पी.एस, कृष्णन 1990 में समाज कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के सचिव थे। उस समय प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे और समाज कल्याण मंत्री के रूप में रामविलास पासवान थे जब संसद में मंडल कमीशन की अनुसंशा के मुताबिक पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण देने संबंधी विधेयक पेश किया गया था। आज जबकि केंद्र सरकार द्वारा गरीब सवर्णों को आर्थिक आधार पर दस फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है तो वे इसे संविधान सम्मत नहीं मानते। सरकार की नई पहल के संवैधानिक मायने क्या हैं और यह भी कि यह संविधान के कितना अनुकूल है। इन सवालों को लेकर पी. एस. कृष्णन से विशेष बातचीत का संपादित अंश :

फारवर्ड प्रेस : संसद ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण देने संबंधी विधेयक को पारित कर दिया है। इसे आप कितना संविधान के अनुकूल मानते हैं?
पी. एस. कृष्णन : यह यथार्थ है कि गैर ओबीसी, गैर एसी और गैर एसटी जातियों में भी गरीब हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। वैसे तो सबसे ज्यादा गरीब अनुसूचित जातियों में हैं, अनुसूचित जनजातियों में हैं और ओबीसी में भी गरीब हैं। जो सामान्य वर्ग है, उसमें भी गरीबी है। उन्हें मदद दी जानी चाहिए। अब सवाल उठता है उन्हें कैसी मदद दी जानी चाहिए। मेरे हिसाब से उनकी जैसी समस्या है, उन्हें वैसी ही मदद दी जानी चाहिए। इसे ऐसे समझिए कि यदि किसी रोगी को टीबी की बीमारी है तो उसे टीबी की दवा दी जानी चाहिए। यदि किसी को विटामिन की समस्या है तो विटामिन की दवा दी जानी चाहिए। जाहिर तौर पर सबके लिए एक दवा नहीं हो सकती है। अलग-अलग समस्याओं का हल अलग-अलग निकाला जाना चाहिए और जो हल हो वह संविधान के बुनियादी ढांचे के अनुरूप हों। उसके खिलाफ नहीं हो। यदि ऐसा हुआ ताे सुप्रीम कोर्ट उसे खारिज कर देगा।

फा. प्रे. : सवाल यह है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है और अब जबकि संसद ने विधेयक पारित कर दिया है तो यह संविधान के विरूद्ध कैसे है?
पी.कृ. : देखिए, हमारे संविधान में सामाजिक न्याय संबंधी कानून आदि हैं। कई योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। यह क्यों किया गया है, पहले इसे समझना होगा। हमारे देश की एक विशेष समस्या है जाति। इसका मुख्य अंग है छुआछूत। जो आदिवासी हैं उन्हें दूर जंगलों और पहाड़ों में भगा दिया गया। इस प्रकार इन वर्ग के लोगों को सदियों से तालीम से और शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी से वंचित रखा गया। अनुसूचित जाति में शामिल कई जातियों को जमीन रखने की इजाजत नहीं थी। कई राज्यों में ऐसे काले कानून थे। जब अंग्रेज चले गए तो ऐसे काले कानूनों को तो खत्म कर दिया गया लेकिन उनका असर रहा। वे भूमिहीन रहे। वे खेतिहर मजदूर बने। यह कोई एक दिन की बात नहीं है। सदियों का असर है। मैं यह भी बता दूं कि यह कोई व्यक्तिगत बात नहीं है। सामुहिक बात है। व्यक्ति को नहीं हटाया गया। बल्कि पूरे समुदाय को वंचित रखा गया। वे सब छुआछूत और भूमिहीनता के शिकार थे। हमारे संविधान का पहला आधार है – नागरिक और नागरिक के बीच में कोई भेद नहीं होना चाहिए। न तो जाति के आधार पर, न धर्म न लिंग और जन्म के स्थान पर ही। यहां तक कि सरकार के अधीन होने वाली नियुक्तियों में भी कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। लेकिन यदि ऐसा किया गया तो होगा यह कि जो सदियों से तालीम और शासन-प्रशासन से दूर रखे गए हैं, उनकी स्थिति और खराब होती चली जाएगी। उन्हें समान अवसर नहीं मिलेगा। यह तो मैंने अनुसूचित जाति के लोगों के बारे में बात कही। अनुसूचित जनजाति के लोगों को सदियों से जंगलों और पहाड़ों में रहने के लिए धकेल दिया गया, वे भी भेदभाव के शिकार हुए। उनकी जमीनें भी छीन ली गयीं।
