राजकिशोर जी से मेरा पिछले चार वर्षों से गहरा नाता रहा। कल 4 जून 2018 को वे शारीरिक रूप से भले ही मुझसे विदा हो गये, लेकिन उनके बहुत सारे भाव-विचार और सपने मेरे भीतर समा गए हैं। वे तो मेरे साथ ही विदा होंगे।

सोच रहा हूं उनकी स्मृतियों को कैसे भाषाबद्ध करूं… क्यों न उनकी अंतिम विदाई के उस क्षण को याद करूं, जब उनका परिवार, उनकी जीवन-संगिनी विमला जी और उनकी बेटी अस्मिता राज उनके जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए दृढ़ता से खड़ी रहीं। उनकी पत्नी विमला जी ने मुझे बुला कर कहा कि सिद्धार्थ, उन लोगों को बता दीजिये कि हमें उनकी अस्थि का कोई अवशेष नहीं ले जाना है। किसी गंगा में विसर्जित नहीं करना है। यह उनकी भावना के खिलाफ होगा। अगर किसी और को ले जाना है, तो ले जाए। या उस बात को जब किसी ने सुझाव दिया कि किसी ब्राह्मण को बुला लिया जाये, तो रोती-बिलखती विमला जी और उनकी बेटी अस्मिता एक स्वर से बोल पड़ीं – न! न!! कोई ब्राह्मण, कोई पुरोहित नहीं बुलाया जाएगा। विमला जी बोलीं कि यह उनका अपमान होगा। अस्मिता का कहना था कि पापा जीवन भर जिन मूल्यों के खिलाफ थे, वे सब उनके नहीं रहने पर भी उसी तरह ही माने जाएंगे।

जब हम राजकिशोर जी को अंतिम विदाई देकर घर पहुंचे, तो कुछ पारिवारिक सदस्यों ने जोर देना शुरू किया कि ब्रह्मभोज होना चाहिए। तो राजकिशोर जी की बेटी ने दृढ़ता से कहा कि यह सब कुछ भी नहीं होगा। इन सब चीजों पर न पापा विश्ववास करते थे, न हम लोग करते हैं। विवेक की मृत्यु के बाद भी पापा ने यह सब नहीं होने दिया था।
मेरे लिए सबसे मार्मिक और भावविभोर कर देने वाला क्षण वह था, जब विमला जी राजकिशोर जी की प्रिय चीजें उनके पार्थिव शरीर के साथ रखने को कह रही थीं। उन्होंने सबसे पहले मुझसे उनकी कुछ प्रिय किताबें रखने को कहा। मैं किताबें ढूंढने लगा। मैं उस समय आवाक् भी रह गया और भावविभोर भी हो गया, जब उन्होंने सबकी उपस्थिति में ज़ोर से कहा कि सिद्धार्थ जी आंबेडकर वाली किताब रखना मत भूलियेगा, जाति का ज़हर किताब भी जरूर रखियेगा। इन्हीं किताबों के साथ उनका क़लम, चश्मा, उनके सिगरेट का डिब्बा और उनका प्रिय बिस्कुट भी उन्होंने रखवाया।
इस महा विपत्ति की घड़ी में विमला जी और अस्मिता की राजकिशोर जी के मूल्यों, चाहतों आदर्शों और सपनों के प्रति यह प्रतिबद्धता किसी के लिए एक बड़ी प्रेरणा का स्रोत है। याद रहे विमला जी ने 4 मई को अपना जीवन-साथी खोया। इसके पहले 22 अप्रैल को वे अपने 40 वर्षीय इकलौते पुत्र विवेक को भी अचानक खो चुकी हैं। राजकिशोर जी के जीवन मूल्यों के प्रति विमला जी और उनकी बेटी की प्रतिबद्धता का मूल कारण मेरे अनुसार यह है कि वे उन लोगों में से थे, जो जिन मूल्यों में विश्वास करते थे, उसे जीते थे।
राजकिशोर जी के पार्थिव शरीर के साथ रखने के लिए मुझे पांच या छ: किताबें चुननी थीं। इन पिछले चार वर्षों में मेरा नाता उनसे इतना गहरा हो गया था कि मैं उनकी पसंद-नापसंद को अच्छी तरह जानने-समझने लगा था। उनके द्वारा लिखित और संपादित किताबों में कुछ किताबें उन्हें बहुत पसंद थीं। राजकिशोर जी को अपनी कृति ‘सुनंदा की डायरी’ (उपन्यास) बहुत पसंद थी। अपनी कृति एक ‘अहिंदू के घोषणा-पत्र’ से उनका गहरा लगाव था। अपनी संपादित कृतियों में ‘ हरिजन से दलित’, ‘मुसलमान: मिथक और यथार्थ’ और ‘स्त्री-प्रश्न’ को वे बहुत अहमियत देते थे। हाल ही में उन्होंने ‘डॉ. आंबेडकर विचार-कोश’ का संपादन किया था। जब यह किताब इस विश्व पुस्तक मेले में आई, तो उन्होंने इसे मुझे भेंट किया और कहा कि यह आंबडेकर के विचारों के प्रचार के लिए मेरा एक छोटा सा प्रयास है।
