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अठारह वर्षों का हुआ झारखंड : न सूरत बदली, न सीरत   

झारखंड के रूप में पृथक राज्य की मांग 1920 से ही शुरु हो गयी थी। करीब अस्सी वर्षों तक राजनीतिक संघर्ष के बाद यह अस्तित्व में आया भी तो, बीते 18 वर्षों में न तो नेताओं का चरित्र बदला है और न ही आदिवासियों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हिस्सेदारी। बता रहे हैं विशद कुमार :

15 नवंबर 2000 : झारखंड के स्थापना दिवस पर विशेष

अलग राज्य के रूप में गठन के 18 वर्षों में झारखंड ने, दस मुख्यमंत्रियों सहित तीन बार राष्ट्रपति शासन को झेला है, जो शायद भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में किसी राज्य की यह पहली घटना है। इन दस मुख्यमंत्रियों में रघुबर दास को छोड़कर नौ मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय के रहे है, बावजूद इसके आम आदिवासियों के जीवन से जुड़े, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्तर पर कोई बदलाव नहीं आ पाया है। कहना ना होगा कि झारखंड अलग राज्य की अवधारणा केवल भाषणों और किताबों तक सिमट कर रह गयी है।

अबतक बने दस मुख्यमंत्री, तीन बार राष्ट्रपति शासन

राज्य गठन बाद ऐसे कई उदाहरण सामने आए जब नेताओं की सत्तालोलुपता खुलकर सामने आयी। पूरब-पश्चिम के रिश्ते के बावजूद झारखंड मुक्ति मोर्चा और भाजपा में 28-28 माह के सत्ता हस्तांतरण के समझौते के बाद अर्जुन मुंडा को 11 सितंबर 2010 को झामुमो के समर्थन से मुख्यमंत्री बनाया गया। परन्तु यह समझौता बीच में इसलिए टूट गया कि भाजपा, झामुमो को सत्ता सौपने को तैयार नहीं हुआ। अत: 18 जनवरी 2013 को झामुमो ने अपना समर्थन वापस ले लिया और अल्पमत में आने के बाद अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा दे दिया। काफी जोड़-घटाव के बाद जब किसी की सरकार नहीं बनी तो 18 जनवरी  2013 को राष्ट्रपति शासन लागू हुआ जो 12 जुलाई 2013 तक रहा। कांग्रेस के समर्थन पर हेमंत सोरेन 13 जुलाई 2013 को मुख्यमंत्री बनाए गए, जिनका कार्यकाल 23 दिसंबर 2014 तक रहा।

झारखंड मुक्ति मोर्चा प्रमुख शिबू सोरेन और मुख्यमंत्री रघबुरदास। बीच में भुखमरी के कारण मौत की शिकार संतोष कुमारी की तस्वीर

दिसंबर 2014 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के चुनाव जीत कर आए आठ विधायकों में से छह विधायकों को तोड़ कर अपनी ओर मिला लिया और सरकार बना ली। रघुबर दास ने 10वें मुख्यमंत्री के रूप में 28 दिसंबर 2014 शपथ ली, जो राज्य के पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बने।        

झारखंड के अबतक के मुख्यमंत्री और उनका कार्यकाल

क्रम संख्यानाम पद ग्रहण की तिथि -कार्यकाल का समापन
1बाबूलाल मरांडी15 नवंबर 2000-17 मार्च 2003
2अर्जुन मुंडा18 मार्च 2003- 2 मार्च 2005
3शिबू सोरेन2 मार्च 2005-12 मार्च 2005
4अर्जुन मुंडा12 मार्च 2005-14 सितंबर  2006
5 मधु कोड़ा14 सितंबर 2006-23 अगस्त 2008
6शिबू सोरेन27 अगस्त 2008-18 जनवरी 2009
 राष्ट्रपति शासन19 जनवरी 2009-29 दिसंबर 2009
7शिबू सोरेन 30 दिसंबर 2009-31 मई 2010
 राष्ट्रपति शासन1 जनवरी 2010-11 सितंबर 2010
8अर्जुन मुंडा11 सितंबर 2010-18 जनवरी 2013
 राष्ट्रपति शासन18 जनवरी 2013-12 जुलाई 2013