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फिर सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग भी ऐसे ही हैं जिन्हें सदियों से तालीम और शासन व प्रशासन में भागीदारी नहीं दी गयी। मैं फिर एक बार कह रहा हूं। सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग, आर्थिक नहीं। अन्य पिछड़ा भी नहीं। यह कहना भी गलत है। केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा। सामाजिक पिछड़ापन का मतलब क्या है? पहले इसे समझिए। इसका मतलब है भारत के परिप्रेक्ष्य में जो जातियां छुआछूत का शिकार न होते हुए भी समाज में उनका निचला स्तर माना गया। जैसे कि बाल काटने वाले नाई, कपड़े धोने वाले धोबी। धोबी कई राज्यों में पिछड़ा वर्ग में हैं तो कई राज्यों में अनुसूचित जाति की सूची में। दक्षिण भारत के राज्यों में धोबी पिछड़े वर्ग में शामिल हैं। पश्चिम के राज्यों में भी वे पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं। वहीं उत्तर भारत के राज्यों में उन्हें अछूत माना गया और इस कारण वे अनुसूचित जाति में शामिल हैं। बुनकरों को भी पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है।
हाथ से जो भी काम किया जाता है, उसे सम्मानजनक नहीं माना गया फिर चाहे वह समाज के लिए कितना भी लाभदायक क्यों न हो। हमारी संस्कृति में वैसे तो बहुत सारी खूबियां हैं, लेकिन कई दाग भी हैं।
तो ये तरह के लोग हैं जिन्हें सामूहिक तौर तालीम और गवर्नेंस से दूर रखा गया। इन्हें समान अवसर देने के लिए प्रावधान किए गए। इसमें सिर्फ आरक्षण ही शामिल नहीं है, बल्कि कई और प्रावधान शामिल हैं। इस प्रकार हमारे संविधान का मूल ढांचा बना।
अब यदि सरकार कोई परिवर्तन करना चाहती है ताे बेशक उसे इसका अधिकार है लेकिन वह इस मूल ढांचे के खिलाफ नहीं होना चाहिए। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट का है जो उसने 1973 में केशवानंद भारती मामले में दिया था। अदालत ने सरकार को संविधान में संशोधन का अधिकार दिया है, लेकिन संशोधन मूल ढांचे के खिलाफ नहीं होना चाहिए।
फा. प्रे. : सरकार के विधेयक में कौन सी खामी है जिसके आधार पर आप इसे संविधान सम्मत नहीं मानते हैं?
पी.कृ. : देखिए सरकार के द्वारा जो बिल पेश किया गया और संसद ने जिसे पारित किया है, उसके मुताबिक दस प्रतिशत आरक्षण आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों को दिया जाना है। ध्यान रखिए कि आर्थिक आधार पर पिछड़ा शब्द नहीं कहा गया है और न ही उच्च जाति शब्द का इस्तेमाल किया गया है। ये कौन लोग हैं? ये वे हैं जो छुआछूत के शिकार नहीं रहे। आदिवासियों की तरह जंगलों और पहाड़ों में धकेले नहीं गए। इनको सामाजिक स्तर पर भी नीचे नहीं माना गया। कोई गरीब भी है तो उसे सामाजिक सम्मान हासिल है। इनमें गरीबी सामूहिक नहीं व्यक्तिगत बात है। ऐसे लोगों के लिए हमारे संविधान में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। इस कारण यह विधेयक भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और अदालत द्वारा इसे खारिज किए जाने की प्रबल संभावना है।
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एक बात यह भी समझने की आवश्यकता है कि आरक्षण का प्रावधान किनके लिए किया गया है। दरअसल आरक्षण उनके लिए है जो अपने बूते अपना न्यायिक अधिकार हासिल नहीं कर सकते हैं। मैं स्पष्ट कर दूं कि ऐसा इसलिए नहीं है कि वे इसके लिए नाकाबिल हैं। इसके लिए उन्हें लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण दिया गया। साथ ही नौकरियों और शिक्षा में भी। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो उनकी हिस्सेदारी उनकी आबादी का एक प्रतिशत भी नहीं होता। एक उदाहरण देता हूं। राज्यसभा में आरक्षण नहीं है तो वहां की स्थिति क्या है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कितने सदस्य हैं।
दूसरी ओर ऊंची जाति के लोग हैं जो अपने बूते अपनी आबादी से अधिक हिस्सेदारी ले रहे हैं। इसलिए उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए, इसका कोई आधार नहीं बनता है।
फा. प्रे. : सरकार कह रही है कि सवर्ण गरीब हो रहे हैं और उन्हें विशेष अवसर मिलना चाहिए?
