झारखंड के बाेकारो जिले में आधार कार्ड को सरकारी कार्यों के लिए जरूरी कर रखा है। इसके चलते यहां अनेक परिवारों काे राशन नहीं मिल पा रहा है। इसके चलते राज्य में संतोषी सहित कई लाेगाें की भूख से मौत हो चुकी है। इतना ही नहीं, आधार के अभाव में बच्चों को भी शिक्षा से वंचित होना पड़ रहा है। बोकारो जिले के रेलवे स्टेशन के करीब बसी कुली काॅलोनी डोमपाड़ा में इसके कई उदाहरण सामने आए हैं। जिन परिवारों को आधार न होने पर भुखमरी का सामना करना पड़ रहा है, उन्हीं के बच्चाें काे शिक्षा के अधिकार से वंचित रहना पड़ रहा है। यानी यह इन गरीब परिवारों पर दो-तरफा मार पड़ रही है। बताया जा रहा है कि यह परिवार समाज के सबसे वंचित वर्ग से आते हैं। सवाल यह उठता है कि सरकारी सुविधाओं का मानदंड समझा जाने वाला आधार कार्ड आखिर हमारे समाज के इन वंचित वर्गों से इतना दूर क्यों है?
रेलवे ने काट दी स्कूल की बिजली, बंद कर दिया पानी
बता दें कि झारखंड स्थित बोकारो जिला मुख्यालय से मात्र 10 की दूरी पर बोकारो रेलवे स्टेशन (पहले ‘रेलवे मध्य विद्यालय’) है। स्टेशन से सटी है रेलवे कॉलोनी, जिसमें रहते रेलवेकर्मी हैं। रेलवे कॉलोनी से मध्य विद्यालय रेलवे, अंचल चास-3 सटा है, जिसका संचालन झारखंड सरकार के द्वारा ही होता है। 1974 में स्थापित इस विद्यालय में कुछ वर्षों पूर्व तक रेलवे कर्मचारियों के बच्चे पढ़ते थे। मगर जैसे-जैसे विद्यालय की पढ़ाई के स्तर में गिरावट शुरू हुई, रेलवे कर्मचारियों ने अपने बच्चों को अन्य विद्यालयों में पढ़ाना शुरू कर दिया। नतीजतन रेलवे विभाग ने विद्यालय को पानी और बिजली देना बंद कर दिया। रेलवे ने इसके पीछे तर्क दिया कि जब स्कूल में रेलवे कर्मचारियों के बच्चे नहीं पढ़ते हैं, तो रेलवे विद्यालय को उक्त सुविधाएं क्यों दे?

शहर और रेलवे के पास ही बसे हैं सुविधाओं से वंचित परिवार
कुली कॉलोनी डोमपाड़ा मध्य विद्यालय रेलवे से मात्र 150 मीटर की दूरी पर है, जबकि रेलवे कॉलोनी से बिलकुल सटी हुई है। वैसे ताे डोमपाड़ा नाम से ही पता चल जाता है कि इस कॉलोनी में कौन-से लोग बसते हैं। लगभग 50 घरों की यह कॉलोनी रेलवे की जमीन पर बसी है, जो अतिक्रमण के दायरे में आती है। इस कॉलोनी को देखकर यह तो साबित हो जाता है कि आजाद भारत में बनी केंद्र और राज्य सरकारें अभी तक हर परिवार को रहने की व्यवस्था करने में पूरी तरह असफल रही हैं। अगर हम सरकारी जमीन पर अतिक्रमण कर बनाई गई झोपड़ियों और छोटे-मोटे रोजगार खोलने के बारे में सोचें तो यह मानना होगा कि यह दोष हमारी प्रशासनिक उदासीनता का ही है। अगर सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण कर बनाई गई झोपड़ियों में जाएं, तो यह साफ दिखाई देता है कि इन झोपड़पट्टियों में बसने वाले बहुसंख्य लोग समाज के अति पिछड़े और दलित वर्ग से आते हैं।
जर्जर अवस्था में खड़ा है स्कूल
डोमपाड़ा का मध्य विद्यालय रेलवे आधार न होने के कारण सिर्फ गरीब बच्चों काे शिक्षा न देने के कारण ही बदनाम नहीं हो रहा है, बल्कि जर्जर अवस्था में भी खड़ा है। एक ओर झारखंड सरकार शिक्षा में सुधार के दावे करती है, तो वहीं मध्य विद्यालय रेलवे जैसे स्कूल उसके दावे पर मुंह चिढ़ा रहे हैं। क्योंकि न तो स्कूल में मूलभूत सुविधाएं हैं, न उसमें आधार हीन गरीब बच्चों को दाखिला मिल रहा है और न ही उसकी इमारत पर भरोसा किया जा सकता है। न ही इस विद्यालय की ओर किसी शिक्षा अधिकारी, प्रशासन और यहां तक शिक्षा मंत्री आदि का कोई ध्यान है।

पीड़ित परिवारों ने सुनाई दर्द भरी दास्तां
रेलवे की साफ-सुथरी और सुसज्जित कॉलोनी से होकर जब मैं जब कुली कॉलोनी डोमपाड़ा में घुसा, तो गंदी और बजबजाती नालियों के अगल-बगल बनी झोपड़ियों के सामने कुछ बच्चे खेलते हुए नजर आए।
मैंने बच्चों को इशारे से बुलाया और पूछा— ‘‘तुम लोग पढ़ते हो?’’
