मीडिया में पिछड़े और वंचित समूहों की आवाज़ क्यों नहीं सुनाई देती? क्यों वंचितों के सवाल मेनस्ट्रीम मीडिया में सिरे से ग़ायब हैं? कमज़ोर तबक़ों के सवालों की अनदेखी क्यों की जाती है? ये ऐसे सवाल हैं जो अक्सर हमारे मन में कौंधते हैं लेकिन इनका जवाब नहीं मिलता। लेकिन हाल ही में एक ग़ैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम इंडिया और मीडिया संस्थान न्यूज़लॉन्ड्री ने एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट का विश्लेषण करने पर ऊपर लिखे सवालों का जवाब कुछ हद तक मिल जाता है।
“हू टेल्स अवर स्टोरीज़ मैटर्स : रिप्रेजेंटेशन ऑफ मार्जिनलाइज़्ड कास्ट ग्रुप्स इन इंडियन न्यूज़रूम्स” नाम की यह रिपोर्ट बताती है कि भारतीय मीडिया के तमाम न्यूज़रुम वंचितों की आवाज़ से वंचित हैं। यानि यहां काम करने वाले अधिकतर लोग सवर्ण हैं जिनके अपने सरोकार हैं। अपने अध्ययन में ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री ने पाया है कि भारतीय मीडिया में अनुसूचित जनजाति के लोग नज़र ही नहीं आते, जबकि अनुसूचित जातियों के लोगों का प्रतिनिधित्व भी बतौर पत्रकार न के बराबर है।
हिंदी अखबारों में पत्रकारों व स्तंभकारों की जाति
अखबार | पत्रकार | स्तंभकार |
---|---|---|
अमर उजाला | ||
सवर्ण | 62.6 | 53.4 |
आदिवासी | 0.5 | 0.8 |
दलित | 5.7 | 6.7 |
ओबीसी | 10.5 | 8.7 |
जाति उपलब्ध नही | 6.1 | 5.9 |
जाति बताने से इंकार | 14.6 | 24.5 |
दैनिक भास्कर | ||
सवर्ण | 68.2 | 56.2 |
आदिवासी | 0.3 | 0.4 |
दलित | 7.4 | 9.9 |
ओबीसी | 10.6 | 11.6 |
जाति उपलब्ध नही | 3.1 | 4.5 |
जाति बताने से इंकार | 10.4 | 17.8 |
हिन्दुस्तान | ||
सवर्ण | 61.1 | 57.6 |
आदिवासी | 1.4 | 1.1 |
दलित | 6.7 | 6.5 |
ओबीसी | 7.4 | 8.5 |
जाति उपलब्ध नही | 3.9 | 8.1 |
जाति बताने से इंकार | 19.6 | 18.2 |
नवभारत टाइम्स | ||
सवर्ण | 68 | 64.4 |
आदिवासी | 0.2 | 0.2 |
दलित | 5.4 | 6.8 |
ओबीसी | 9.8 | 10.1 |
जाति उपलब्ध नही | 6.3 | 6.7 |
जाति बताने से इंकार | 10.2 | 11.7 |
प्रभात खबर | ||
सवर्ण | 58.5 | 57.2 |
आदिवासी | 2.8 | 3.8 |
दलित | 7.8 | 9.2 |
ओबीसी | 9.3 | 11.2 |
जाति उपलब्ध नही | 7.9 | 6.8 |
जाति बताने से इंकार | 12.3 | 11.8 |
पंजाब केसरी | ||
सवर्ण | 49.8 | 50.8 |
आदिवासी | 0.3 | 0.4 |
दलित | 11.8 | 11.9 |
ओबीसी | 12.1 | 12.1 |
जाति उपलब्ध नही | 9.6 | 5.6 |
जाति बताने से इंकार | 16.4 | 19.2 |
राजस्थान पत्रिका | ||
सवर्ण | 66.5 | 65.9 |
आदिवासी | 1.9 | 1.9 |
दलित | 11.9 | 4.7 |
ओबीसी | 9.2 | 9.3 |
जाति उपलब्ध नही | 2.4 | 4.7 |
जाति बताने से इंकार | 8.2 | 13.5 |
कुल (उपर वर्णित अखबारों में) | ||
सवर्ण | 60.3 | 56.2 |
आदिवासी | 0.9 | 1.1 |
दलित | 8.3 | 8.1 |
ओबीसी | 10.1 | 9.7 |
जाति उपलब्ध नही | 6.3 | 6.5 |
जाति बताने से इंकार | 14.1 | 18.4 |
स्रोत : ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री सर्वे
अपनी इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री ने अंग्रेज़ी के 6 और हिंदी के 7 अख़बारों का अध्ययन किया। इसके अलावा डिजिटल मीडिया से जुड़े 11 संस्थानों, 12 समाचार पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से ब्यौरा जुटाया। साथ ही अंग्रेज़ी के 7 और हिंदी के 7 प्रमुख टीवी चैनलों पर प्रसारित कार्यक्रमों में शामिल होने वाले रिपोर्टर, लेखक और पैनलिस्टों का ब्यौरा जुटाया। इसके बाद जो नतीजे सामने आए वे चौंकाने वाले थे।