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इस प्रसंग में मुझे एक दु:ख सालता रहेगा कि उनके जीते-जी डॉ. आंबेडकर की किताब ‘जाति का विनाश’ प्रकाशित नहीं हो पाई। यह किताब उनको प्रकाशित रूप में उनके हाथों में सौंप नहीं पाया। इस किताब का मनोयोग से उन्होंने अनुवाद किया था, साथ ही इस किताब में आंबेडकर के शोध-पत्र ‘भारत में जातियां : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ को समाहित किया था। यह उनका ड्रीम प्रोजेक्ट था। उनका कहना था कि मेरे तीनों आदर्श व्यक्तित्व आंबेडकर, लोहिया और गांधी जाति के विनाश में भारतीय-जन की मुक्ति देखते थे।
राजकिशोर जी इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि जाति के विनाश के बिना इस देश में कुछ नहीं हो सकता।
आज जब मैं उनको याद कर रहा हूं, तो सोच रहा हूं कि उनके व्यक्तित्व में ऐसा क्या था, जो मुझे उनकी ओर इतनी तेजी से खींच कर ले गया। सबसे पहली बात यह कि राजकिशोर जी दिन-रात एक ऐसे भारत का सपना देखते रहते, जिसमें किसी को अभाव और अपमान का सामना न करना पड़े। यह सपना भारत तक ही सीमित नहीं था। वे दुनिया भर के जन-मानस को अभाव एवं अपमान से मुक्त देखना चाहते थे। युद्धों से मुक्त शान्तिमय दुनिया का सपना देखते थे।

जब-जब वे मिलते थे या फोन पर बात होती थीं। तो बहुत कम अवसर ऐसे आते थे, जब निजी बातें होती हों। अक्सर वे इसी चिन्ता में खोये रहते थे कि कैसे सुन्दर, समृद्ध, समतामूलक, भाईचारे पर आधारित लोकतांत्रिक भारत का निर्माण किया जाये। मेरे और उनके सपने एक थे, इस सपने को कैसे हासिल किया जाये, इस पर बहुत सारी सहमतियों के साथ हमारे उनके बीच तीखे मतभेद भी थे। घंटों बहस होती थी। कभी वे नाराज हो जाते, तो कभी मैं। कभी मैं उनको मना लेता, कभी वे मुझको। मैं गांधी से नापसंदगी की हद तक असहमति रखता हूं, गांधी उनके अत्यन्त प्रिय व्यक्तित्व थे। गांधी को लेकर हमारे बीच कटुता भी पैदा हो जाती थी। वे लोहिया को भी संपूर्णता में स्वीकार करने का आग्रह करते थे, जबकि मैं लोहिया के राम-कृष्ण के प्रति गहरे अनुराग को किसी भी कीमत पर स्वीकार करने को तैयार नहीं था। हां, बाद के दिनों में आंबेडकर को लेकर हमारे उनके बीच काफी हद तक सहमति कायम हो गई थी।
लोहिया की इस बात से हम दोनों पूरी तरह सहमत थे कि भारतीय आदमी का दिमाग़ जाति और योनि के कटघरे में क़ैद है। राजकिशोर जी जाति के विनाश के साथ जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री-पुरुष की समता के समर्थक थे। ‘जाति के विनाश’ के साथ एक और किताब वे शीघ्र प्रकाशित कराना चाहते थे, जिसका शीर्षक उन्होंने ‘स्त्री क्या चाहती है’, यह चुना था। इस किताब की पूरी पांडुलिपि तैयार है। वे चाहते थे कि यह किताब जल्दी आ जाए।
राजकिशोर जी का मानस लोकतांत्रिक था, जो हिंदी भाषा-भाषी समाज में कम मिलता है। हो सकता है कि इसकी जड़ें कोलकाता (पश्चिम बंगाल ) में रही हों, जहां वे पले-बढ़े। वहीं उनकी किशोरावस्था और युवावस्था गुजरी। वे असहमति को पूरी जगह देते थे। वे असहमति को प्रतिरोध का एक हथियार कहते। कहने को तो ऐसा बहुत लोग कहते हैं। लेकिन, उनके साथ खास बात यह थी कि वे कड़ी से कड़ी असहमति को भी सुनते थे। उस पर विचार करते थे और यदि उन्हें कोई बात भा गई, तो फोन करके बताते थे कि हां, आप ठीक कह रहे थे। किसी से बात या विमर्श करते समय वे सामने वाले की उम्र, औपचारिक शिक्षा, पद या प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा से कुछ भी नहीं तय करते थे। वे ज्ञान या प्रतिष्ठा के अंहकार से काफी हद तक मुक्त व्यक्तित्व के धनी थे।
