इटानगर : नागरिकता के सवाल पर पूर्वोत्तर के राज्यों में आग बुझने के बजाय फैलती ही जा रही है। अब अरुणाचल प्रदेश में स्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र (परमानेंट रेसीडेंट सर्टिफिकेट) के सवाल पर वहां के मूल निवासियों और वर्षों से रह रहे अन्य प्रदेशों के लोगों के बीच ठन गई है। बीते 21 फरवरी को हुई हिंसा के दौरान 8 लाेगों के मारे जाने की भी सूचना है। हिंसक विरोध को देखते हुए राज्य के मुख्यमंत्री पेमा खांडु ने गैर-अरुणाचल जनजातियों के लोगों को राज्य की नागरिकता प्रदान करने संबंधी निर्णय को वापस लेने का निर्णय लिया है।
हालांकि मिली जानकारी के अनुसार, इस संबंध में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह और आसाम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने अपनी आपत्ति से मुख्यमंत्री पेमा खांडु को अवगत कराया था। बताया जा रहा है कि उनकी आपत्ति को देखते हुए भी श्री खांडु को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा है।

24 फरवरी 2019 को उन्होंने इसकी औपचारिक घोषणा की। समाचार एजेंसी एएनआई के अनुसार, पेमा खांडु ने कहा, ‘’22 फ़रवरी की रात को मैंने मीडिया तथा सोशल मीडिया के ज़रिये स्पष्ट किया था कि सरकार इस मुद्दे पर आगे चर्चा नहीं करेगी। आज भी मुख्य सचिव की मार्फ़त एक आदेश जारी किया गया है कि हम पीआरसी मामले पर आगे कार्यवाही नहीं करेंगे।”
क्या है पीआरसी और क्यों हो रहा इसका विरोध?
दरअसल, पीआरसी एक सरकारी प्रमाणपत्र है, जिसके आधार पर राज्य के स्थायी निवासियों को सरकारी कार्यालयों में जन सुविधाएं और सेवाएं उपलब्ध करायी जाती हैं। अरुणाचल प्रदेश के स्थायी निवासी इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि यह प्रमाणपत्र गैर अरुणाचल जनजातियों को दी जाती है तो यह यहां के स्थायी निवासियों के हितों पर कुठाराघात होगा। उनके मुताबिक अरुणाचल प्रदेश में पहले से ही रोजगार की भारी कमी है और बड़ी संख्या में युवा बेरोजगार हैं।
छह गैर अरुणाचल जनजातियों को स्थायी नागरिकता देने का सवाल
बताते चलें कि अरुणाचल प्रदेश में राज्य सरकार ने पहले छह जनजातियों के लोगों को पीआरसी देने का निर्णय लिया था। इनमें आदिवासी, मोरान, देवरी, मिसिंग, कचारी और अहोम जनजाति के लोग शामिल हैं। ये अरुणाचल के दो पहाड़ी चांगलांग और नमसाई जिलों में रहते है। इनमें गोरखा समुदाय के लोग भी शामिल है, इन्हें राज्य में अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त नहीं है। जबकि आदिवासी समुदाय को टी-ट्राइब समुदाय से भी जाना जाता है। दार्जिलिंग, असम और अरुणाचल में चाय के बागानों में काम करने के लिए अंग्रेजों ने बिहार, ओडिशा और बंगाल से आदिवासी लोगों को लेकर आए थे। पूर्वोत्तर में ये आदिवासी टी- ट्राइब के तौर जाने जाते है। इन सभी 6 समुदायों को आसाम में अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है।
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इन अस्थाई गैर-अरुणाचल जनजातीय समुदायों को स्थायी निवासी का दर्जा देने के लिए राज्य के पर्यावरण मंत्री नाबाम रीबिया के नेतृत्व में एक संयुक्त उच्च स्तरीय सीमित का गठन किया था। समिति ने राज्य मंत्रिमंडल को पीआरसी का दर्जा देने की सिफारिश की थी।
दरअसल, समिति ने 1968 को कट ऑफ ईयर रखने की सिफारिश की है। इन समुदायों के व्यक्तियों और उनके परिवार जो 1968 से पहले से राज्य में रह रहे है, को स्थाई निवासी का दर्जा दिया जा सकता है। ये 6 समुदाय राज्य में कई दशकों से अस्थायी निवासी के तौर पर रह रहे है। इनमें असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल का समुदाय सोनोवाल-कचारी भी है।
घोषणा के साथ ही शुरू हो गया विरोध
समिति की इस सिफारिश को राज्य मंत्रिपरिषद ने 20 फरवरी को स्वीकति दी और इस संबंध में एक विधेयक राज्य विधानसभा में 21 फरवरी को पेश किए जाने पर सहमति बनी। लेकिन इसके साथ ही इसका विरोध भी शुरू हो गया।

मूल निवासी जनजातीय समुदाय के 18 छात्र और नागरिक समाज संगठनों ने 21 फरवरी की शाम को राज्य में 48 घंटे का बंद की घोषणा कर दी। अगले दिन 22 फरवरी की शाम होते-होते राज्य में विभिन्न जगहों पर व्यापक तोड़-फोड, आगजनी और नेताओं पर हमले होने की खबरें आने लगीं। राजधानी इटानगर समेत आधा दर्जन जिलों में कर्फ्यू लगा दिया। 23 फरवरी को बेकाबू भीड़ ने कर्फ्यू को तोड़ते हुए राजधानी में सचिवालय, पुलिस स्टेशनों और सरकारी कार्यालयों पर धावा बोल दिया। प्रदर्शनकारियों को काबू में लाने के लिए भारी मात्रा में पेलेट गन और गैस के गोले और वाटर कैनन का इस्तेमाल स्थानीय प्रशासन द्वारा किया गया। इसके बावजूद उपमुख्यमंत्री चॉउन मेइन और पीआरसी समिति के अध्यक्ष और पर्यावरण मंत्री नेबाम रिबिया के निजी घरों को आक्रोशित भीड़ ने तोड़-फोड़ की। तीन दिनों के विरोध के दौरान 8 लोगों के मारे जाने की सूचना मिली है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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