चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण की रिहाई के राजनीतिक-सामाजिक मायने
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जेल से भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण को 14 सितंबर 2018 की सुबह 2.45 बजे रात के अंधेरे में रिहा कर दिया किया गया। उन्हें करीब 16 महीने जेल में काटने पड़े। इलाहाबाद उच्च न्यायालय से उन्हें 10 महीना पहले ही सभी मामलों में जमानत मिल गई थी और उन्हें रिहा करने का निर्णय आदेश भी जारी हो गया था, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके ऊपर रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) लगाकर उन्हें 10 महीने और जेल में रखा और अचानक 13 सितंबर 2018 को रिहा करने का निर्णय लिया।
बताते चलें कि 5 मई 2017 को महाराणा प्रताप की जयंती की आड़ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के शब्बीरपुर गांव में ठाकुरों द्वारा दलितों के घरों में आग लगा दी गयी थी। जब इसका विरोध चंद्रशेखर रावण ने किया तब उन्हें ही जातिगत हिंसा का आरोपी बनाते हुए मुकदमे दर्ज किये गये। बाद में 8 जून 2017 को उन्हें हिमाचल प्रदेश के डलहौजी से गिरफ्तार किया गया था।
रिहाई के बाद उठ रहे सवाल
चंद्रशेखर की रिहाई के बाद कई प्रश्न लोगों के जेहन में कौंध रहे हैं। पहला प्रश्न यह है कि आखिर अचानक उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें रिहा करने का निर्णय क्यों लिया और इतने दिनों तक जेल में क्यों रखे रही? दूसरा प्रश्न यह है कि भाजपा को उनकी रिहाई के क्या फायदा और नुकसान होने वाला है? इन दोनों प्रश्नों से इतर सबसे बड़ा प्रश्न लोगों की जेहन में यह उठ रहा है कि भीम आर्मी और बसपा के रिश्ते क्या होंगे और सबसे बड़ा प्रश्न यह कि क्या भीम आर्मी दलित-बहुजन युवाओं के उस असंतोष-आक्रोश को अभिव्यक्ति दे पायेगी, जिसकी सबसे व्यापक और मुखर अभिव्यक्ति 2 अप्रैल 2018 के भारत बंद के दौरान हुई थी? जिसकी एक स्थानीय स्तर पर अभिव्यक्ति स्वयं भीम आर्मी थी और जो बाद में युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी। बहुजन युवाओं के असंतोष-आक्रोश के पीछे की आकांक्षाओं को कोई दिशा दे पायेगी?

सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था रावण की रिहाई का मामला
पहला तात्कालिक और ज्वलंत प्रश्न यह है कि आखिर उत्तर प्रदेश सरकार ने चंद्रशेखर रावण को रिहा करने का निर्णय क्यों लिया? और इस रिहाई से वह क्या कुछ साधना चाहती है? रिहाई का पहला और सबसे ठोस कारण यह था कि 14 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पीठ के सामने चंद्रशेखर रावण के मामले की सुनवाई होनी थी। इस पीठ के दो अन्य सदस्य न्यायाधीश ए.एम.खानविलकर और न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़ थे। उत्तर सरकार को इस पीठ को कुछ सवालों का जवाब देना था। पहला सवाल यह था कि चंद्रशेखर रावण को रासुका के तहत जेल मे बंद रखना जरूरी क्यों था ? क्या यह कानून सम्मत था? तीन बार रासुका की अवधि क्यों बढ़ाई गई? इसका अाधार क्या था? और अभी उनको रासुका के तहत बंद रखना क्यों जरूरी है? इस प्रश्नों में यह बात निहित थी कि उत्तर प्रदेश सरकार को इस बात का भी जवाब देना था कि आखिर चंद्रशेखर रावण का जेल से बाहर रहना कैसे और क्यों कानून व्यवस्था के लिए खतरा है? या उनके