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बलात्कार : पीड़ा की हार

भारतीय दंड संहिता में ऐसे प्रावधान हैं जिनके कारण बलात्कारी बच निकलते हैं। जबकि पीड़िता को समाज और परिवार में पीड़ा ताउम्र झेलनी पड़ती है। यह स्थिति आज भी है

(सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता चर्चित लेखक अरविंद जैन की किताब ‘औरत होने की सजा’ को हिंदी के वैचारिक लेखन में क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। यह किताब भारतीय समाज व कानून की नजर में महिलाओं की दोयम दर्जे को सामने लाती है। इसका पहला प्रकाशन ‘विकास पेपरबैक’, नई दिल्ली से 1994 में हुआ था। 1996 में इसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। अब तक इसके

25 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। स्त्रीवाद व स्त्री अधिकारों से संबंधी अध्ययन के लिए यह एक आवश्यक संदर्भ ग्रंथ की तरह है। हम अपने पाठकों के लिए यहां इस किताब को हिंदी व अंग्रेजी में

अध्याय-दर-अध्याय सिलसिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। फारवर्ड प्रेस बुक्स की ओर से हम इसे अंग्रेजी में पुस्तकाकार भी प्रकाशित करेंगे। हिंदी किताब राजकमल प्रकाशन के पास उपलब्ध है। पाठक इसे अमेजन से यहां क्लिक कर मंगवा सकते हैं।

लेखक ने फारवर्ड प्रेस के लिए इन  लेखों को विशेष तौर पर परिवर्द्धित किया है तथा पिछले सालों में संबंधित कानूनों/प्रावधानों में हुए संशोधनों को भी फुटनोट्स के रूप में दर्ज कर दिया है, जिससे इनकी प्रासंगिकता आने वाले अनेक वर्षों के लिए बढ गई है।

आज पढें, इस किताब में संकलित ‘बलात्कार : पीड़ा की हार’ शीर्षक लेख। इसमें बलात्कार पीड़िताओं और बलात्कारियों के बच निकलने के संबंध में कानूनी प्रावधानों और पेचीदगियों के बारे में जानकारी दी गयी है – प्रबंध संपादक)


  • अरविंद जैन

जिस महिला के साथ बलात्कार होता है, वह कौमार्य अथवा सतीत्व-भंग की क्षति ही नहीं सहती, गहन भावनात्मक दंश, मानसिक वेदना, भय, असुरक्षा और अविश्वास प्रायः आजीवन उसका पिंड नहीं छोड़ते। ऐसी महिलाएं अपना दुखड़ा अंतरंग-से-अंतरंग के समक्ष भी रो नहीं पातीं। वक्त के साथ-साथ उनका एकाकीपन भी बढ़ता जाता है और जीवन का बोझ भी, जबकि बलात्कारी पीड़ित महिला के साथ-साथ अक्सर न्याय-व्यवस्था का भी शीलभंग करने में सफल हो जाता है, और दोनों में से कोई भी उसका बाल तक बांका नहीं कर पाता। 

रफीक बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के मामले सुप्रीम कोर्ट केसेज, 1980 (भाग 4) पृष्ठ 262 में न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर और ओ.चिनप्पा रेड्डी ने अपने निर्णय में जो कहा है उसका तात्पर्य यह है कि न्यायिक समाधान कानूनी संकीर्णता से अधिक भोंडे़ नहीं होने चाहिए।

बलात्कार के मुकदमों में अधिकांश अभियुक्त पैसे के बल पर योग्य वकील ढूंढ़ता है, जो उसे कानूनी शिकंजे से निकाल ले जाने का कोई-न-कोई रास्ता खोज ही निकालता है क्योंकि न्याय और कानून में बच निकलने के तमाम रास्ते बाकायदा मौजूद हैं।

अक्सर देखा गया है कि अभियुक्त सारा अपराध पीड़िता के सिर मढ़ देता है और कहता है कि जो कुछ हुआ उसकी मर्जी अथवा सहमति से हुआ। अपने बचाव के लिए वह प्रत्यारोप तक लगा देता है कि पीड़िता संभोग की आदी थी या बदचलन थी। परिणाम यह होता है कि तर्क हर बार जीत जाता है और पीड़ा हार जाती है।

