कैलेंडर ने एक और कदम बढ़ाया; 2018 की विदाई हो गयी. 2019 का स्वागत है. केक -मिठाइयां खायी जाएँगी, जलसे होंगे, एक दूसरे को शुभकामनायें दी जाएँगी और कुल मिलाकर हम विगत अतीत और आगत नए की मन ही मन समीक्षा करेंगे. हमारे देश में आनेवाले समय की समीक्षा का प्रचलन अधिक है. त्रिपुंडधारी पंडित और ज्योतिष के जानकार; जातकों की कुंडलियां और राशियाँ खंगालेंगे और भविष्यवाणियां करेंगे. कई दिनों तक अख़बारों के पन्ने झूठ -मूठ के इन आकलनों से भरे होंगे. लेकिन मेरी दिलचस्पी विगत की समीक्षा पर अधिक है. क्योंकि इसी नींव पर हम भविष्य को समझ पाएंगे. फिर हम व्यक्तिगत से अधिक पूरे राष्ट्रीय जीवन की विहंगम ही सही, समीक्षा करना चाहेंगे.
2018 घटनापूर्ण वर्ष रहा. बहुत अधिक नहीं, तो सामान्य से कुछ अधिक. दरअसल ज्यादातर वर्ष घटनापूर्ण ही होते हैं, लेकिन जो निकट होता है उसे हमने गहराई से देखा होता है और उसकी घटनाएं विस्मृत होने से बची होती हैं; शायद इसीलिए वह अधिक घटनापूर्ण दिखता है. तो, हम एक नज़र गुजरे हुए वर्ष पर डालें.
आप याद कीजिए, विगत वर्ष का आरम्भ भीमा-कोरेगांव की घटना से हुआ. कोरेगांव जा रहे दलितों के जत्थे पर हिंसक आक्रमण हुए, जिसमे एक व्यक्ति की मौत हो गयी. इसकी प्रतिक्रिया में पुणे शहर और कमोबेश पूरे महाराष्ट्र में दलितों के विरोध प्रदर्शन हुए. धीरे -धीरे यह मामला राष्ट्रीय स्तर का हो गया. आज शायद यह जरुरी होगा कि हम पूरे मामले को जानें. 2018, पेशवाराज के पतन की दो सौंवी सालगिरह का साल था. पेशवा शक्ति का आत्मसमर्पण तो जून 1818 में हुआ था, लेकिन उसकी असली पराजय पहली जनवरी 1818 को ही भीमा -कोरेगांव में हो चुकी थी. दरअसल 31 दिसम्बर 1817 को भीमा नदी के पास कोरेगांव में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना और पेशवा सेना में भिड़ंत हुई . पेशवा सेना में 28000 सिपाही थे – बीस हज़ार पैदल और आठ हज़ार घुड़सवार. इसके मुकाबले कंपनी सेना में बॉम्बे इन्फेंट्री के महज 834 सिपाही थे. इन में करीब पांच सौ दलित महार थे . अट्ठाइस हज़ार सैनिकों के साथ मात्र आठ सौ चौंतीस सैनिकों की मुठभेड़! लड़ाई अगले रोज तक चलती रही . महार सैनिकों के शौर्य पर अंग्रेज चकित थे. कंपनी सेना के कुल 275 सैनिक मारे गए, लेकिन लड़ाई इन्होने जीत ली. पेशवा सेना भाग खड़ी हुई. कुछ महीने बाद जून में उसने आत्मसमर्पण कर दिया. अंग्रेजों ने कोरेगांव में विजय स्मारक बनाया. इस विजय स्मारक पर 49 सैनिकों केनाम उत्कीर्ण हैं. इनमे बाईस दलित महार सैनिकों के नाम हैं. इतिहास के किसी विजय स्मारक पर पहली दफा दलितों के नाम उत्कीर्ण किये गए थे. लेकिन हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का जो चरित्र था, उसमे भीमा-कोरेगांव की घटना को राष्ट्रीय पराजय दिवस के रूप में चिन्हित किया. लेकिन आंबेडकर ने इसे दलित शौर्य दिवस के रूप में देखा. इसी परंपरा को विकसित करते हुए दलितों ने इस शौर्य दिवस का दो सौवां उत्सव आयोजित किया था. संघ के लोगों ने इस पर हमले किये . इस तरह एक राष्ट्रीय विवाद उठ खड़ा हुआ.