बाहर रहने से कैसे सामाजिक अशान्ति पैदा हो सकती है या कैसे वे देश के लिए खतरा हैे? हम सभी को पता है कि इन्हीं तीन आधारों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून ( रासुका ) लगाया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय में यह याचिका भीम आर्मी की ओर से दाखिल की गई थी। इसकी पैरवी सर्वोच्च न्यायालय के एडवोकेट काॅलिन गोन्साल्विज कर रहे थे। कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तर प्रदेश सरकार के पास इन सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं था, क्योंकि रासुका का कानूनी आधार बहुत कमजोर था और रासुका लगाने से पहले सभी मामलों में चंद्रशेखर रावण को जमानत मिल चुकी थी।

ऐसे में इस बात की पूरी संभावना थी कि सर्वोच्च न्यायालय चंद्रशेखर रावण पर रासुका को अवैध ठहरा देता या उत्तर प्रदेश सरकार से कड़े सवाल करता। इस बात की संभावना शहरी नक्सली कहकर भीमा-कोरगांव के मामले में गिरफ्तार किए गए पांच बुद्धिजीवी कार्यकर्ताओं के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के रूख से भी बलवती हुई थी। सर्वोच्च न्यायालय चंद्रशेखर रावण को रिहा कर दे या ऐसी परिस्थिति पैदा कर दे जिसमें रिहा करना मजबूरी बन जाए, इस स्थिति से बचने के लिए सरकार ने आनन-फानन में रिहा करने का निर्णय लिया। रिहा करने का निर्णय लेकर वह अपने अन्य हितों की भी पूर्ति की संभावना तलाशना रही है। पहला यह कि रिहाई का श्रेय वह खुद लेना चाहती है। दलित विरोधी छवि तोड़ने के लिए भाजपा ने सवर्णों की नाराजगी की कीमत पर कई कदम उठाए हैं,जैसे एससी-एसटी एक्ट पारित करना और पदोन्नति में एससी-एसटी के लिए आरक्षण के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय में दलील प्रस्तुत करना। चंद्रशेखर को रिहा करने के निर्णय को वह भुनाने की कोशिश करेगी। यहां यह याद रखना जरूरी है कि 2014 के आम चुनावों में अनुसूचित जातियों का सबसे अधिक वोट ( 24 प्रतिशत) भाजपा को मिला था। इसके इतर इस माध्यम से भाजपा ने एक राजनीतिक दांव भी खेला है। भले ही चंद्रशेखर ने जेल से निकलते ही भाजपा को हराने का संकल्प लिया हो और चलते-चलते ही सही बसपा प्रमुख मायावती जी को बुआ कहा हो, लेकिन हम सभी जानते हैं कि भीम आर्मी उत्तर प्रदेश में वैकल्पिक दलित राजनीतिक शक्ति के रूप में भी शुरू से देखी जा रही है। जो भाजपा के लिए कम बसपा के लिए ज्यादा बड़ी चुनौती है। अकारण नहीं है कि बसपा प्रमुख का रूख शुरू से ही भीम आर्मी को लेकर आक्रामक रहा है। उन्होंने भीम आर्मी को भाजपा की ‘बी’ टीम कहा और बसपा के बहुत सारे लोगों उन्हें आरएसएस का एजेंट तक कहा। भाजपा भीम आर्मी के रूप में एक शक्ति को सामने लाकर दलित वोटों में आज नहीं तो कल बंटवारे की उम्मीद की संभावना देख रही है। यह कितना और किस रूप में चरितार्थ होगा यह भविष्य के गर्भ में है। उसकी यह सोच या दांव फिलहाल उसके लिए उल्टा भी पड़ सकता है, लेकिन राजनीति तो दांव-पेंच और संभावनाओं का ही खेल है।
कांशीराम के रास्ते पर चलने का संकल्प