समाज कल्याण मंत्रालय के लिए तैयार की गई जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो.वी. राघवन द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश बलात्कारी बिना दंडित हुए ही छूट जाते हैं। तीन से छह महीने के बीच अभियुक्त का समाज में पुनर्वास भी हो जाता है। पुनर्वास के साथ ही वह पीड़ित पक्ष से बदला लेने की स्थिति में हो जाता है।

बलात्कार की शिकार और अदालती कार्यवाही को प्रदर्शित करती एक पेंटिंग (साभार : एशियानेट न्यूजटेबल)

समाज और अदालत में होनेवाली बदनामी और परेशानी से बचने तथा घर और परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए बलात्कार के अधिकांश मामले दबा दिये जाते हैं। हरपाल सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश (आल इंडिया रिपोर्टर 1981, सर्वोच्च न्यायालय 361) के मामले में 20-21 अगस्त, 1972 की रात हुए बलात्कार की रिपोर्ट 10 दिन बाद, यानी 31 अगस्त 1972 को लिखायी गयी। इस विलंब के संदर्भ में पीड़ित लड़की का कहना था, ‘‘चूंकि यह मामला परिवार की प्रतिष्ठा का था, इसलिए परिवार के सदस्यों को तय करना था कि इस मामले को अदालत तक ले जाया जाये या नहीं।’’ देरी के कारण को उचित ठहराते हुए न्यायमूर्ति फजल और ए.डी.कौशल का कहना था कि ‘‘जवान लड़की के साथ बलात्कार होने पर, इस तरह की देरी स्वाभाविक है।’’

 वास्तव में बलात्कार से अधिक बलात्कार होने का एहसास तब होता है जब मुकदमे के दौरान भरी कचहरी में विरोधी वकीलों के तर्कों का जवाब देना पड़ता है। ऐसी हालत में खुद बलात्कार की शिकार महिला हो या गवाह, दोनों टूट जाते हैं।

इन बातों का व्यापक असर यह हुआ है कि आज महिलाओं के विरुद्ध अपराध बढ़ रहे हैं। आये दिन समाचार-पत्रों में प्रकाशित समाचारों से यह बात और स्पष्ट होती है। 1970 से 1985 तक बलात्कार के मामलों में दुगुनी वृद्धि हुई है। 1985 में 6,189 मामले बलात्कार के, 13,952 मामले छेड़खानी के, 7652 मामले अपहरण के और 802 मामले दहेज के दर्ज हुए। 1986 में अकेले मध्य प्रदेश में जुलाई तक 904 मामले बलात्कार के दर्ज किये गये थे। देश-भर में 1989 में 7,859 बलात्कार, 11,126 अपहरण, 16,683 छेड़छाड़ के मुकदमे दर्ज हुए। 1990 में 9,515 बलात्कार, 20,186 छेड़छाड़ और 11,689 अपहरण के दर्ज हुए। 1979-80 में पुलिस हिरासत में बलात्कार के 58 मामले सामने आए लेकिन सजा सिर्फ 14 ही मामलों में हुई। 1991 के साल में 25,000 से अधिक बलात्कार, छेड़छाड़ और अपहरण के मुकदमे दर्ज किए गए। अकेले दिल्ली में 1991 में 214, 1992 में 276 बलात्कार के मामले सामने आए। पिछले तीन साल (1992-94) में 978 बलात्कारियों में से सिर्फ पांच को सजा हुई (इंडियन एक्सप्रेस, 12 मई 1995)। ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा बलात्कार के मामले अधिक दर्ज होते हैं। (राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो द्वारा जारी अद्यतन आंकड़ों के लिए यहां क्लिक करें)

