आज पूरे विश्व में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर जोर है। फिर चाहे वह आॅटाेमोबाइल सेक्टर हो, स्वास्थ्य, शिक्षा या फिर कृषि; हर क्षेत्र में मनुष्यों को दरकिनार कर उन मशीनों से काम लिया जा रहा है, जो मनुष्यों की तरह सोचती हैं। परंतु कंप्यूटर व अन्य गजट्स बनाने वाली अग्रणी कंपनी एप्पल को आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से अधिक मनुष्यों की क्षमता पर विश्वास है। उसने खबरें चुनने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और अल्गाेरिदम का इस्तेमाल बंद कर दिया। वहां यह काम अब पत्रकार करते हैं।
बताते चलें कि एप्पल की खबरें तकरीबन नौ करोड़ लोग पढ़ते हैं। लेकिन जहां माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और फेसबुक पर खबरों के चयन के मामले में निष्पक्ष नहीं होने के आरोप लगते रहे हैं, एप्पल न्यूज पर अब तक किसी ने उंगली नहीं उठाई है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि एक-एक खबर तक 10 लाख से अधिक लोग पंहुचते हैं।

सवाल उठता है कि मशीन बनाने वाली और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के क्षेत्र शोध पर करोड़ों डॉलर खर्च करने वाली कंपनी को उस पर भरोसा क्यों नहीं है?
निष्पक्षता के लिए इंसान जरूरी
दरअसल, इस मामले में कंपनी ने जान-बूझकर यह जाेखिम उठाया है। कंपनी का मानना है कि खबरों की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए मनष्य पर भरोसा करना ही बेहतर है। हालांकि, आर्टिफिशियल और अल्गाेरिदम उन्हीं खबरों को उठाते हैं, जो सबसे ज्यादा पसंद की जाती हैं और ट्रेंड में रहती हैं। मशीन किसी तरह का भेद-भाव नहीं कर सकती। उसका अपना कोई दर्शन या पसंद-नापसंद नहीं होती। इसके उलट मनुष्य अपनी सोच पर निर्भर रहता है। लेकिन आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस सनसनीखेज वाली चटपटी खबरें चुन लेती हैं, क्योंकि वह ट्रेंड कर रहा होता है। मनुष्य ऐसा नहीं करता है। उसे पता है कि कौन-सी खबर सही और किस तरह की खबर किस वर्ग का पाठक पसंद करता है। इसलिए मनुष्य भले ही मशीन की तुलना में कम निष्पक्ष हो, पर निष्पक्षता बनाए रखने के लिए मनुष्य ही सही है।
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कर्न इस बात से भी सहमत नहीं हैं कि मशीन पूरी तरह निष्पक्ष होती है। उनका तर्क है कि कोई प्रकाशन कितना उदार या कट्टरपंथी है या उसकी क्या सोच है, यह उसके अल्गाेरिदम के कोड में आ ही जाता है। उसके बाद अल्गाेरिदम निष्पक्ष नहीं रह जाता है।
इसके अलावा मामला फेक न्यूज का भी है। अल्गाेरिदम और एआई इस तरह की झूठी और बेबुनियाद खबरों को पहचानने में बिलकुल नाकाम रहता है। उसे इसकी समझ नहीं है। वह यह नहीं पता लगा सकता कि यह खबर झूठी है या सच्ची। उसे बस ट्रेंड पर काम करना है। पर पत्रकार यह भांप जाएगा कि यह खबर गलत है। वह फिर उसकी तह में जाकर पता लगा लेगा। संदेह होने पर वह उस खबर को छोड़ देगा। मशीन ऐसा नहीं कर सकती।
बाहरी प्रकाशकों को भी जगह दे रही एप्पल
एप्पल न्यूज इस परियोजना पर महत्वाकांक्षी योजना बना रही है। कंपनी अपने ऐप पर प्रकाशकों को अपना विज्ञापन डालने देती है और उस राजस्व का 30 प्रतिशत ले लेती है। उसकी यह योजना भी है कि कुछ पत्रिकाओं को अपने ऐप पर जगह दे और पाठको से हर महीने एक निश्चित रकम बतौर शुल्क ले। ‘द टाइम्स’, ‘द पोस्ट’ और ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ जैसे दैनिक समाचार पत्रों ने भी इसमें दिलचस्पी दिखाई है।
लेकिन दूसरे कई प्रकाशक एप्पल से सशंकित भी हैं। उनका मानना है कि एप्पल पर पूरी तरह निर्भर रहने से बाद में मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। एप्पल का कारोबार जम गया, तो फिर ये प्रकाशक उसकी दया पर निर्भर हो जाएंगे। लेकिन कई प्रकाशकों का मानना है कि एप्पल गूगल और फेसबुक जैसी दूसरी कंपनियों से बेहतर है।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
एप्पल न्यूज की शुरुआत कुछ इस तरह हुई। आईफाेन बनाने वाली कंपनी ने ऐप बनाकर मुफ्त दे दिया। उसने लोगों से कहा कि वे अपनी पसंद के प्रकाशक को चुन लें। उसके बाद उसने उन अखबारों का न्यूजफीड देना शुरू किया। लेकिन बाद में कंपनी ने फैसला लिया कि खबरें चुनने का काम मशीन नहीं, मनुष्य करेंगे।
एप्पल न्यूज के साथ कुछ दिक्कतें भी हैं। वह ट्रैफिक के मामले में आदर्श स्थिति में नहीं है। पाठक एप्पल के ऐप पर ही निर्भर रहते हैं, एक ही खबर के लिए दूसरी जगह नहीं जाते। इससे प्रकाशकों को विज्ञापन पर कम कमाई होती है। यह पाया गया है कि किसी खबर पर दूसरी जगह 50,000 पाठकों के पहुंचने से जितने पैसे मिलते हैं, एप्पल पर पांच लाख पाठकों के किसी खबर पर पहुंचने से उतना राजस्व मिलता है। कस्टमर डेटा सीमित होने की वजह से विज्ञापनों के जरिए सीमित राजस्व मिलता है।
भारतीय मीडिया के बरक्स एप्पल न्यूज का प्रयोग
भारत में इसका क्या महत्व है? पत्रकारिता के इस मौजूदा दौर में हाशिये पर खड़े लोगों, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और वंचितों की खबरों को अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण माना जाता है और उन्हें जगह भी नहीं दी जाती है। वे तब तक लोगों का ध्यान नहीं खींचतीं, जब तक कोई बड़ा कांड न हो जाए। ऐसे में यदि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और अल्गाेरिदम पर निर्भर रहा जाए, तो इन तबकाें की खबरें और नहीं दिखेंगी।
वजह साफ है। वे जब तक ट्रेंड नहीं करेंगी, अल्गाेरिदम उन्हें नहीं चुनेगा। पीछे चल रही खबरें बिलकुल छूट जाएंगी। ऐसे में बेहतर है कि यह काम विवकेशील पत्रकार करें, ताकि कमजोर तबकों की खबरों को पर्याप्त स्थान मिल सके। हालांकि इसके लिए यह भी आवश्यक है कि न्यूज रूम में विभिन्न तबकों के सामाजिक और भौगोलिक प्रतिनिधित्व को कायम करने के लिए सचेत प्रयास किए जाएं। अगर एेसा नहीं किया जाता तो इसके नतीजे और विपरीत भी हो सकते हैं। बहरहाल, सच यह है कि आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस का प्रयोग भारत में भी आने वाले समय में बढ़ेगा, हर क्षेत्र में वह फैलेगा।
(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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