पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस, गाजर घास, चटक चांदनी, कांग्रेस घास, गंधी बूटी और पंधारी के नाम से जाना जाने वाला यह पौधा संभवत: देश के हर हिस्से में मौजूद है। आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में भी इसके कारण खेती कुप्रभावित हो रही है। साथ ही जन-स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है।
अमेरिका से आया यह विषैला पौधा
इस विषैले पौधे का बीज 1950 में अमरीकी संकर गेहूं पी.एल.480 के साथ भारत आया। इसे सबसे पहले पूना में देखा गया। आज यह देश के लगभग सभी इलाकों में फैलता जा रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब, हरियाणा एवं महाराष्ट्र जैसे कृषि उत्पादक राज्यों के हजारों एकड़ क्षेत्र में यह फैल चुका है। इसे जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, दिल्ली, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, आन्ध्रप्रदेश, र्कनाटक, तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड, राजस्थान एवं केरल में भी देखा जा सकता है। वैसे, यह विषैला घास केवल भारत में ही नहीं है। इसकी बीस प्रजातियां अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज, चीन, नेपाल, वियतनाम और आस्ट्रेलिया सहित पूरे विश्व में पाई जाती हैं।
सरकारी उदासीनता से लोगों में निराशा
रांची में कार्यरत समाजिक संस्था अमर संस्कार कल्याण केंद्र के सचिव रवीश कुमार कहते हैं कि पार्थेनियम पर अभी तक सरकारी स्तर से कोई काम नहीं हुआ है। बोकारो इस्पात नगर से सटा गांव जैना के विकास कुमार महतो पार्थेनियम घास के बारे में इतना ही जानते हैं कि यह काफी खतरनाक पौधा है और इसे जानवर भी नहीं खाते हैं, मगर गलती से कोई जानवर इसे खा लेता है, तो वह बीमार पड़ जाता है, उसे कुछ देर में उल्टी होने लगती है।

एक दवा दुकानदार कमल सिंह इसका नाम नहीं जानते हैं लेकिन वे यह जानते हैं कि यह काफी खतरनाक पौधा है और हेल्थ के लिए काफी नुकसानदेह है। वहीं आदिवासी गांव जैना बस्ती के लोबेश्वर मांझी भी इसके दुष्प्रभाव से परिचित हैं, मगर उन्हें भी इसका नाम पता नहीं है। अलबत्ता वे इतना जरूर जानते हैं कि यह विदेश से आया है, कैसे आया? पता नहीं। वे बताते हैं कि यह घास जहां जहां फैलता है बाकी सभी पौधों को पनपने नहीं देता है। इस गांव के लगभग आदिवासी जनों को पार्थेनियम के बारे में बस इतनी ही जानकारी है।
शिक्षा रत्न पुरस्कार (झारखंड सरकार) द्वारा सम्मानित, कृषि वैज्ञानिक एवं 2002 में बिरसा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, रांची से अवकाश प्राप्त प्रोफेसर, डॉ. अब्दुल कयूम बताते हैं कि पार्थेनियम को समूल नष्ट करने के लिये काफी संवेदनशीलता एवं ईमानदारी से काम करना पड़ेगा। तब जाकर इससे मुक्ति संभव है।

डॉ. अब्दुल कयूम बताते हैं कि 2002 के पहले उन्होंने इंडियन कौंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च के तहत वीड (खर-पतवार) सर्वे किया, जिसमें उन्हें 300 के करीब खर-पतवार मिले, जो जानवरों के भोजन के साथ-साथ मानव जीवन के लिए औषधीय गुणों से परिपूर्ण थे, वे पार्थेनियम के दुष्प्रभाव से अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। इसके कारण अनेकों महत्त्वपूर्ण जड़ी-बूटियों और चरागाहों के नष्ट हो जानें की सम्भावना पैदा हो गई है। इसका प्रतिकुल असर अन्न उत्पादन पर भी पड़ रहा है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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