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हाल ही में प्रकाशित कुछ समाचारों से अधिक चिंताजनक प्रतीत होती है जनकपुरी में छह वर्ष की लड़की का बलात्कार, अंधी कालेज छात्रा से बलात्कार, दो वर्षीय बच्ची से बलात्कार के बाद हत्या, दक्षिणपुरी में तीन वर्षीय बालिका से बलात्कार, पिता द्वारा सौतेली बेटी से बलात्कार, तीस हजारी कोर्ट में वकील द्वारा अपनी महिला मुवक्किल से बलात्कार, भोपाल में एक कांग्रेसी विधायक द्वारा मदद मांगने आई अध्यापिका से बलात्कार आदि शीर्षक चैंकाते तो हैं ही, इस धारणा का भी खंडन करते हैं कि अधिकतर बलात्कार निम्न वर्ग के पेशेवर अपराधी ही करते हैं। सामाजिक-आर्थिक विषमता के परिवेश में साधन संपन्न व्यक्तियों द्वारा भी कमजोर वर्ग की महिलाओं पर बलात्कार के मामले निरंतर बढ़ रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले अपराधों में पुलिस की भूमिका कम संदिग्ध नहीं होती क्योंकि उन पर हाथ डालने पर पुलिस पर राजनीतिक दबाव भी पड़ सकता है।

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा-375 (6) के अनुसार किसी भी पुरुष द्वारा सोलह वर्ष से कम उम्र की महिला की सहमति या असहमति से उसके साथ सहवास करना बलात्कार है, लेकिन धारा-375 के अपवाद में प्रावधान है- ‘‘अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र पंद्रह साल से कम न हो, के साथ सहवास करना बलात्कार नहीं है।[1]

सोलह वर्ष से कम उम्र की महिला के साथ बलात्कार करने की सजा कम-से-कम सात साल कैद जो आजीवन कैद भी हो सकती है, या दस साल तक कैद और जुर्माना है, लेकिन अपनी ही पत्नी (जिसकी उम्र बारह से अधिक मगर पंद्रह से कम हो) से बलात्कार की सजा में विशेष छूटदी गई है। इसके लिए सिर्फ दो साल तक कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। (धारा-376 भारतीय दंड संहिता, 1860)[2]

भारतीय दंड संहिता की धारा-376-ए में यह प्रावधान तो है कि अगर पत्नी अदालत द्वारा अलग रहने की डिक्री या रिवाज या परंपरा के तहत पति से अलग रह रही है तो पति द्वारा अपनी पत्नी से संभोग दंडनीय अपराध माना जायेगा जिसके लिए उसे दो साल तक कैद और जुर्माना हो सकता है। लेकिन जो महिलाएं दहेज, अत्याचार, उत्पीड़न या अन्य किसी कारण से पति से अलग रह रही हैं और जिन्हें अभी कानूनी तलाक या अलग रहने की डिक्री नहीं मिली है, उन पर यह प्रावधान लागू ही नहीं होता। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि पति चाहे तो उसके साथ जबरदस्ती कर सकता है और ऐसा करना कानूनन बलात्कार या दंडनीय अपराध नहीं है?

इन कानूनी धाराओं के अंतर्विरोधों और विसंगतियों के कारण भारतीय समाज में नारी की स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर हुई है। यहां सवाल सिर्फ उम्र कम या ज्यादा करने का नहीं; बल्कि यह भी है कि विवाहित महिला को कानून व्यक्ति मानने की बजाय पति की संपत्ति क्यों मानता है? यह कैसा कानून है कि पति जब चाहे, जैसे चाहे पत्नी का शारीरिक उपभोग (शोषण) करे, भले ही पत्नी बीमार हो या गर्भवती या उसकी इच्छा हो या नहीं? भारतीय परिप्रेक्ष्य में सदियों पहले अंग्रेजी सरकार द्वारा बनाये गये ये कानून, हो सकता है उस समय के समाज के अनुकूल हों लेकिन क्या आज के समय में ये पूर्णतया अर्थहीन और नारी-विरोधी नहीं लगते?

यही नहीं, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा-155(4) में आज भी यह प्रावधान है कि गवाह की विश्वसनीयतासमाप्त करने के लिए आवश्यक है- ‘‘अगर किसी व्यक्ति पर बलात्कार या बलात्कार करने का प्रयास करने का आरोप हो तो उसे यह सिद्ध करना चाहिए कि पीड़िता आमतौर से अनैतिक चरित्र की महिला है’’[3]  यानी कानून के इस प्रावधान की छत्रछाया में क्या हर किसी को यह कानूनी अधिकार नहीं है कि वह वेश्याओं, कालगर्ल या चरित्रहीन औरतों के साथ जब चाहे बलात्कार कर सकता है या बलात्कार करने के बाद किसी भी महिला को अनैतिक चरित्र की औरत प्रमाणित करके मूंछों पर ताव देते हुए अदालत से बाइज्जत रिहा होकर बाहर आ सकता है?

सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री.वी.आर. कृष्ण अय्यर ने (रफीक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (1980) 4, सुप्रीम कोर्ट केस सं. 262) अपने निर्णय में लिखा है, ‘‘कोई भी प्रतिष्ठित महिला किसी पर भी बलात्कार का आरोप नहीं लगायेगी क्योंकि ऐसा करके वह जो बलिदान करती है वही तो उसे सबसे प्रिय है इसलिए बलात्कार मानवीय गरिमा के विरुद्ध संगीन अपराध के रूप में लिया जाना चाहिए।’’ यहां वीमेन आफ आनरयानी प्रतिष्ठित महिला की परिभाषा में वेश्या, कालगर्ल या चरित्रहीन औरतें शामिल नहीं हैं और न ही वे गरीब, हरिजन और आदिवासी औरतें, जो बिना किसी मानवीय गरिमाया किसी भी गरिमाकी निर्धनता-रेखा से नीचे जी रही हैं।

1972 में प्रमिला कुमारी रावत के साथ तीन व्यक्तियों ने बलात्कार किया। उस समय प्रमिला गर्भवती थी। अदालत ने (आल इंडिया रिपोर्टर 1977 सर्वोच्च न्यायालय 1307) अपने निर्णय में कहा कि प्रमिला रखैलथी, संभोग की आदी थी, उसने कोई चीख-पुकार नहीं मचाई, बलात्कार के बावजूद गर्भपात तुरंत नहीं, 4-5 दिन बाद हुआ। (अतः) लगता है, इन परिस्थितियों में जो कुछ हुआ, उसकी मर्जी अथवा सहमति से हुआ, या फिर उसमें उसके पति की भी मिलीभगत थी। परिणामस्वरूप तीनों अभियुक्त बरी हो गये।

बहुचर्चित मथुरा केस में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध देश की अधिकांश महिलाओं द्वारा विरोध जताने पर 1983 में बलात्कार-संबंधी कानून में संशोधन करना पड़ा। फलस्वरूप इसके बाद बलात्कार संबंधी मामलों में न्यायिक दृष्टि से भी कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ा। 1983 में एक मुकदमे का फैसला देते हुए न्यायमूर्ति ए.पी.सेन और एम.पी.ठक्कर ने कहा कि ‘‘वर्तमान भारतीय परिवेश में जब भी कोई महिला या लड़की बलात्कार के मामले को सामने लाती है तो वह निश्चित रूप से अपने परिवार, मित्रों, संबंधियों, पति, भावी पति आदि की नजरों में गिरने, घृणा की पात्र बनने जैसे खतरे उठाकर ही अदालत का दरवाजा खटखटाती है। ऐसे में संभावना अधिकतर इस बात की होती है कि यह मामला सच है, झूठा नहीं।’’

इसके विपरीत राममूर्ति बनाम हरियाणा (आल इंडिया रिपोर्टर 1970 सर्वोच्च न्यायालय 1029) के विवाद में सतनाम कौर, देव समाज स्कूल, अंबाला में 9वीं कक्षा की छात्रा थी, के साथ चार व्यक्तियों ने सप्ताह-भर तक बलात्कार किया। किंतु सर्वोच्च न्यायालय से सभी अभियुक्त इस आधार पर छूट गये कि सतनाम कौर संभोग की आदी थी और उसकी यौन-झिल्ली पहले से भंग थी। इसी तरह महादेव व रहीम बेग बनाम उत्तर प्रदेश (आल इंडिया रिपोर्टर 1973 सर्वोच्च न्यायालय 343) में एक 12 वर्षीय लड़की के साथ दो अभियुक्तों ने बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी। न्यायालय ने उन्हें इस आधार पर बरी कर दिया- ‘‘लंगोट पर मिले वीर्य के धब्बे अनिवार्य रूप से बलात्कार नहीं सिद्ध करते और उनके लिंगों पर भी किसी प्रकार के चोट का निशान नहीं है।’’

प्रश्न यह भी है कि शादीशुदा या संभोग की अनुभवी महिलाओं के साथ हुए बलात्कार को बलात्कार मानना कहां तक उचित है?

