उत्तर प्रदेश के भगवाधारी मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने राजस्थान की चुनावी सभा में निम्न जातियों को हिंदुत्व और राम मन्दिर से जोड़ने के लिए राजनीतिक शिगूफा छोड़ा कि हनुमान वंचित तबके से आते हैं, वह दलित हैं। बस फिर क्या था, दलित संगठनों ने हनुमान मंदिरों पर कब्जा करने के रूप में अपनी प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। ‘भीम आर्मी’ नेता चंद्रशेखर ने देश भर के हनुमान मन्दिरों पर कब्जा करके उनमें पूजा-अर्चना करने की अपील की, तो लखनऊ में ‘दलित सेवा उत्थान’ ने, मुजफ्फरनगर में ‘वाल्मीकि क्रान्ति दल’ ने और दिल्ली में दलित समुदाय के कुछ लोगों ने हनुमान मन्दिरों पर हनुमान चालीसा पढ़कर सांकेतिक कब्जा किया गया।
क्या आरएसएस की राह पर हैं भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर रावण?
इससे यह अच्छी तरह साफ़ हो गया कि भीम आर्मी नेता कोई परिपक्व नेता नहीं है। वह दक्षिण पंथी राजनीति का ही एक और दलित चेहरा है, जो योगी के बयान में भी एक सांस्कृतिक प्रतिक्रान्ति नहीं देख सका। जिन दलित संगठनों ने हनुमान मंदिरों पर पूजा-अर्चना की और सांकेतिक कब्जा किया, उन्होंने भी साबित कर दिया कि वे आरएसएस और भाजपा के ही संगठन हैं, जो राजा राम और उनके गुलाम हनुमान में अपनी आस्था रखते हैं। स्पष्ट हो गया की न तो भीम आर्मी के नेता और न ये दलित संगठन डा. आंबेडकर की विचारधारा से वास्ता रखते हैं। सांकेतिक कब्ज़ा करने वालों में भी किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई, और किसी के खिलाफ कोई एनी कार्यवाही हुई। इससे स्पष्ट होता है कि उनका सारा ड्रामा प्रायोजित था। आरएसएस के इब दलित संगठनों ने बहुजनों को यह सन्देश देना चाहा कि वे हनुमान भक्त हैं और हनुमान उनके देवता हैं, और हनुमान राम के गुलाम हैं, तो वे भी राम के गुलाम हैं।
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दलित संगठनों का प्रायोजित कर्म तो समझ में आता है, पर क्या भीम आर्मी के नेता चन्द्रशेखर भी आरएसएस का उत्पाद हैं? उन्होंने क्या सोचकर दलितों से देश भर के हनुमान मंदिरों पर कब्ज़ा कर पूजा-अर्चना करने की अपील की? क्या उनके अपील करने मात्र से देशभर के हनुमान मन्दिर दलितों के हो जायेंगे? इन मंदिरों के ब्राह्मण पुजारी आसानी से दलितों को मंदिर सौंप देंगे?
आरएसएस-भाजपा और तमाम हिन्दू संगठन सामाजिक और आर्थिक समानता की क्रान्ति को रोकने के मिशन में लगे हुए हैं, इसलिए वे मन्दिर, हनुमान, गाय, गंगा, गीता और गायत्री में इस देश के बहुजन समाज को फंसाकर प्रतिक्रान्ति कर रहे हैं। इसका जवाब समाजवादी क्रान्ति है।
चलो, थोड़ी देर के लिए कल्पना करने में क्या हर्ज है? कल्पना कर लेते हैं कि देश भर के हनुमान मन्दिरों पर दलितों का कब्जा हो गया, तो क्या देशभर के दलितों की सारी समस्याएं उनके हनुमान-भक्त हो जाने से हल हो जाएँगी? या वे हनुमान की तरह राम के गुलाम बनकर अपना सब कुछ गँवा बैठेंगे? हनुमान का अपना क्या जीवन था? उसका अपना क्या अस्तित्व था? अगर वह दलित-वंचित समुदाय से था, तो उसने वंचित समुदाय के उत्थान के लिए क्या काम किया था? सिवाए इसके कि उसने अपने सम्पूर्ण समुदाय को राम का गुलाम बनाकर ब्राह्मणों का पिछलग्गू बना दिया था। क्या भीम आर्मी नेता चन्द्रशेखर भी यही चाहते हैं कि देशभर के दलित हनुमान के भक्त बनकर आरएसएस और भाजपा का मनोरथ पूरा करें?