एक तरह से देखा जाय तो पूरा वर्ष दलित केंद्रित रहा. अप्रैल महीने में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले, जिसमे अनुसूचित जाति उत्पीड़न मामले के कानून में हस्तक्षेप किया गया था, एक व्यापक विरोध उठ खड़ा हुआ. भारत बंद ने वाकई एक राष्ट्रीय रूप ले लिया. ग्यारह राज्यों में बंद का प्रभाव देखा गया. यह एक नयी दलित राष्ट्रीयता का प्रकटीकरण था, जो निश्चित ही उल्लेखनीय है. पहली दफा लोगों को लगा कि दलित लोकतान्त्रिक -राजनीतिक लड़ाई बिना किसी राजनीतिक मंच के भी लड़ सकते हैं . ध्यातव्य है कि इस बंद को किसी पार्टी विशेष ने आहूत नहीं किया था. यह स्वतः स्फूर्त था. यही इसकी विशिष्टता थी.

पिछले दिनों पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए. इसके भी पूर्व गुजरात व कर्नाटक में चुनाव हुए थे. इन चुनावों में कुल मिलाकर भाजपा को पीछे हटना पड़ा. राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के किले ध्वस्त हो गए. यह २०१८ की खास पहचान थी. लोकसभा के उपचुनावों में भी भाजपा हारती चली गयी. उत्तरप्रदेश में उसकी राजनीतिक धाक ख़त्म हो गयी और कर्नाटक में उसके बड़बोलेपन को लगाम लग गयी. इस तरह राजनीतिक तौर पर पर यह वर्ष मोदी के आभामंडल को ध्वस्त करनेवाला सिद्ध हुआ. साल के आखिर तक मोदी समझ गए कि उनका जादू कम हो गया है. अब 2019 का लोकसभा चुनाव इसी धरातल पर होना है.
पिछले वर्ष हमने अपने सामाजिक -नागरिक जीवन में आज़ादी के महत्व को कई बार रेखांकित किया. अर्बन नक्सली कहते हुए जब हुकूमत ने अगस्त महीने में बरबरा राव, सुधा भरद्वाज, गौतम नौलखा, अरुण फरेरा और वेर्नोन गेलजालएस को गिरफ्तार किया तो देश भर में प्रतिक्रिया हुई और अंततः सरकार को पीछे हटना पड़ा. इस तरह देश भर में नागरिक स्वतंत्रता का एक मिजाज उभर कर राष्ट्रीय स्तर पर प्रकट हुआ. यह उल्लेखनीय परिघटना है.
कुछ दुखांतकियाँ हुईं. लोकप्रिय लेखक दूधनाथ सिंह, कवि केदारनाथ सिंह, वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग, पत्रकार कुलदीप नैयर, लेखक विद्यासागर नायपाल, राजनेता करूणानिधिऔर फिल्मकार मृणाल सेन जैसी हस्तियां हमारे बीच से हमेशा के लिए विदा हो गए.
लेकिन कुल मिला कर विगत वर्ष उत्साहजनक रहा. नया वर्ष चुनौती पूर्ण है. इस वर्ष पहली छमाही में ही चुनाव होने हैं. यह चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक महत्व का होगा. 1971 के लोकसभा चुनाव में मुद्दा था कि भारत समाजवादी रास्ते से चलेगा कि पूंजीवादी रास्ते से. भारत की जनता ने समाजवाद के पक्ष में वोट किया था. 1977 में चुनावी मुद्दा था कि लोकतंत्र रहेगा या नहीं. जनता ने लोकतंत्र के पक्ष में फैसला दिया था. अगले चुनाव में मुद्दा है कि संघ का हिंदुत्व चलेगा या संविधान की धर्मनिरपेक्षता.फैसला आना है. फैसले के आने तक हमारा दिल धड़कता रहेगा. देश की महान जनता अपने महान आदर्शों से डिगेगी नही, यही उम्मीद है. इन्ही उम्मीदों के संग नए साल की शुभकामनायें.
(कॉपी संपादन : अर्चना)
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