1983 में हुए संशोधनों के बावजूद बलात्कार के संदर्भ में कानूनी प्रावधान दोषपूर्ण हैं। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1983 में किये गये संशोधन के अनुसार धारा-114 (ए) में यह प्रावधान किया गया है कि धारा-376 (2) की उपधारा ए.बी.सी.डी. और जी. के अंतर्गत बलात्कार के मामले में यदि महिला अदालत में यह कहती है कि उसकी सहमति नहीं थी, तो अदालत को यह मानना पड़ेगा। लेकिन यह प्रावधान सिर्फ पुलिस, सार्वजनिक सेवा में रत व्यक्ति, जेल प्रबंधक, डाक्टर द्वारा बलात्कार या सामूहिक बलात्कार या महिला के गर्भवती होने की स्थिति में ही प्रभावी माना जायेगा। मगर इस हालत में भी मर्जीया सहमतिके आधार पर बच निकलने के रास्ते मौजूद हैं।

धारा-375 का एकमात्र अपवाद यह है कि पत्नी अगर 15 वर्ष से कम उम्र की नहीं है तो पति द्वारा अपनी पत्नी से किया जानेवाला संभोग बलात्कार नहीं है।[4]गर्भवती होने, माहवारी जारी होने या अस्वस्थता की स्थिति में पत्नी से उसकी मर्जी अथवा सहमति से संभोग का अधिकार सिर्फ उसके पति को है, पत्नी की व्यक्तिगत इच्छा का कोई अर्थ नहीं। पति जब चाहे पत्नी से अपनी काम-पिपासा की तुष्टि कर सकता है। पुरुष को प्राप्त यह अधिकार निश्चय ही अमानवीय और पाशविक है।

धारा-376 में ही यह भी प्रावधान है कि पुलिस, डाक्टर या सार्वजनिक पद पर नियुक्त पुरुष अपनी या अपने मातहत की निगरानी में रखी गई किसी भी महिला के साथ बलात्कार होने पर कम-से-कम 10 वर्ष या आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा का भागी हो सकता है, जो विशेष परिस्थितियों में ही कम हो सकती है। इस बावत, धारा-376 (2) में जिन स्थितियों की चर्चा की गई है, उनमें यद्यपि विशेष सुविधा किसी को नहीं मिली, पर वह पहले से अधिक व्यापक हुई हैं।

किंतु प्रश्न यह है कि महिला विवेचित पुरुष या उसके मातहत की निगरानी में होने के बजाय उसके वरिष्ठ अफसर की निगरानी में हो और उसके साथ कनिष्ठ अफसर या कोई अन्य व्यक्ति बलात्कार करे तो बलात्कारी पर यह प्रावधान लागू नहीं होगा। यहीं यह भी देखने की आवश्यकता है कि पुलिस या सार्वजनिक पद पर नियुक्त व्यक्ति की निगरानी में होते हुए अगर किसी महिला के साथ कोई अन्य व्यक्ति बलात्कार करता है, तो उस व्यक्ति की क्या जिम्मेदारी है जिसकी निगरानी में उक्त महिला के साथ बलात्कार हुआ?

धारा-375 में ही यह प्रावधान है कि 16 वर्ष से कम उम्र की महिला के साथ उसकी सहमति या इच्छा के विरुद्ध कोई पुरुष संभोग करता है तो यह बलात्कार कहा जायेगा। परंतु अभी तक न्यायालयों के सामने आये विभिन्न मुकदमों के निर्णयों से पता चलता है कि अधिकांश मामलों में अपराधी इसलिए बच जाते हैं कि लड़की की उम्र के बारे में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हो पाता। शादी के सब्जबाग दिखाकर संभोग की सहमति पाने पर भी कुकर्मी के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की जा सकती।

अदालतों में यह प्रमाणित करना कठिन होता है कि पीड़िता की उम्र सचमुच 16 वर्ष से कम है। इसका लाभ भी निश्चय ही अभियुक्त को मिलता है। जहां उम्र के बारे में एक्स-रे रिपोर्ट नहीं प्रस्तुत की जाती, वहां भी संदेह का लाभ अभियुक्त को ही मिलता है।

