शोध पत्रिकाओं के मामले में एक तो हिंदी में मानक ही तय नहीं है जैसे कि भारत में अंग्रेजी (भाषा के भीतर) में ईपीडब्ल्यू या विदेशों में विद्वानों की सख्त कमेटियों द्वारा छापी जाने वाली पत्रिकाएं रही हैं। ऊपर से बीच का जैसा रास्ता निकाला गया था उसमें हम ‘हंस’ या ‘आलोचना’ या ‘तद्भव’ या ‘फारवर्ड प्रेस’ जिससे काम चला रहे थे, उनको भी खत्म कर दिया गया? इससे उच्च शिक्षा का और हिंदी दोनों का नाश तय है।
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