 

 
9 हेमंत सोरेन13 जुलाई 2013-23 दिसंबर 2014
10रघुबर दास28 दिसंबर 2014-अबतकs

आजादी के 70 वर्षों के बाद भी झारखंड के आदिवासियों के विकास के लिए कोई बेहतर प्रयास नहीं किये गये। वहीं नक्सल उन्मूलन के नाम पर आदिवासियों को उनके जंगल और जमीन से बेदखल करने का प्रयास किया जा रहा है। विकास के नाम पर कारपोरेट घरानों का झारखंड पर कब्जे की तैयारी चल रही है। दूसरी तरफ जिस अवधारणा के तहत झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ वह हाशिए पर पड़ा है।       

 1920 में ही उठने लगी पृथक राज्य की मांग

वर्ष 1912 में जब बंगाल प्रेसीडेंसी से बिहार को अलग किया गया, तब उसके कुछ वर्षों बाद 1920 में बिहार के पठारी इलाकों के आदिवासियों द्वारा आदिवासी समुहों को मिलाकर ‘‘छोटानागपुर उन्नति समाज’’ का गठन किया गया। बंदी उरांव एवं यू.एल. लकड़ा के नेतृत्व में गठित इस संगठन के जरिए आदिवासी जमातों की एक अलग पहचान कायम करने के निमित अलग राज्य की परिकल्पना की गई। 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने संताल परगना के आदिवासियों को जोड़ते हुये ‘आदिवासी महासभा’ का गठन किया। इस सामाजिक संगठन के माध्यम से अलग राज्य की परिकल्पना को राजनीतिक जामा 1950 में जयपाल सिंह मुंडा ने ‘झारखंड पार्टी’ के रूप में पहनाया।

झारखंड पार्टी के संस्थापक जयपाल सिंह मुंडा

यहीं से शुरू हुई आदिवासी समाज में अपनी राजनीतिक भागीदारी की लड़ाई। 1951 में देश में जब वयस्क मतदान पर आधारित लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ तो बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में झारखंड पार्टी एक सबल राजनीतिक पार्टी के रूप विकसित हुई। 1952 में हुए पहले आम चुनाव में छोटानागपुर व संताल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं और सभी 32 सीटों पर झारखंड पार्टी का ही कब्जा रहा। बिहार में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में झारखंड पार्टी उभरी तो दिल्ली में कांग्रेस की चिंता बढ़ गई।

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और जब विनोदानंद झा के कारण खत्म हो गयी झारखंड पार्टी

तब शुरू हुआ आदिवासियों के बीच राजनीतिक दखलअंदाजी का खेल। जिसका नतीजा 1957 के आम चुनाव में साफ देखने को मिला। झारखंड पार्टी ने चार सीटें गवां दी। क्योंकि 1955 में राज्य पुर्नगठन आयोग के सामने झारखंड के रूप में अलग राज्य की मांग रखी गई थीं। वहीं 1962 के आम चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर सिमट कर रह गई।  1963 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री विनोदानंद झा ने एक सौदेबाजी के तहत झारखंड पार्टी के सुप्रीमो जयपाल सिंह मुंडा को उनकी पार्टी के तमाम विधायकों सहित कांग्रेस में मिला लिया। एक तरह से झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। शायद पहली बार राजनीतिक ताकत की समझौते की संस्कृति आदिवासी नेताओं में प्रवेश हुई।

वर्ष 1966 में अलग राज्य की अवधारणा पुनः जागृत हुई। ‘अखिल भारतीय अदिवासी विकास परिषद’ तथा ‘सिदो-कान्हो बैसी’ का गठन किया गया। 1967 के आम चुनाव में ‘अखिल भारतीय झारखंड पार्टी’ का गठन हुआ। मगर चुनाव में कोई सफलता हाथ नहीं लगी। 1968 में ‘हुल झारखंड पार्टी’ का गठन हुआ। इन तमाम गतिविधियों में अलग राज्य का सपना समाहित था। जिसे तत्कालीन शासन तंत्र ने कुचलने के कई तरकीब आजमाए। 1969 में ‘बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम’ बना। 1970 में ई.एन. होरो द्वारा पुनः झारखंड पार्टी का गठन किया गया। 1971 में जयराम हेम्ब्रम द्वारा सोनोत संथाल समाज का गठन किया गया। 1972 में आदिवासियों के लिये आरक्षित 32 सीटों को घटाकर 28 कर दिया गया।