रिपोर्ट के मुताबिक़ सर्वेक्षण में शामिल सभी समाचार पत्र, पत्रिका, टीवी चैनल और वेबसाइट के न्यूज़रूम में निर्णायक पदों पर यानि मुख्य संपादक, प्रबंध संपादक और ब्यूरो प्रमुख जैसी कुर्सियों पर सवर्ण क़ाबिज़ हैं। अध्ययन में पाया गया कि कुल 121 निर्णायक पदों में से 106 पर उच्च जाति के पत्रकारों का क़ब्ज़ा है जबकि इनमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का एक भी सदस्य नहीं है। राज्यसभा टीवी, आज तक, न्यूज़ 18, इंडिया टीवी, एनडीटीवी इंडिया, रिपब्लिक भारत, और ज़ी न्यूज में सभी निर्णायक पदों पर उच्च जाति के लोग क़ाबिज़ हैं।

यह रिपोर्ट कहती है कि प्रतिनिधित्व देने के मामले में पत्रिकाओं में बाक़ी संस्थानों यानि टीवी, अख़बार और वेबसाइटों से हालात थोड़े बेहतर हैं। हिंदी की इंडिया टुडे और आउटलुक के अलावा अंग्रेज़ी की बिज़नेस टुडे, फेमिना, फ्रंटलाइन, इंडिया टुडे, द कैरवैन (कारवां), आर्गनाइज़र, आउटलुक, स्पोर्ट्सस्टार और तहलका जैसी पत्रिकाओं में 73 फीसदी निर्णायक पदों पर सवर्णों का क़ब्ज़ा है जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की हिस्सेदारी 13.6 फीसदी है। इन पत्रिकाओं में भी निर्णायक पदों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व पूरी तरह नदारद है।
अंग्रेजी अखबारों में पत्रकारों व स्तंभकारों की जाति
अखबार | पत्रकार | स्तंभकार |
---|---|---|
हिन्दुस्तान टाइम्स | ||
सवर्ण | 66.6 | 57.5 |
आदिवासी | 0.8 | 0.8 |
दलित | 4.2 | 6.5 |
ओबीसी | 10.6 | 7.9 |
जाति उपलब्ध नही | 10.6 | 7.9 |
जाति बताने से इंकार | 12.9 | 17.3 |
द इकोनॉमिक टाइम्स | ||
सवर्ण | 70.1 | 57.8 |
आदिवासी | 1.1 | 1.2 |
दलित | 4.5 | 5.1 |
ओबीसी | 5.6 | 7.7 |
जाति उपलब्ध नही | 4.5 | 5.6 |
जाति बताने से इंकार | 14.3 | 22.6 |
द हिन्दू | ||
सवर्ण | 52.1 | 46.3 |
आदिवासी | 0.5 | 0.4 |
दलित | 5.3 | 7 |
ओबीसी | 7.4 | 10 |
जाति उपलब्ध नही | 8.8 | 10 |
जाति बताने से इंकार | 26.1 | 26.2 |
दी इंडियन एक्सप्रेस | ||
सवर्ण | 58.1 | 51.4 |
आदिवासी | 0.5 | 0.7 |
दलित | 5.5 | 6.7 |
ओबीसी | 5.4 | 6.4 |
जाति उपलब्ध नही | 13.4 | 11.5 |
जाति बताने से इंकार | 17.1 | 19.4 |
दी टेलिग्राफ | ||
सवर्ण | 71.6 | 68.5 |
आदिवासी | 0.1 | 0.2 |
दलित | 3.8 | 6.3 |
ओबीसी | 7.4 | 7.3 |
जाति उपलब्ध नही | 11.7 | 4.9 |
जाति बताने से इंकार | 5.5 | 12.9 |
दी टाइम्स ऑफ इंडिया | ||
सवर्ण | 65.6 | 53.8 |
आदिवासी | 0.3 | 0.9 |
दलित | 2.9 | 5.1 |
ओबीसी | 3.8 | 7.4 |
जाति उपलब्ध नही | 9.9 | 9.4 |
जाति बताने से इंकार | 17.6 | 23.6 |
कुल (उपर वर्णित अखबारों में) | ||
सवर्ण | 62.1 | 53.9 |
आदिवासी | 0.5 | 0.7 |
दलित | 4.4 | 6.2 |
ओबीसी | 5.5 | 8.3 |
जाति उपलब्ध नही | 10.2 | 9.2 |
जाति बताने से इंकार | 17.2 | 20.7 |
स्रोत : ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री सर्वे
न्यूज़लॉन्ड्री, फर्स्टपोस्ट, स्क्रॉल, स्वराज्य, द केन, द न्यूज़ मिनट, द प्रिंट, द क्विंट, द वायर अंग्रेज़ी, न्यूज़लॉन्ड्री हिंदी और सत्याग्रह हिंदी जैसी तमाम वेबसाइटों में 80 फीसदी से ज़्यादा निर्णायक पदों पर सवर्ण बैठे है। यहां भी अन्य पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी 5 फीसदी से कम है जबकि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग नदारद हैं।
रिपोर्ट कहती है कि न सिर्फ निजी बल्कि सरकारी चैनलों में भी हालात बेहतर नहीं हैं। जांच में पता चला कि राज्यसभा टीवी जैसा सरकारी चैनल दलित और पिछड़ों की अनदेखी कर रहा है। राज्य सभा टीवी में स्क्रीन पर दिखने वाले तमाम चेहरे उच्च जाति के हैं। न सिर्फ एंकर बल्कि पैनिलिस्टों में भी सवर्णों की हिस्सेदारी 80 फीसदी से ज़्यादा है। अक्तूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच 7 टीवी चैनलों पर प्रसारित हुए बहस के कार्यक्रमों को जिन 47 एंकरों ने संचालित किया उनमें 33 सवर्ण थे। इनमें एक भी एंकर आदिवासी या दलित नहीं था। इन चैनलों में राज्यसभा टीवी, आज तक, न्यूज़ 18, इंडिया टीवी, एनडीटीवी इंडिया, रिपब्लिक भारत, और ज़ी न्यूज शामिल हैं।
इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए तमाम टीवी चैनलों पर अक्तूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच टीवी पर दिखने वाले 1883 पैनिलिस्टों की पृष्ठभूमि की जांच की गई। राज्यसभा टीवी के अलावा एनडीटीवी जैसे चैनल में भी सामाजिक विविधता कम ही मिली। एनडीटीवी 24×7 की बहस में 71.4 फीसदी, सीएनएन न्यूज़- 18 में 68.6 फीसदी और इंडिया टुडे पर 53.5 फीसदी पैनलिस्ट सवर्ण थे। अध्ययन में पाया गया 1883 में से क़रीब 30 फीसदी पैनलिस्ट या तो अल्पसंख्यक समुदाय से थे या फिर उनकी जाति का पता नहीं लग पाया।
ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री के अध्ययनकर्ताओं ने 2018 से मार्च 2019 के बीच 6 अख़बारों में छपे 16 हज़ार से ज़्यादा लेखों का अध्ययन किया। इसमें उन्होंने पाया कि इनको लिखने वालों में दलित और आदिवासियों की हिस्सेदारी 5 फीसदी से भी कम है जबकि 62 फीसदी से ज़्यादा लेख उन्होंने लिखे हैं, जिनका संबंध सवर्ण जातियों से है।
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ध्यातव्य है कि मीडिया में वंचितों की हिस्सेदारी को लेकर पहले भी सर्वेक्षण रिपोर्ट सामने आए हैं। मसलन 2006 में मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, दिल्ली के अनिल चमड़िया और सीएसडीएस के योगेंद्र यादव ने 37 मीडिया संस्थानों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि मीडिया में 315 प्रमुख पदों में से फैसला लेने के स्तर पर महज़ एक फीसदी लोग ही ऐसे हैं जिनका ताल्लुक़ अन्य पिछड़ा वर्ग से था। हालांकि प्रमुख पदों पर ओबीसी की हिस्सेदारी 4 फीसदी थी। इसके उलट फैसला लेने वाले पदों पर 71 फीसदी सवर्ण क़ाबिज़ थे।
इस कड़ी में प्रज्ञा शोध संस्थान, पटना की तरफ से एक सर्वे 2009 में जारी किया गया था। प्रमोद रंजन (संप्रति प्रबंध संपादक, फारवर्ड प्रेस) ने बिहार की राजधानी पटना में कार्यरत 42 प्रमुख मीडिया संस्थानों का अध्ययन किया था। तब उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि पटना में काम करने वाले कुल 78 पत्रकारों में से 73 फीसदी सवर्ण थे। इस अध्ययन के मुताबिक़ हिंदी अख़बारों में 87 फीसदी, अंग्रेज़ी अख़बारों में 75 फीसदी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 90 फीसदी पत्रकार सवर्ण थे।
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इसी तरह शिक्षाविद् रॉबिन जेफ्री ने दस साल तक, अलग-अलग शहरों में, कई समाचार समूहों पर शोध किया। इसके बाद उन्होंने ‘इंडियाज़ न्यूज़पेपर रेवोल्यूशन’ नाम से किताब लिखी। इसमें उन्होंने दावा रिया कि दलित या आदिवासी मालिक और संपादक तो दूर उन्हें कोई दलित पत्रकार भी नहीं मिला।
बहरहाल, जब वंचितों को मीडिया में जगह ही नहीं मिलेगी और वे ख़बर ही नहीं लिखेंगे तो मीडिया में उनके सरोकार दिखेंगे कैसे? जनसरोकार और वंचितों की आवाज़ उठाने के लिए उन लोगों का होना ज़रुरी है जो स्वयं भुक्तभोगी हैं। मीडिया में जब तक वंचित तबक़ों का प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ेगा और निर्णायक पदों तक उनकी पहुंच नहीं होगी तब तक उनसे जुड़ी ख़बरों में ईमानदारी खोजना अपने आप में बेमानी है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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