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सच मानिए तो चंद्रशेखर ने हनुमान मन्दिरों पर कब्जा करने का बयान देकर अपनी क्रान्ति की छवि पर कालिख पोत ली है। इस बयान ने साबित कर दिया है, कि उनमें दलित चेतना की कोई विचारधारा नहीं है। अगर उनमें दलित चेतना होती, तो कहते कि अगर हनुमान दलित भी हैं, तो भी देश भर के दलितों को हनुमान से दूर रहना चाहिए, क्योंकि वह ब्राह्मणवादियों का गुलाम प्राणी था। अगर वह यह कहते, तो आरएसएस-भाजपा का खेल बिगाड़ देते, और क्रान्ति की नई इबारत लिखते। किन्तु, उनका उथला दिमाग यह देख ही नहीं पाया कि आरएसएस के भगवा मुख्यमंत्री के द्वारा दलितों को उनकी समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए ही हनुमान की जाति का राग छेड़ा गया था, जिसका जवाब हनुमान को अपनाकर नहीं, हनुमान का बहिष्कार करके दिया जाना चाहिए था। हनुमान के बहिष्कार का मतलब गुलामी का बहिष्कार है, और गुलामी के बहिष्कार का मतलब स्वतन्त्रता का जीवन जीना है।
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कोई ब्राह्मण क्यों नहीं बना राम का दास?
कोई ब्राह्मण राम का दास नहीं हुआ, उलटे राम ही ब्राह्मणों के दास थे। हनुमान की जाति दास की जाति है। दास कभी उन्नति नहीं करता, वह दास पैदा होता है, और दास ही मरता है। एक दास स्वयं भी आजीवन दास रहता है और अपनी भावी पीढ़ियों को भी दास बनाता है। दास कभी स्वतन्त्रता का अनुभव नहीं करता। उसके लिए स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है। वह दासता में अपना पूरा जीवन जीता है। योगी आदित्यनाथ हनुमान को दलित बनाकर दलितों को हनुमान जैसा ही दास बनाना चाहते हैं। क्या दलितों को दास बनना है?
हनुमान चाहे जिस जाति के हों, वह देश की किसी भी समस्या का हल नहीं हैं। देश की समस्या का हल हनुमान से नहीं, समाजवाद से होगा।
पुनश्च
दर्शन में मध्य मार्ग नहीं होता, अगर होता है, तो वह अवसरवाद होता है। इसलिए दो ही पंथ हैं—एक दक्षिण पंथ और दूसरा वाम पंथ। दक्षिण पंथ विषमतावादी है, और वाम पंथ समतावादी। विषमतावादी पंथ जनता को धर्म की अफीम खिलाकर सुलाने का काम करता है, और समतावादी पंथ जनता को जगाता है। एक जनता को अतीत के खूंटे से बाँधकर रखना चाहता है, और दूसरा सुंदर भविष्य के निर्माण पर जोर देता है। इनमें वाम पंथ क्रान्ति की बात करता है, और दक्षिण पंथ प्रतिक्रान्ति की। आरएसएस-भाजपा और तमाम हिन्दू संगठन सामाजिक और आर्थिक समानता की क्रान्ति को रोकने के मिशन में लगे हुए हैं, इसलिए वे मन्दिर, हनुमान, गाय, गंगा, गीता और गायत्री में इस देश के बहुजन समाज को फंसाकर प्रतिक्रान्ति कर रहे हैं। इसका जवाब समाजवादी क्रान्ति है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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