दिशोम गुरू  शिबू सोरेन

इसी बीच शिबू सोरेन आदिवासियों के बीच एक मसीहा के रूप में उभरे। महाजनी प्रथा के खिलाफ उभरे आन्दोलन ने तत्कालीन सरकार को हिला कर रख दिया। शिबू आदिवासियों के भगवान बन गये। 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ। महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन अब झारखंड अलग राज्य की मांग में परिणत हो गया। शिबू सोरेन लोकसभा का चुनाव जीत कर दिल्ली पहुंच गये। पार्टी के क्रियाकलापों एवं वैचारिक मतभेदों को लेकर पार्टी के भीतर अंतर्कलह बढ़ता घटता रहा। पार्टी कई बार बंटी, मगर शिबू सोरेन की अहमियत बरकरार रही। अलग राज्य की मांग पर सरकार के नकारात्मक रवैये को देखते हुए 1985 में कतिपय बुद्धिजीवियों ने केन्द्र शासित राज्य की मांग रखी।

झामुमो द्वारा अलग राज्य के आंदोलन में बढ़ते बिखराव को देखते हुए 1986 में ‘आॅल झारखंड स्टूडेंटस् यूनियन’ (आजसू) का तथा 1987 में ‘झारखंड समन्वय समिति’ का गठन हुआ। इन संगठनों के बैनर तले इतना जोरदार आंदोलन चला कि एक बारगी लगा कि मंजिल काफी नजदीक है। मगर ऐसा नहीं था।

भाजपा ने भी 1988 में वनांचल नाम से अलग राज्य की मांग रखी। 1994 में तत्कालीन लालू सरकार में ‘झारखंड क्षेत्र स्वायत परिषद विधेयक’ पारित किया गया। शिबू सोरेन इस परिषद के अध्यक्ष बनाये गये। वहीं 1998 में केन्द्र की भाजपा सरकार ने वनांचल अलग राज्य की घोषणा की। झारखंड अलग राज्य आंदोलन के पक्षकारों के बीच झारखंड और वनांचल शब्द को लेकर एक नया विवाद शुरू हो गया। भाजपा पर यह आरोप लगाया जाने लगा कि वह झारखंड की पौराणिक संस्कृति पर संघ परिवार की संस्कृति थोप रही है। शब्द को लेकर एक नया आंदोलन शुरू हो गया। अंततः 2 अगस्त 2000 को लोक सभा में झारखंड अलग राज्य का बिल पारित हो गया। 15 नवम्बर 2000 को देश के और दो राज्यों छत्तीसगढ़ व उत्तरांचल सहित झारखंड अलग राज्य का गठन हो गया।

झारखंड के पहले मुख्यमंत्री सह जेवीएम प्रमुख बाबूलाल मरांडी

बहरहाल, अलग राज्य गठन के बाद झारखंड में सैकड़ों मौतें भूख से हुई हैं। कुपोषण की तस्वीर भी काफी भयावह है। आदिवासियों की बेरोजगारी और गुरबत की स्थिति यथावत है। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि गैरआदिवासी नेताओं तथा आदिवासी नेताओं में कोई चारित्रिक फर्क नहीं है। झारखंड एक अलग राज्य तो बन गया लेकिन आदिवासियों की न सूरत बदली और न ही नेताओं की सीरत।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

विशद कुमार

विशद कुमार साहित्यिक विधाओं सहित चित्रकला और फोटोग्राफी में हस्तक्षेप एवं आवाज, प्रभात खबर, बिहार आब्जर्बर, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, सीनियर इंडिया, इतवार समेत अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग की तथा अमर उजाला, दैनिक भास्कर, नवभारत टाईम्स आदि के लिए लेख लिखे। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं

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