पी.कृ. : सही बात है। लेकिन यह भी देखें कि वे किस प्रकार के गरीब हैं। दरअसल उनमें गरीबी इसलिए है क्योंकि वे अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश नहीं भेज पा रहे हैं। उत्कृष्ट शिक्षा के लिए उन्हें आर्थिक मदद की आवश्यकता है। तो सरकार उन्हें आरक्षण के बजाय एजुकेशन लोन दे। इससे संविधान उन्हें कहां रोकता है।
फा. प्रे. : सरकार द्वारा एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि इससे सभी धर्मों के गरीबों को लाभ मिलेगा। यहां तक कि गुर्जरों को भी।
पी.कृ. : तरह-तरह की भ्रांति फैलाई जा रही है। आज की स्थिति यह है कि मुस्लिम समाज की कई जातियों को पिछड़ा वर्ग के तहत आरक्षण लाभ दिया जा रहा है। जैसे हिंदुओं में श्रमशील जातियां हैं, वैसे ही मुसलमानों में भी हैं। इनकी आबादी 85 फीसदी है। कोई नाई है तो कोई हलालखोर। इसलिए यह कहना कि मुसलमानों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है, गलत है। वैसे ही गुर्जर हैं। उन्हें भी कई राज्यों में पिछड़ा वर्ग के तहत आरक्षण का लाभ पहले से ही मिल रहा है। वहीं जम्मू-कश्मीर में मुसलमान गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति श्रेणी के तहत आरक्षण लाभ मिल रहा है।
फा. प्रे. : एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि सरकार ने सवर्णों को आरक्षण देने के पहले कोई आंकड़ा नहीं दिया है, इसलिए इस आधार पर भी सुप्रीम कोर्ट इसे खारिज कर सकता है।
पी.कृ. : आपने सही कहा। परंतु, यह बात तो बाद में आएगी। पहले तो यह कि सरकार का यह फैसला संविधान के मूल ढांचे का ही विरोध करता है।
फा. प्रे. : आखिरी सवाल, कई राजनीतिक दल यह मांग कर रहे हैं कि पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को 27 फीसदी से बढ़ाकर 50 या इससे अधिक कर दिया जाए। क्या यह संविधान के अनुकूल होगा?
पी.कृ. : नहीं, यह गलत है। ऐसा मुमकिन नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही तय कर दिया है कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक न हो। यदि ऐसा होता है तो स्थिति भयावह हो जाएगी। अभी क्या हो रहा है। अभी कुल आरक्षण 49.5 फीसदी है। आधा प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। यह संविधान के माकूल होगा। शेष 50 फीसदी सामान्य कोटे का है। यह कोटा केवल सवर्णों के लिए नहीं है। तथापि यह सच है कि इसका सबसे अधिक लाभ सवर्णों को ही मिलता है। लेकिन वस्तुत: यह सबके लिए है। फिर चाहे वह एससी हों, एसटी हों या फिर ओबीसी, मेरिट के आधार पर यदि वे सफल होते हैं तो वे भी सामान्य वर्ग में शामिल होंगे।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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