सभी ने न में सिर हिलाया। प्रतिनिधि ने झोपड़ी के सामने बर्तन धो रही एक महिला को आवाज देते हुए आने का इशारा किया। वह बर्तन धोना छोड़कर पास आई, तो उससे पूछा— ‘‘यह कौन-सी जगह है?’’
‘‘यह डोमपाड़ा है बाबू।’’ —उसके जवाब देने क्रम में ही कुछ और लोग आ गए। शायद उन्होंने हमें सरकारी आदमी समझ लिया था, कि हम उन्हें कुछ देने आए हैं। एक आदमी ने एक लड़के को इशारा कर स्टूल मगवाया और मुझे बैठने का इशारा किया। यह पूछने पर कि, ‘‘इसे डोमपाड़ा काहे कहते हैं?’’
उन्होंने बताया—‘‘यहां लगभग डोम जाति के लोग रहते हैं।’’
जब उनसे पूछा कि, ‘‘ये बच्चे पढ़ते नहीं हैं?’’
जवाब मिला—‘‘नहीं साहब।’’
एक लड़के से मैंने पूछा— ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’
‘‘प्रेम कालिंदी’’’ —उसने बताया।
‘‘उम्र?’’
‘‘मां से पूछकर आते हैं।’’ —कहने के साथ ही वह वहां से भागा और एकाध मिनट में ही आ धमका। साथ ही उसकी मां भी पहुंच गई।
‘‘10 साल।’’
‘‘पिता का नाम?’’
‘‘नुमा कालिंदी।’’
‘‘मां का नाम?’’
‘‘माला देवी।’’ उसकी मां ने जवाब दिया।
‘‘जाति?’’
‘‘डोम साहब।’’ इस बार भी उसकी मां ने ही जवाब दिया।
‘‘पढ़ते हो?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘स्कूल गए थे नाम लिखवाने, मास्टर आधार कार्ड मांग रहा था, हमारा आधार कार्ड नहीं है, इसलिए नाम नहीं लिखा ……।’’ —प्रेम कालिंदी की मां एक सांस में बोलती चली गई। वह कुछ और बोलती तब तक हमने पूछा — ‘‘स्कूल कितनी दूर है यहां से?’’
‘‘बगल में ही है सर, 100 मीटर के आस-पास।’’ —पास खड़ा एक आदमी बोल पड़ा।
‘‘कभी कोई मास्टर कभी यहां आया है, यह जानने के लिए कि यहां कितने बच्चे नहीं पढ़ते हैं?’’
‘‘नहीं, कभी कोई नहीं आया। जाने पर तो नाम नहीं लिखता है, यहां काहे आएगा।’’ —कई लोग एक साथ बोल पड़े।
‘‘आप लोग कितने दिनों से यहां रह रहे हैं?’’
‘‘30साल से ज्यादा ही होगा, कम नहीं।’’ —लड़के की मां माला देवी ने जवाब दिया। माला देवी बताती है कि नुमा कालिंदी का जन्म इसी पाड़ा में हुआ है।
सभी परिवार गरीब, आधार कार्ड न होने से बच्चों से छिन रहा शिक्षा का अधिकार
रोजगार के बारे में पूछे जाने पर उसने बताया कि नुमा कालिंदी दैनिक मजदूरी के तौर पर रेलवे का पोली क्लीनिक में साफ-सफाई का काम करता है। उसने बताया कि इस पाड़ा के लगभग लोग वहीं साफ-सफाई का काम करते हैं। वहां उन्हें 180 रुपए दैनिक मजदूरी के रूप में मिलते हैं। माला देवी बताती है कि वह शादी वगैरह की पार्टियों एवं होटलों में साफ-सफाई का काम करती है। पाड़ा की अन्य महिलाएं भी यहीं काम करती हैं। एक महिला बताती है कि अगर यहां आंगनबाड़ी केंद्र होता, तो बच्चे पढ़ सकते थे।

13 वर्षीय रोहित हाड़ी के पिता शंकर हाड़ी होटल में मजदूरी करते हैं। उसकी मां सावित्री देवी भी होटल में झाड़ू-पोछा लगाने और बर्तन वगैरह धोने का काम करती है। डोम जाति का यह परिवार पिछले 30-35 साल से यहीं रह रहा है। इनका भी न तो राशन कार्ड है, न आधार कार्ड। रोहित का पढ़ाई से वंचित होने का कारण भी आधर कार्ड का न होना ही है। अमन कुमार 12 वर्ष का है। उसके पिता टेनी हाड़ी शादी वहैरह की पार्टियों में बतौर मजदूरी करता है। डोम जाति में पैदा होने वाला अमन भी आधार के आभाव में पढ़ाई से वंचित है। उसकी मां मीना देवी बताती है कि इस पाड़ा में कभी कोई मास्टर यह जानने के लिए कि यहां के बच्चें पढ़ते हैं या नहीं? -कभी नहीं आया। यह परिवार भी लगभग 30 साल से यहां बसा हुआ है। टेनी कुमार 13 वर्ष का है, फिर भी स्कूल नहीं जाता है। उसके पिता कुजू रविदास की दो साल पहले मौत हो गई। उसकी मां सवी देवी होटल में ग्लास-प्लेट धोकर रोटी का जुगाड़ करती है। चमार जाति का यह परिवार पिछले 40 साल से यहां रह रहा है। सरकारी सुविधा के बारे में पूछे जाने पर सवी देवी रोने लगती है। वह बताती है कि न उसका राशन कार्ड है, न आधार कार्ड। वह सरकारी आदमी समझकर मुझे अपना दुखड़ा सुनाने लगी कि शायद उसे कोई राहत मिल सके। वह बताती है यहां कोई नहीं आता है बाबू। बड़ी मुश्किल से उसे समझाया कि मैं सरकारी आदमी नहीं हूं। फिर भी वह रोती रही, जिस पर दया दिखाने के अलावा कोई चारा मेरे पास नहीं था।
