जंतर-मंतर पर जुटे देशभर के कारीगर, सरकार के सामने रखीं अपनी मांगें
देशभर के विभिन्न क्षेत्रों के पेशागत कारीगरों ने 15 फरवरी को जंतर-मंतर पर एकदिवसीय धरना दिया। आर्टीजन वेलफेयर आर्गेनाइजेशन (एडब्ल्यूओ) के बैनर तले किए गए इस धरने में प्राय: सभी शिल्पकार जातियों के संगठनों ने कारीगरों की मांगों का समर्थन किया था। कार्यक्रम की शुरुआत में पुलवामा में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि दी गई।
धरना-प्रदर्शन के दौरान आर्टीजन वेलफेयर आर्गेनाइजेशन के लोगों ने कुछ नए तरह के नारे लगाए। जैसे- ‘जानवरों का भी मंत्रालय है, तो कारीगरों के लिए क्यों नहीं? यह कैसा इंसाफ है’, ‘औजार पकड़े हाथ हमारा, मजबूत है-मजबूत है’ ‘विकसित राष्ट्र बनाने वाला अविकसित है-अविकसित है’ ‘जन्मसिद्ध अधिकार हमारा, लेके रहेंगे-लेके रहेंगे’ ‘भारत सरकार नींद से जागो’ ‘कारीगर विकास बोर्ड का गठन करो’ ‘भारत से बाहर से आए लोगों को परंपरागत कारीगर की मान्यता और पैतृक कारीगरों से बैर नहीं चलेगा-नहीं चलेगा’ ‘भारत देश हमारा है, हम इसके स्वामी हैं’। हालांकि, इन नारों के बीच सांप्रदायिक मिजाज वाले कुछ नारे भी लगे, जिनका आशय था कि हिंदू मूल निवासी ही मूल रूप से शिल्पकार हैं; जबकि सरकारें मुसलमान कारीगरों के लिए योजनाएं चलाकर उनका तुष्टिकरण करती है।
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मजदूर नहीं हैं कारीगर, मांगों को लेकर 12 साल से हैं संघर्षरत
धरना के दौरान एडब्ल्यूओ के राष्ट्रीय सलाहकार डॉ. पी.एन. शंकरन ने कहा कि यूपीए और एनडीए के नेता लोग कारीगरों को मजदूर समझते हैं; जबकि हम हमारा पैतृक काम करते हैं। आज पेशागत कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का संकट है। हम सामान्य काम सिर्फ गरीबी और मजबूरी के चलते करते हैं। जिस स्टेचू ऑफ यूनिटी के जरिए सरकार अपनी ब्रांडिंग कर रही है, उसके मॉडल को बनाने वाला राम सुधार एक कारीगर एक शिल्पी ही है।

वह कहते हैं कि हम अपनी मांगों को लेकर पिछले 12 साल से लगातार संघर्षरत हैं। मछुआरा समुदाय के लोगों ने भी हमारे साथ ही संघर्ष शुरू किया था, आज उनके लिए एक अलग मंत्रालय है।
आरक्षण का नहीं मिल रहा लाभ, फॉरवर्ड-बैकवर्ड को हटाया जाए
वक्ताओं ने कारीगर समाज की समस्याएं बताईं। उन्होंने कहा कि कारीगर समाज परंपरागत कौशल सर्टीफाइड नहीं है। यदि वो अपने परंपरागत कौशल के आधार पर कहीं काम भी करना चाहें तो उन्हें प्रमाणित करने के लिए सर्टिफिकेट चाहिए। परंपरागत काम करके जीविका चलाना मुश्किल हो रहा है। गरीबी के चलते हम अपने बच्चों को पढ़ा भी नहीं सकते। हम पिछड़े वर्ग में आते हैं पर हमें आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिल पाता। जब हमारी सही जनसंख्या ही नहीं मालूम है, तो आरक्षण का क्या मतलब है। आर्थिक-सामाजिक जनगणना 2011 में जाति रिपोर्ट नहीं सार्वजनिक की गई। उच्च-पिछडों को आरक्षण के दायरे से हटाया जाना चाहिए। इन्हीं लोगों ने पिछड़े वर्ग के पूरे 27 प्रतिशत पर कब्जा कर रखा है।

कारीगरों के साथ न लेफ्ट, न राइट
अनेक वक्ताओं ने कहा कि हमें कोई लेफ्ट और राइट पार्टी सपोर्ट नहीं कर रही है। हमने 2005 में यूपीए सरकार को अपना सिफारिश पत्र दिया था। न ही भाजपा जैसी दक्षिणपंथी पार्टी। उन्होंने कहा कि हम लोगों ने भाजपा को अपनी पार्टी माना था। भाजपा ने 2012 में आश्वासन दिया था कि हम सत्ता में आएंगे, तो आर्टीजन के लिए अलग मंत्रालय, विकास बोर्ड और कमीशन बनाएंगे। कार्टीजन समाज ने उन्हें 2014 में वोट किया। पर सत्ता में आने के बाद वो अपने वादे से मुकर गए, धोखा दे दिया।
