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जेएनयू में सीआरपीएफ : दलित-बहुजनों के ज्ञान सृजन पर हमला

बीते 4 नवंबर को जेएनयू में सीआरपीएफ के जवानों को बुलाया गया। इसके पीछे वजह यह रही कि छात्र पिछले एक सप्ताह से हॉस्टल की फीस बढ़ाने, नियम बदलने व पढ़ाई के अन्य खर्चों में वृद्धि के खिलाफ आंदोलनरत थे। यह एक अहिंसक आंदोलन था, जो जेएनयू की संस्कृति रही है। फिर सीआरपीएफ की आवश्यकता क्यों पड़ी? 

पिछले दस वर्षो में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) पर चौतरफा हमले हुए हैं। यह हमला सिर्फ विश्वविद्यालय के ऊपर न होकर देश की शिक्षा व्यवस्था पर है, जिसका लाभ अब दलित-बहुजनों को भी मिलने लगा है। जेएनयू पर यह हमला इसलिए दृष्टिगोचर होता है क्योंकि इसके छात्र ज्यादा सजग और आंदोलित रहते हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि देश की शासक जातियों को एक भी जेएनयू बर्दाश्त नहीं है। 

वर्ष 2003 में शिक्षा के क्षेत्र में बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट तैयार की गई थी, उसे किस्तों में अबतक लागू भी किया जा रहा है। इसे देश की राजधानी के दिल्ली यूनिवर्सिटी में पहले से ही महसूस किया जा रहा है। आज उसका दायरा बढ़ा है। जेएनयू इसकी चपेट में पहले कम था, आज ज्यादा दिख रहा है। 

ताजा घटना 4 नवंबर 2019 की है। जेएनयू परिसर में केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) को बुलाया गया। यह अर्द्धसैनिक बल भी कहा जाता है और इसके जवान आधुनिक हथियारों से लैस रहते हैं। कोई भी हैरान हो सकता है कि जिस विश्वविद्यालय को शिक्षा के लिए जाना जाता है, लोकतांत्रिक वातावरण के लिए जाना जाता है और जिसे अभिव्यक्ति की आजादी के लिए जाना जाता है, वहां सीआरपीएफ के जवानों को क्यों बुलाना पड़ा? क्या जेएनयू में कोई युद्ध जैसी स्थिति थी? 

जेएनयू परिसर में सीआरपीएफ के जवान

घटना के पीछे छात्रों का एक सप्ताह से चल रहा आंदोलन है। वे हॉस्टल की फीस बढ़ाने, हॉस्टल के नियम बदलने, और पढाई के खर्चो में वृद्धि के खिलाफ आन्दोलनरत हैं। भारत का संविधान देश के नागरिकों (के साथ-साथ विदेशियों को भी) लोकतान्त्रिक अधिकार देता है, लेकिन जेएनयू प्रशासन उसे कुचलना चाहता है। जेएनयू प्रशासन के लिए छात्र और उनसे जुड़े सवाल मायने नहीं रखते हैं। इसका एक प्रमाण यह कि अभी तक जेएनयू प्रशासन की तरफ से कोई भी छात्रों से बात करने को तैयार नहीं है। कुलपति कैंपस में नहीं हैं। इस संबंध में छात्रों ने स्थानीय वसंत विहार थाना में कुलपति के गुम होने की सूचना दर्ज करवायी है। 


विश्वविद्यालयों पर हमले के क्या कारण हैं? 

एक नजर में आप यह कह रहतें हैं कि यूनिवर्सिटी में उनके बच्चे (उंची जातियों के) भी तो पढ़तें हैं, तो फिर अगर जेएनयू बर्बाद हुआ या फिर देश के अन्य विश्वविद्यालय बर्बाद हुए  तो इसका खामियाजा उनके बच्चों को भी भुगतना होगा। देश में आज सवर्ण आरक्षण भी लागू है और निजीकरण से आरक्षण का दायरा भी घटेगा, लेकिन क्या सवर्ण समाज जिसे आज आरक्षण मिल रहा है, वह कभी आरक्षण के सवालों को लेकर सड़क पर उतरा है? जाहिर तौर पर इसका उत्तर नकारात्मक है। उसी प्रकार भले ही आर्थिक रूप से सवर्णों के सभी सभी बच्चे उच्च शिक्षा लेने में सक्षम नहीं है, लेकिन सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक रूप से वे विश्वविद्यालय पर निर्भर नहीं हैं। सरकारें भी उन्हीं के लिए काम कर रही हैं। लेकिन अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों, और अन्य पिछड़ा वर्ग में इन्हीं विश्वविद्यालयों की वजह से सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना आ रही थी और उसका विस्तार हो रहा था। इस प्रकार देखेंगे तो आज जाे कुछ जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयोें में हो रहा है, उसका मूल उद्देश्य वंचित वर्गों में सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को रोकना है। 

 

अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते छात्र

बहरहाल, जेएनयू में सीआरपीएफ किसके कहने पर आयी, इस पर सब चुप हैं। आज प्रशासन यह तक मानने को तैयार नहीं है कि सीआरपीएफ कैंपस में आई। ज्ञान के सृजन पर हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। और अफसोस कि देश में कोई विपक्षी पार्टी नहीं है। शिक्षा किसी भी पार्टी के कार्यक्रम में शामिल नहीं है। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल कुमार

अनिल कुमार ने जेएनयू, नई दिल्ली से ‘पहचान की राजनीति’ में पीएचडी की उपाधि हासिल की है।

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