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राजकिशोर के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बात यह थी कि जिन मूल्यों और आदर्शों को उन्होंने स्वीकारा था, उन्हें जीने की भरसक कोशिश करते रहे। वे आज़ादी के बाद की उस पीढ़ी के व्यक्तित्व थे, जो अपने मूल्यों के लिए बहुत कुछ खोने को भी तैयार रहते थे। अवसरवाद ही मूल्य है, यह बीमारी उनको अपनी गिरफ़्त में नहीं ले पाई थी।

देश और दुनिया की चिन्ता ही अंतिम समय तक उनके जीवन का केंद्र बनी रही। 15 मई की सुबह वे गंभीर स्थिति में कैलाश अस्पताल में भर्ती हुए। उसके एक दिन पहले 14 मई की शाम को वे मुझसे करीब 2 घंटे तक बहस करते रहे। उन्होंने फोन करके मुझे बुलाया था कि आइये जरूरी बात करनी है। बात क्या थी? उनका कहना था कि केवल लिखने-बोलने से कुछ नहीं होगा। मैदान में उतरना होगा। जनता के बीच जाना होगा, लेकिन उसके पहले एजेंडा तैयार करना पड़ेगा। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तो पूरी तरह जनता के बीच जाने को तैयार हूं, क्या आप तैयार हैं? मुझे चुप देखकर उन्होंने कहा कि लग रहा है आप जनता के बीच जाने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना था कि आज़ादी के बाद देश सबसे गंभीर संकट की स्थिति में है। जो कुछ भी 70 वर्ष की उपलब्धियां हैं, वे दांव पर लगी हुई हैं। ऐसे में हमें जनता के बीच जाना चाहिए, सकारात्मक एजेंडे के साथ, क्योंकि जो राजनीतिक पार्टियां संघ-भाजपा-मोदी का विरोध कर रही हैं, उनके पास जनता के लिए कोई सकारात्मक एजेंडा नहीं है। उनका एजेंडा नकारात्मक है, मोदी विरोध।
जब मैं उनसे एम्स में मिलने गया, जो उनके होश में रहते अंतिम मुलाकात थी। मैंने उनको जूस पिलाकर, खिचड़ी खिला ही रहा था तो उन्होंने कहना शुरू किया कि मैं ठीक होते ही सबसे पहले शंबूक की आत्मकथा लिखूंगा। थोड़े ही दिन पहले ही उन्होंने फारवर्ड प्रेस के लिए एकलव्य की आत्मकथा लिखी थी। बार-बार पूछते रहते थे कि एकलव्य की आत्मकथा लोगों को कैसी लग रही है।
उनका अंतिम प्रश्न यह था कि ‘जाति का विनाश’ किताब कहां तक पहुंची है? कब तक प्रकाशित हो जाएगी? अंतिम रूप देने से पहले मुझे एक बार दिखाइएगा ज़रूर। उन्होंने उस दिन भी कहा कि सिद्धार्थ जी यह किताब पढ़े-लिखे हर व्यक्ति तक पहुंचनी चाहिए। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं इस किताब की 5 लाख प्रतियां कुछ वर्षों के भीतर हिंदी भाषा-भाषी समाज तक पहुंचाऊंगा। मैं इसे अपने जीवन एक मिशन बनाऊंगा।
मैंने अपने मित्र-शिक्षक राजकिशोर जी से दो वादे किए हैं, पहला ‘जाति का विनाश’ किताब को हिंदी भाषी-समाज के घर-घर तक पहुंचाना और ‘स्त्री क्या चाहती है?’ उनके द्वारा तैयार पांडुलिपी को प्रकाशित कराना। पहली किताब उनके ‘जाति का विनाश’ के सपने और सामाजिक समता से जुड़ी हुई है और दूसरी किताब पितृसत्ता के खात्मे और स्त्री-पुरूष के बीच के समता से जुड़ी है। आंबेडकर और लोहिया के एक सच्चे अनुयायी के ये सपने थे।
आंबेडकर और उनकी किताब ‘जाति का विनाश’ किस क़दर उनके भीतर रच-बस गई थी, कि उनका परिवार भी इससे बखूबी परिचित हो गया था। यह अकारण नहीं है कि उनकी जीवन-संगिनी उस दु:ख और विपत्ति की घड़ी में भी यह कहती हैं कि सिद्धार्थ जी, आंबेडकर वाली किताब उनके साथ जरूर रखियेगा।
राजकिशोर जी आप बहुत कुछ ऐसा मुझे दे कर गये हैं, जिसे मैं सहेज कर रखूंगा और आप से किए दोनों वादों को पूरा करूंगा।
अलविदा! मेरे मित्र-शिक्षक, अलविदा!!
(कॉपी एडिटर : प्रेम बरेलवी – राजन कुमार)
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दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार