साथ-साथ बिरसा विद्यालय में भी पढ़ाते हैं और बाहर के बच्चों को ट्यूशन वगैरह पढ़ाकर अपना खर्च वहन करते हैं।
परशुराम राम ने इन दलित, आदिवासी मजदूरों के बच्चों की निर्बाध पढ़ाई लिये समाज के लोगों से सहयोग मांगना शरू किया। कुछ लोग कतराए तो कुछ ने दिल खोल कर परशुराम की मदद की। ऐसे लोगों ने स्कूल के बच्चों के लिए ड्रेस, कापी-किताब, बैंच-डेस्क, कुर्सी आदि की व्यवस्था की। कुछ ने बच्चों के लिए खिचड़ी की भी व्यवस्था की। परशुराम राम के समर्पण को देखकर 2003 में भारतीय स्टेट बैंक की बोकारो सेक्टर-4 शाखा ने बच्चों की पढ़ाई के लिए सारी सुविधा उपलब्ध कराई। बैंक ने आठ लड़कियों को गोद लेकर उनके ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई का जिम्मा लिया था। वहीं 1997-98 में बोकारो के रितुडीह स्थित मामा होटल के संचालक रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ने बच्चों के लिए स्कूल ड्रेस एवं उनके लिए सप्ताह में एक दिन खिचड़ी की व्यवस्था दी थी।
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स्कूल चलाने के लिए कुछ लोगों की सलाह पर परशुराम राम ने 2006 में जन कल्याण सामाजिक संस्था का पंजीयन कराया। आजतक उनकी इस संस्था को किसी भी तरह का सरकारी अनुदान नहीं मिला है। इस बाबत परशुराम बताते हैं कि ”एक बार कुछ सुधि लोगों के कहने से मैं बोकारो के डीसी से मुलकात कर विद्यालय में सहयोग करने की मांग की थी, उन्होंने अनुशंसा भी कर दी थी, मगर आफिस में फाइल को आगे बढ़ाने के लिये पैसों की मांग की गई। मैंने इंकार कर दिया और उसके बाद कभी भी प्रयास नहीं किया, क्योंकि मुझे एहसास हो गया कि इस भ्रष्ट सिस्टम में बिना समझौता किए कुछ नहीं हो सकता है। अत: मैंने समाज के लोगों पर ही भरोसा किया है और मेरा भरोसा आज भी बरकरार है।’
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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