व्ही. विश्वनाथन आचारी ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में बताया कि मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने आर्टीजन आयोग सोशल वेलफेयर के तहत बनाया है। आचारी ने कहा कि ‘मजदूर कारीगर किसान’ नारे में से कारीगर एकाएक गायब कर दिया गया। आज उसकी कहीं कोई बात नहीं होती न उसके लिए कोई योजना है न बजट है। उन्होंने कहा कि सरकार ने जानबूझकर कारीगर को मजदूर में विलीन कर दिया। जबकि, कारीगर हुनरमंद शिल्पी हैं; मजदूर नहीं। मजदूर वह है, जो सिर्फ कान और हाथ का इस्तेमाल करता है; वह भी किसी के हुक्म पर। जबकि कारीगर अपने आंख हाथ दिल व दिमाग का इस्तेमाल स्वतंत्र रूप से करता है। कारीगर के लिए कला पहली प्राथमिकता होती है, पैसा दूसरी। विश्वनाथन आचारी कहते हैं हम हर चीज की बाउंड़्री तोड़ना चाहते हैं। पहले हमने विश्वकर्मा जाति की बाउंड्री तोड़ी। फिर हमने उत्तर भारत दक्षिण भारत की बाउंड्री तोड़ी। हमने विश्वकर्मा समुदाय की पांचों उपजातियों को एक करने के बाद किनारे से कई जातियों को अपने साथ जोड़ा है।
आर्टीजन संस्कृति के फारवर्ड प्रेस के सवाल पर विश्वनाथन आचारी इसे सिरे से टाल गए। उन्होंने कहा कि हम कला की भाषा जानते हैं। हमारी जबानी भाषा अलग हो सकती है पर कला की भाषा एक है। जबकि पी.एन. शंकरन ने कहा कि इसके लिए गहरे अध्ययन की आवश्यकता, ताकि हमारी संस्कृति की सांझी विशेषताएं रेखांकित की जा सकें।
धरना पर बैठे लोगों ने कहा कि माइनोरिटी के नाम पर 15-1600 साल पहले आए मुसलमानों को उस्ताद योजना के तहत 200 करोड़ का बजट किया गया। जबकि, राष्ट्र के निर्माण में पैतृक कारीगर समुदाय का योगदान है। हम मूल निवासी ही असली और आनुवांशिक कारीगर हैं सरकार ने उन्हें किनारे कर दिया।
‘मेक इन इंडिया’ से कारीगरों को कोई फायदा नहीं
भोपाल मध्य प्रदेश से आए सी.आर. विश्वकर्मा ने कहा- “मेरे बाप-दादा लोहारी का काम करते थे, लेकिन परंपरागत व्यवसाय खत्म हो चुका है। आज मैं भवन निर्माण के काम से जुड़ गया हूं। जो लोग अभी भी परंपरागत पेशे को अपनाए हुए हैं उन्हें काम नहीं मिल पा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों से काम खत्म हो गया है। लोगों को रोटी-रोजी के लिए दर दर भटकना पड़ रहा है। सरकार से हमारी अपील है कि वो अलग मंत्रालय बनाए और काम दे। मेक इन इंडिया से कारीगरों को कोई फायदा नहीं।”
भारतीय मनिहार संघ के अध्यक्ष राधेश्याम मालचा ने बताया कि वह चूड़ी बनाने और बेचने का काम करते हैं। वह कहते हैं कि कृष्ण की मां कहा करती थी कि- ‘मेरे यार के तीन यार, तेली, धोबी और मनिहार।’ राधेश्याम मनिहार जाति को ‘फीमेल कास्ट’ कहते हैं। उनके दोनों बेटे भी यही काम करते हैं। उन्होंने कहा कि आज हर कोई जनरल स्टोर की दुकानें खोलकर बैठ गया है, जिससे हमारा पुश्तैनी धंधा मंदा पड़ गया है। हमें सब्सिडी भी नहीं मिलती। पति-पत्नी मिलकर भी महीने 5-7 हजार-से-ज्यादा नहीं कमा पाते हैं।
बुलंदशहर के राम अवतार विश्वकर्मा लकड़ी पर शिल्पकारी का काम करते हैं। वह महपुरुषों की मूर्ति (धड़ के ऊपर का हिस्सा) बनाते हैं और अपने साथ स्वामी दयानंद की एक मुखाकृति भी लाए। इसे बनाने में उन्हें करीब महीने भर का समय लगा है। वह जैन समाज के लिए रथ भी बनाते हैं। वह बताते हैं कि मेरे बाद ये काम खत्म है, क्योंकि मेरे परिवार में अब इसे कोई अपनाना या आगे बढ़ाने का इच्छुक नहीं है; क्योंकि, इसमें ज्यादा कमाई नहीं होती है।

वर्ष 2012 में बने ऑल इंडिया यूनियन ऑफ ऑर्टिजन यूनियन के एडवाइजर 60 वर्षीय डी. तन्कप्पन बताते हैं कि न्यू ट्रेड यूनियन इनीशिएटिव के नाम से उन्होंने अपनी ट्रेड यूनियन भी बनाई थी।
फॉरवर्ड प्रेस ने उनसे पूछा कि “ट्रेड यूनियन तो सिर्फ फैक्ट्री के मजदूरों की बात करती है। सफाईकर्मी या दूसरे कामगारों के नाम पर वे (यूनियन वाले) मुंह बिचका लेते हैं?”