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक निर्णय में कहा गया है कि जन्मतिथि के संदर्भ में स्कूल के प्रमाण-पत्र पर विश्वास नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर राजस्थान उच्च न्यायालय का कहना है कि जन्म प्रमाण-पत्र ही एक विश्वसनीय प्रमाण है। असम उच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा है कि उम्र के बारे में डाक्टर का साक्ष्य मात्र राय से अधिक कुछ नहीं है। एक मुकदमे में डाक्टरी साक्ष्य था कि लड़की की उम्र 16 वर्ष से कम है, जबकि न्यायालय का निर्णय था कि ‘‘यह सिर्फ अनुमान है, उम्र इससे भी अधिक हो सकती है।’’

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपने तीन निर्णयों में भी कहा है कि ‘‘डाक्टर की राय शारीरिक परीक्षण के बावजूद सही उम्र नहीं बता सकती।’’ ओसीफिकेशन टेस्ट पर आधारित डाक्टर की निष्पत्ति महज राय है, जन्म-प्रमाण पत्र पूर्णतः विश्वसनीय नहीं है और स्कूल का प्रमाण-पत्र भी सर्वमान्य नहीं है। फिर भरोसा किस प्रमाण पर किया जाये और अभियुक्त को इस आधार पर दंड कैसे दिलाया जाये कि उसने 16 वर्ष से कम आयु की लड़की से कुकर्म किया है?

विभिन्न उच्च न्यायालयों ने अपने निर्णयों में कहा है कि ओसीफिकेशन टेस्ट प्रासंगिक हैं लेकिन अपने आपमें यह मान्य प्रमाण नहीं है। वर्तमान सामाजिक परिवेश में जहां अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, वहां ऐसा निर्णय कहां तक उचित है?

फूल सिंह बनाम हरियाणा सरकार (आल इंडिया रिपोर्टर 1980 सर्वोच्च न्यायालय 249) के मामले में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर का यह विचार सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है जिसमें कहा गया है कि आधुनिक भारत की सामाजिक स्थितियां तेजी से बदल रही हैं और अश्लील साहित्य, अविवाहित छात्र-छात्राओं का लुके-छिपे मिलने-जुलने, फिल्मों में निर्बाध यौन-प्रदर्शन और सेक्स के प्रति पैमाने बदल रहे हैं। समाज में अदंडित अपराधी बहुत अधिक हैं और नारी-शरीर तथा पवित्रता को लेकर कोई संतोषजनक राष्ट्रीय योजना नहीं है। अतः मात्र कुछ अपराधियों को दंडित करने और वार्षिक अभियानों के बदौलत कानून में अधिक जड़ता आयेगी जबकि बुराई व्यापक रूप से फैली हुई है और बड़े अपराधी खुले घूम रहे हैं।

बहुचर्चित पड़रिया बलात्कार कांड में आरोपी पुलिसवालों की रिहाई का फैसला देते हुए न्यायाधीश ओ.पी.सिन्हा ने फैसले में लिखा है, ‘‘इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि ये औरतें 1000 रुपये, जो उनके लिए एक बहुत बड़ी रकम है, पाने के लिए झूठ बोल सकती हैं।’’ मुकदमे में बहस के दौरान वकीलों का भी तर्क था, ‘‘इन महिलाओं की तुलना सभ्य और प्रतिष्ठित समाज की महिलाओं से नहीं की जा सकती, ये महिलाएं नीच काम में शामिल थीं और इनका चरित्र संदिग्ध है।’’

इससे पूर्व मथुराकेस में भी पुलिसवालों को बाइज्जत रिहा करने का यही आधार था और पिछले साल हरियाणा की सुमनके साथ हुए बलात्कार में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुलिसवालों की सजा दस साल से घटाकर पांच साल सिर्फ इसी आधार पर की गयी कि वह लड़की संदिग्ध चरित्रकी थी।

सुमन-बलात्कार केस में पुलिस पक्ष की ओर से पैरवी मानव अधिकारों के प्रसिद्ध चैंपियन श्री गोविंद मुखौटी ने की थी। पत्र-पत्रिकाओं में जब इस निर्णय की तीखी आलोचना हुई तो श्री मुखौटी को सार्वजनिक रूप से माफी भी मांगनी पड़ी थी और पी.यू.डी. के अध्यक्ष की कुर्सी से इस्तीफा भी देना पड़ा था।

