अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज करने से पहले क्या पुलिस को जांच करने का अधिकार है? इस सवाल का जवाब बॉम्बे हाई कोर्ट के हाल के एक फैसले से मिलता है। हाल ही में एक मामले कि सुनवाई करते हुए जस्टिस पृथ्वीराज के. चव्हाण ने कहा कि डीएसपी रैंक के अधिकारी को ये अधिकार बिल्कुल नहीं है कि वो दलित उत्पीड़न के किसी मामले में एफआईआर दर्ज करने से पहले जांच का आदेश दे। उन्होंने कहा कि ये पुलिस की ज़िम्मेदारी है कि वो पहले मामला दर्ज करे और फिर जांच करे।
दरअसल, विकास कुमार नाम के व्यक्ति ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ़ अपील की थी क्योंकि सेशन कोर्ट ने अपीलकर्ता के ख़िलाफ़ अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मामला चलाने का आदेश दिया था।
हाल के दिनों में जिस तरह दलित उत्पीड़न कानून को कमज़ोर करने की कोशिश हुई हैं और जिस तरह इस मुद्दे पर सवर्ण बनाम दलित की राजनीति होती है, ऐसे में ये फैसला काफी अहम है। हालांकि इस मुद्दे की वैधानिक विवेचनाएं अभी आगे भी होती रहेंगी।
क्या है मामला?
27 सितंबर 2018 को संपत बंदगर पुलिस के पास रमेश सवाने नाम के व्यक्ति के खिलाफ शिकायत लेकर पुलिस पहुंचे। संपत का आरोप था कि ज़मीन की ख़रीद से जुड़े एक मामले में विवाद होने के बाद रमेश ने उसको अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत झूठे मुकदमे में फंसाने की धमकी दी है और उसको ब्लैकमेल किया जा रहा है। पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया।

इससे पहले 6 अगस्त को रमेश ने पुलिस को लिखित में संपत के खिलाफ धोखाधड़ी शिकायत की थी। रमेश का आरोप है कि पुलिस ने उसकी शिकायत की अनदेखी की। इसके बाद 14 अगस्त को संपत का भाई विकास रिवॉल्वर लेकर उसके घर आया और रमेश के परिवार को खत्म करने की धमकी दी। विकास ने शिकायत वापस लेने का दबाव डालते हुए जातिसूचक शब्द भी बोले।
मामला अदालत में गया तो अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने संपत के खिला़फ शिकायत खारिज कर दी। दरअसल, रमेश पक्ष की तरफ से वकील रेखा मुसाले ने दलील रखी कि जब उनके मुवक्किल ने पुलिस से शिकायत की तो संबंधित डीएसपी नारायण शिवगांवकर ने मामला दर्ज करने की बजाय कांस्टेबल सतपुते को जांच सौंप दी। अदालत ने सुनवाई के दौरान माना कि विकास ने रमेश के घर जाकर धमकी दी और जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया।
इसके बाद अदालत ने विकास की शिकायत ख़ारिज कर दी और पुलिस से विकास के खिलाफ अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 के तहत मामला चलाने का आदेश दिया। अदालत ने महाराष्ट्र राज्य बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि एससी एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किए जाने से पहले डीएसपी रैंक के अधिकारी को द्वारा जांच की ज़रूरत नहीं है।
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इस फैसले के खिलाफ विकास ने हाई कोर्ट में अपील की। अपील पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि डीएसपी का आचरण नियम विरूद्ध है। अदालत ने कहा कि ये शर्मनाक है कि कुछ अधिकारी नियम और क़ानून के ख़िलाफ़ जाकर पक्षपातपूर्ण कार्रवाई करते हैं। अदालत ने अपील ख़ारिज कर दी और पुणे के एसपी को डीएसपी शिवगांवकर के खिलाफ ज़रूरी कार्रवाई करने का आदेश भी दिया।
फैसले का असर
इस मामले में फैसले से एक बार फिर तय हो गया कि पुलिस को एससी-एसटी से जुड़े मामलों में मनमानी का अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में वकील फर्रुख खान के मुताबिक़ इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले हैं। 2018 में क्रिमिनल अपील पर सुनवाई में सुप्रीम ने साफ कहा कि एससी एसटी कानून से जुड़े मामलों में सीधे एफआईआर होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का लतिका कुमारी मामले में फैसला आने के बाद एफआईआर से पहले जांच की गुंजाइश ही ख़त्म हो गई। वर्ष 2018 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने जो दिशनिर्देश दिए थे वो सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुका है। ऐसे में पुणे पुलिस के डीएसपी शिवगांवकर ने जो किया वो क़ानून के दायरे से बाहर है।
जातिगत ग़ैर-बराबरी
दरअसल हमारे समाज में अभी भी सामाजिक विषमताएं मौजूद हैं। विषमताएं तब और गंभीर हो जाती है जब संस्था या सरकारी कर्मचारी खुद को पक्षकार समझने लगें। वकील निहारिका जैन के मुताबिक़ संस्थाओं में बैठे लोग अगर संविधान और क़ानून के दायरे से हटकर जब अपनी जाति, अहम या रिश्तों की बिना पर फैसला करने लगें या पक्षपात करें तो न्याय की हत्या होना लाज़िम है। इसका इलाज क्या है? निहारिका जैन के मुताबिक़ तमाम क़ानूनी संस्थाओं में जब तक सभी वर्ग, ख़ास कर पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक और महिला आनुपातिक बराबरी नहीं पाएंगे, समाज में बराबरी की बात करना ही बेमानी है।
(इनपुट : Livelaw.com)
(संपादन : नवल)
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