तो जवाब में उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों के साथ मेरा नाम मत लीजिए। मैंने 1995 में असंगठित क्षेत्र के लोगों के लिए 1995 में ट्रेड यूनियन बनाई थी। हमने जाति आधार पर भी संगठन बनाने का निर्णय लिया। क्योंकि, उनका प्रतिनिधित्व नहीं है।

आर्टीजन वेलफेयर आर्गेनाइजेशन केरल के अध्यक्ष पी.पी. बालान ने कहा कि यह जाति आधारित नहीं, वर्ग आधारित एकता है। जैसा कि किसानों में है। हमने केरल, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक सरकार और राष्ट्रपति के पास सिफारिश भेजी है कि मानव विकास और कृषि उपकरण बनाकर देने वाले 43 फीसदी कारीगरों के लिए कोई मंत्रालय नहीं है। सरकार हमारी समस्याओं का अध्ययन करके हमारे लिए योजनाएं बनाए।
डॉ. पी.एन. शंकरन ने फॉरवर्ड प्रेस को जो मांगें बताईं वे इस प्रकार हैं-
- वर्ष 2005 में योजना आयोग ने कारीगरों के लिए अलग मंत्रालय बनाने की सिफारिश की थी।
- कारीगर समाज के लिए अलग आर्टीजन डेवलपमेंट बोर्ड गठित करने की बात भी कही थी।
- खादी और ग्रामोद्योग आयोग को अलगाकर एक अलग आर्टीजन कमीशन गठित करे, जैसा कि 2001 में योजना आयोग ने सिफारिश की थी।
- परंपरागत विज्ञान और तकनीकि के लिए अलग यूनिवर्सिटी स्थापित की जाए।
- कारीगरों को प्रोत्साहित करने और रोजगार देने के लिए मनरेगा मॉडल की तर्ज पर एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की घोषित की जाए।
- कारीगर समुदाय के एक सदस्य को भारत सरकार के राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य मोननीत की जाए।
- कारीगर समुदाय के एक सदस्य को राज्यसभा, गवर्नर आदि के लिए मनोनीत किया जाए।
- ओबीसी के अंदर ‘मोस्ट बैकवर्ड क्लास’ बनाया जाए और 27 प्रतिशत में हमें ज्यादा हिस्सा दिया जाए।
धरना में बढ़ई, लोहार, ताम्रकार, स्वर्णकार, शिल्पकार, बुनकर प्रजापति, कुम्हार, बसोड़, चर्मकार, मनिहार, घुमन्तू कारीगर, रजक, नाई आदि आर्टीजन जाति समूह के लोग शामिल हुए। इसके साथ ही इसमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, केरल, दिल्ली, छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र के कई संगठन शामिल हुए। कार्यक्रम का समर्थन जांगिड़ ब्राह्मण महासभा (नई दिल्ली), भारतीय बढ़ई समाज (उ.प्र.), महाराष्ट्र लोहार समाज संगठन (महाराष्ट्र), भारतीय स्वर्णकार समाज (नई दिल्ली), छत्तीसगढ़ लोहार एकता मंच (बस्तर), अखिल भारतीय स्वर्णकार संघ (दिल्ली), भारतीय कारीगर मंच (दिल्ली), बढ़ई समाज दिल्ली, पंचाल समाज नरेला (नई दिल्ली), पटवा समाज (नई दिल्ली) आदि ने भी किया।
(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी)
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