चंद्रशेखर रावण एवं भीम आर्मी भाजपा से अधिक मायावती के लिए चिंता के विषय हैं। वह भीम आर्मी संबंधी अपने बयानों में बार-बार इसका संकेत भी दे चुकी हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने उनकी रिहाई को लिए कोई पहल भी नहीं ली। मीडिया भले ही भाजपा को हराने संबंधी चंद्रशेखर रावण के बयान को हाइलाईट कर रहा हो,लेकिन ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार में प्रकाशित अपने साक्षात्कार (15 सितंबर 2018) में उन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि बसपा बहुजन की राजनीति छोड़कर सर्वजन की राजनीति कर रही है, जबकि हमें बहुजनों के लिए कार्य करना है। इस साक्षात्कार में यह भी कहा कि उन्हें मान्यवर कांशीराम द्वारा बहुजनों के लिए किए गए संघर्ष को नए सिरे से आगे बढ़ाना है। इसका निहितार्थ यह कि बसपा कांशीराम सर्वजन के नाम पर कांशीराम के बहुजन के रास्ते को छोड़ चुकी है। इशारों-इशारों में उन्होंने बसपा के भ्रष्टाचारी चरित्र की ओर भी इशारा किया। जब उनसे पूछा गया कि
आप राजनीति में शामिल हो गए होंगे या नहीं, तो उन्होंने कहा कि राजनीति व्यक्ति को भ्रष्टाचारी बना देती है। चंद्रशेखर रावण के इस साक्षात्कार में यह भी स्पष्ट तौर पर परिलक्षित होता है कि उन्हें इस बात का गहरा अहसास है कि दलित-बहुजन समाज जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यापक बदलाव चाहता है, जबकि दलित-बहुजनों के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियां अपने को वोट हासिल करने और सत्ता पाने तक सीमित कर ली हैं।

शायद ही कोई इस तथ्य से इंकार कर सके कि उत्तर प्रदेश में बसपा भले ही दलितों के लिए अभी भी एकमात्र राजनीतिक विकल्प हो, लेकिन वह इस समुदाय की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आकांक्षाओं का प्रतीक नहीं रह गई है। इसका सबसे प्रमाण 2 अप्रैल 2018 के भारत बंद में मिला था, जब बिना बसपा के आह्वान और सहयोग के दलित-बहुजन बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतर आए थे। दलित-बहुजन समाज वोट की राजनीति के विकल्प के रूप में भले ही आज भी बसपा को देखता हो, लेकिन वह वैकल्पिक संगठन और नेतृत्व की तलाश कर रहा है, खास करके दलित-बहुजन युवा। दलित-बहुजन युवा भीम आर्मी और चंद्रशेखर में कुछ हद तक वह इसकी संभावना देखता है, यही बसपा के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि जो सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकल्प का प्रश्न उठायेगा,वह देर-सबेर राजनीतिक विकल्प भी बन जायेगा।
बसपा के लिए राहत की खबर
फिलहाल चंद्रशेखर रावण और भीम आर्मी सीधे बसपा को राजनीतिक चुनौती प्रस्तुत करने नहीं जा रहे हैं और अभी दलित-बहुजन समाज के लोेग भी ऐसा नहीं चाहते है, क्योंकि उनके एजेंडे में 2019 में भाजपा को हराना है और वह नहीं चाहते हैं कि भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव हो। दलित-बहुजनों की इस मंशा को चंद्रशेखर रावण भी भांप लिए हैं,, इसलिए वे बार-बार भाजपा को हराने का संकल्प व्यक्त कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वे सीधे राजनीति में अभी हिस्सेदारी नहीं करेंगे तथा भाजपा विरोधी राजनीतिक शक्तियों को मजबूत बनाएंगे। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी संकल्प व्यक्त किया है कि वे बसपा पर सामाजिक दबाव बनायेंगे कि वह भाजपा विरोधी शक्तियों के साथ महागठबंधन कायम करे और भाजपा को हराए। चंद्रशेखर रावण इसके लिए वे पूरे देश की यात्रा करेंगे।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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