चमार जाति की 10 वर्षीया लक्ष्मी कुमारी भी पढ़ाई से इसलिए महरूम है कि उसका भी आधार कार्ड नहीं है। उसके पिता उदय रविदास मजदूरी का काम करते हैं। मां सावित्री भी स्टेशन के होटलों में झाड़ू-पोछा लगाने का काम करती है। इनके पास भी न तो राशन कार्ड है, न आधार कार्ड। इस तरह से इस पाड़ा में रहने वालों की लंबी फेहरिस्त है, जो सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं और परेशान हैं।
शिक्षा अधिकारी ने कहा, शिक्षा के लिए आधार जरूरी नहीं
नामांकन के लिए आधार की अनिवार्यता पर जब मैंने बोकारो जिले की जिला शिक्षा पदाधिकारी नीलम आईलिन टोप्पो से जानना चाहा कि क्या विद्यालय में नामांकन के लिए आधार जरूरी है? तो काफी गोल-मटोल भूमिका के बाद अंतत: उन्होंने बताया कि, ‘‘नामांकन के लिए आधार जरूरी नहीं है।’’
नहीं हो रहा निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2009 का पालन
बताते चलें शिक्षा का अधिकार के तहत निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2009, भारतीय संसद द्वारा सन् 2009 में पारित शिक्षा संबंधी एक विधेयक है। हालांकि, डोमपाड़ा के बच्चों को शिक्षा न मिलने की स्थिति को देखें, तो निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2009 का पूरी तरह उल्लंघन हो रहा है, जो प्रशासन ही कर रहा है। इस विधेयक के पास होने से बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार मिल गया है। संविधान के अनुच्छेद 45 में 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गई है तथा 86 वे संशोधन द्वारा 21 (क) में प्राथमिक शिक्षा को सब नागरिकों का मूल अधिकार बना दिया गया है। यह 1 अप्रैल 2010 को जम्मू -कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में लागू हुआ। वैसे में इस पाड़ा के बच्चों का शिक्षा से वंचित रखना कहां तक उचित है। इस अपराध का भागीदार कौन है? यह एक बड़ा सवाल है जो देश अन्य भागों मे बसे डोमपाड़ा के लोग पूछ रहे हैं।
बताते चलें कि ‘विद्यालय चलें-चलाएं अभियान’ के तहत छुटे हुए अनामांकित बच्चों के लिए ‘डोर टू डोर विजिट’ कार्यक्रम हर गांव, हर मोहल्ले में हर वर्ष मई महीने में चलाया जाता है, जिसके तहत पढ़ाई से वंचित बच्चों का सर्वे कर नामांकन किया जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर इस पाड़ा के बच्चे पढ़ाई से वंचित क्यों रह रहे हैं? वह भी तब, जब उनके मां-बाप विकट गरीबी में भी उन्हें पढ़ाना चाहते हैं।
शिक्षा मंत्री ने कहा आधार जरूरी नहीं
फारवर्ड प्रेस ने जब स्कूल की दुर्दशा, उसमें सुविधाओं के अभाव और बिना आधार कार्ड के बच्चों का दाखिला न हाेने के बारे में सच्चाई जानने के लिए झारखंड की शिक्षा मंत्री नीरा यादव से बातचीत की, तो उन्होंने कहा कि, ‘‘स्कूल में प्रवेश के लिए आधार जरूरी नहीं है। साथ ही शिक्षा मंत्री ने कहा कि शिक्षा अधिकारी से बात कीजिए और उन लोगों को भी आधार बनवा लेना चाहिए।’’
(कॉपी संपादन : प्रेम)
[परिवर्धित : 8 दिसम्बर, 2018, 8.29 AM]
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