इस संदर्भ में महिला संगठनों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की गयी लेकिन पुनर्विचार के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला तो नहीं बदला, हां इतना स्पष्टीकरण जरूर दिया कि हमारे पूर्व फैसले का आधार लड़की का चरित्रहीन होना नहीं; बल्कि रिपोर्ट पांच दिन बाद करवाना है।

दिसंबर, 1989 में एक बार फिर महिला संगठनों ने प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को एक ज्ञापन दिया जिसमें बलात्कार-संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा-376 में उचित संशोधन की मांग की गई है। प्रधानमंत्री जी ने भी महिलाओं को आश्वासन देकर फिलहाल मामला टाल दिया लेकिन अखबारों में छपी रपट के आधार पर यह कहा जा सकता है कि महिला संगठनों को भी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या संशोधन किया जाये?

पुलिस हिरासत में बलात्कार के अपराध के लिए कम-से-कम दस साल जेल का प्रावधान होते हुए सुमन-केस में पांच साल की सजा क्यों? सजा कम करने की विशेष परिस्थितिक्या थी? क्या सिर्फ रपट लिखवाने में पांच दिन देरी की वजह से पांच साल सजा कम करना उचित है? हरपाल सिंह बनाम हिमाचल राज्य (ए.आई.आर.1981 सुप्रीम कोर्ट 361) में तो रपट दस दिन बाद लिखवाई गई थी और देरी को भी उचित मानते हुए माननीय न्यायाधीशों ने कहा था- ‘‘जवान लड़की के साथ बलात्कार होने पर, इस तरह की देरी स्वाभाविक है।’’ सुमन-केस में तो रपट लिखनेवाला भी वही पुलिस स्टेशन है जहां के सिपाहियों ने उसके साथ बलात्कार किया है।

पत्नी और वेश्या के साथ कानूनन बलात्कार का अधिकार देनेवाले उपरोक्त प्रावधानों के अलावा अन्य मामलों में भी अपराधी के बच निकलने के सैकड़ों लूप होलकानून और कानूनी व्याख्याओं में मौजूद हैं। सोलह वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ बलात्कार केस में सहमति या असहमति का तो सवाल नहीं है लेकिन लड़़की की उम्र प्रमाणित करना अति आवश्यक है। ‘‘उम्र प्रमाणित करने के लिए जन्म-प्रमाण-पत्र सबसे उत्तम प्रमाण है लेकिन दुर्भाग्य से इस देश में जन्म-प्रमाण-पत्र अधिकांश लोगों के पास उपलब्ध नहीं होता।’’

वयस्क और विवाहित महिलाओं के मामले में अधिकतर अपराधी इस आधार पर छोड़ दिये जाते हैं कि संभोग सहमति से हुआ क्योंकि महिला के वक्ष, नितंब या योनि पर कोई चोट के निशान नहीं हैं और महिला संभोग की आदी है। पुलिस द्वारा खोजबीन और गवाहियों में दस घपले, अदालत में बहस के दौरान कानूनी नुक्ते और अनेक खामियों से भरे मौजूदा कानूनों की वजह से ज्यादातर अभियुक्त बरी कर दिये जाते हैं।

मथुरा केस के बाद 1983 में हुए संशोधनों के बावजूद बलात्कार-संबंधित प्रावधान दोषपूर्ण है। उदाहरण के लिए धारा-376 में यह प्रावधान है कि पुलिस, डाक्टर या सार्वजनिक पद पर नियुक्त पुरुष अपनी या अपने मातहत की निगरानी में रखी गई किसी भी महिला के साथ बलात्कार करने पर कम-से-कम दस साल या आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा का भागी हो सकता है, जो विशेष परिस्थितियों में ही कम हो सकती है।

वर्तमान कानून भारतीय महिलाओं को कानूनी सुरक्षा कम देता है, आतंकित, भयभीत और पीड़ित अधिक करता है। कानून में संशोधन के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि समाज और न्यायाधीशों का दृष्टिकोण भी बदले। स्वतंत्रता के बाद सत्ताधारी वर्ग ने संसद में बैठकर अपने वर्ग-हितों की रक्षा के लिए राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर जितने नये कानून बनाये हैं उसकी तुलना में समाज, नारी, किसान, मजदूर और बाल-कल्याण के मामलों पर बनाये गये कानून बहुत ही कम हैं और जो कानून बनाये भी गये हैं वे बेहद अधूरे और दोषपूर्ण हैं। न जाने सरकार, अदालत, कानून, न्यायविद्, महिला संगठन और स्वयं महिलाएं आखिर कब तक गंूगी, बहरी और अंधी बनी रहेंगी? सब चुप क्यों हैं? कोई भी कुछ बोलता क्यों नहीं?

सुसन ब्राऊन मिलर (अगेंस्ट आवर विल: मैन, विमेन एंड रेप, 1975) का यह कहना सही है कि बलात्कार अपराध नहीं है, बल्कि पुरुषों द्वारा औरतों को इस खतरे का हौआ दिखाकर लगातार भयभीत रखना भर प्रतीत होता है। कुछ व्यक्तियों ने बलात्कार करके समस्त स्त्री-समाज को निरंतर मुट्ठी में रखने का मानो षड्यंत्र-भर रचा हुआ है।

बलात्कार शारीरिक तथा मानसिक रूप से नारी को लगातार एहसास कराता रहता है कि गलती उसी की है जबकि बलात्कार उस पर जबरन लादा जाता है। जब तक बलात्कार के संदर्भ में कानून और समाज का दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य नहीं बदलता, तब तक बलात्कार से पीड़ित नारी स्वयं समाज के कठघरे में अभियुक्त बनकर खड़ी रहेगी।

बलात्कार के कुछ मामले ऐसे हुए हैं जिनमें बच्चियों ने अपराधी की हत्या कर दी और बाद में अपने बचाव की बिना पर वे अदालत से बरी हुईं। भेड़ियों के समाज में बच्चियों को असुरक्षित और निहत्था छोड़ने के बजाय उन्हें जूडो, कराटे और गोली चलाना सिखाने या सीखने की जरूरत है क्योंकि अपनी सुरक्षा में, अपने बचाव में की गई हत्या कोई अपराध नहीं है [‘‘मौजूदा कानून-व्यवस्था में न्याय असंभव है’’- अरविंद जैन, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, 20 दिसंबर, 1992]

(कॉपी संपादन : इमामुद्दीन/नवल)

संदर्भ –

[1] 2013 में हुए संशोधन के अनुसार सहमती से संभोग की उम्र 16 साल से बढ़ा कर 18 कर दी गई लेकिन पत्नी के मामले में उम्र 15 साल ही रहने दी गई. बाद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता कि खंडपीठ ने (याचिका नंबर 382/2013 दिनांक 11 अक्टूबर, 2017) कहा कि 15 से 18 साल की पत्नी से सहवास को भी बलात्कार माना जायेगा. 18 साल से बड़ी उम्र कि पत्नी के साथ बलात्कार का कानूनी अधिकार अभी भी बना हुआ है. इसके बारे में कहना कठिन है कि न्यायिक विवेक कब सोचना शुरू करेगा!  https://www.sci.gov.in/supremecourt/2013/17790/17790_2013_Judgement_11-Oct-2017.pdf

[2] 2013 में हुए संशोधन के अनुसार अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र बारह साल से अधिक मगर पंद्रह साल से कम हो, से बलात्कार की सजा में पति को ‘विशेष छूट’ वाले इस प्रावधान को अब हटा दिया गया है.

[3] साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 155 (4) को 2003 में संशोधन करके हटा दिया गया है.

[4] 2013 में हुए संशोधन के अनुसार सहमती से संभोग की उम्र 16 साल से बढ़ा कर 18 कर दी गई लेकिन पत्नी के मामले में उम्र 15 साल ही रहने दी गई. बाद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता कि खंडपीठ ने (याचिका नंबर 382/2013 दिनांक 11 अक्टूबर, 2017) कहा कि 15 से 18 साल की पत्नी से सहवास को भी बलात्कार माना जायेगा. 18 साल से बड़ी उम्र कि पत्नी के साथ बलात्कार का कानूनी अधिकार अभी भी बना हुआ है. इसके बारे में कहना कठिन है कि न्यायिक विवेक कब सोचना शुरू करेगा!  https://www.sci.gov.in/supremecourt/2013/17790/17790_2013_Judgement_11-Oct-2017.pdf


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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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