सवर्णों के वोट के लिए भाजपा-कांग्रेस के बीच घमासान
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 20 सितंबर को ट्वीट किया कि जांच के बिना एससी-एसटी एक्ट में कोई गिरफ्तारी नहीं होगी। हालांकि यह महज उनका ‘बयान’ है। मध्यप्रदेश सरकार ने इससे संबधित न कोई सर्कुलर जारी किया है, न ही कोई कानून बनाया है। लेकिन रोचक तथ्य यह है कि शिवराज सिंह चौहान ने कुछ रोज पहले ही कहा था कि सूबे में इस एक्ट का कड़ाई से पालन होगा। उनके उस बयान के बाद से सवर्ण समुदाय भड़का हुआ था तथा जगह-जगह धरना-प्रदर्शन कर रहा था। लेकिन ये विरोध प्रदर्शन कोई नई बात नहीं थे। केंद्र सरकार द्वारा एसएसी-एसटी एक्ट में संशोधन किए जाने के बाद से ही सवर्ण समुदाय शिवाराज सिंह चौहान व उनके विधायक-मंत्रियों पर जगह-जगह चप्पल-जूते फेंकने का अभियान चला रहे थे। इन घटनाओं के मद्देनजर यह जानना रोचक होगा कि इस बीच ऐसा क्या हुआ, जिसने शिवराज सिंह चौहान को यूटर्न लेने पर मजबूर कर दिया? क्या इसके पीछे मध्यप्रदेश में कांग्रेस द्वारा की जा रही उग्र सवर्ण-राजनीति है या शिवराज सिंह स्वयं ही इस समुदाय की ताकत से भयभीत हो गए?
मध्यप्रदेश में एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग नहीं होने देने संबंधी शिवराज सिंह चौहान के बयान को मोहन भागवत के उस बयान के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि एससी-एसटी एक्ट का दुरूपयोग न हो, इसको सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह बयान मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में संघ द्वारा आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यान माला के अंतिम दिन 19 सितंबर के प्रश्नोत्तर के दौरान दिया था। यहां यह याद कर लेना जरूरी है कि कुछ दिनों पहले ही शिवराज सिंह ने एससी-एसटी एक्ट को मध्य प्रदेश में और मजबूत बनाने की बात कही थी।

शिवराज सिंह चौहान के इस बयान के तुरंत बाद भाजपा और एनडीए गठबंधन के दलित नेताओं ने उनके इस बयान का विरोध करना शुरू कर दिया। भाजपा सांसद उदित राज ने कहा कि “मुख्यमंत्री शिवराज के बयान से मैं बहुत ही आहत हूं। उन्हें ऐसा बयान नहीं देना चाहिए। इससे दलितों में नाराजगी बढ़ेगी।” इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा कि वे केंद्र सरकार के आदेशों के खिलाफ जाकर बयान दे रहे हैं। उन्होंने इस मुद्दे को प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के सामने उठाने की बात की। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को यह बयान वापस लेना चाहिए। चौहान के बयान के खिलाफ आरपीआई नेता और सांसद रामदास अठावले भी मुखर हो गए। उन्होंने कहा, “हो सकता है शिवराज सिंह चौहान ने अपना बयान अगड़ी जातियों को खुश करने के लिए दिया हो, लेकिन उन्हें ऐसी कोई बात नहीं बोलनी चाहिए जिससे दलित समुदाय में भय या असुरक्षा की भावना पैदा हो।” अठावले ने कहा कि चौहान को अपना बयान वापस लेना चाहिए क्योंकि मुख्यमंत्री अगड़ा और पिछड़ा दोनों के लिए होता है। लोक जनशक्ति पार्टी के केंद्रीय संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष चिराग पासवान ने चौहान के इस कदम का विरोध किया है।
मध्यप्रदेश के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के भाजपा के कुछ सांसदों और विधायकों ने भी खुलकर चौहान के इस कदम का विरोध किया है। मध्यप्रदेश से भाजपा के सांसद और दलित मोर्चा के मुखिया विनोद कुमार सोनकर ने चौहान सरकार को अपने इस निर्णय पर विचार करने के लिए कहा है। मध्य प्रदेश में भिंड से भाजपा के सांसद भगीरथ प्रसाद ने कहा कि मुख्यमंत्री का यह बयान संसद द्वारा पास कानून के अनुकूल नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसा निर्णय लिया है। उन्हें अपने इस निर्णय पर विचार करना चाहिए, जो उन्होंने दबाव में लिया है। मुख्यमंत्री उन कदमों को रद्द नहीं कर सकते, जिन्हें प्रधानमंत्री ने दलितों के हितों की रक्षा के लिए उठाया था।

इस पूरे प्रसंग में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर किन कारणों से और किन शक्तियों के दबाव मेंं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को यह बयान देना पड़ा, जबकि एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) संसोधन अधिनयम 2018 को मोदी सरकर दलितों के हित में उठाया गया अपना एक बड़ा कदम मानती है। इसे अपनी उपलब्धि को रूप में देखती है। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को रद्द करते हुए संसद में यह एक्ट पास किया था।
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असल बात यह है कि एससी-एसटी एक्ट का मामला अब भाजपा के गले का फांस बन गई है। जहां इस एक्ट के चलते सवर्ण भाजपा से बुरी तरह नाराज दिख रहे हैं, वहीं कांग्रेस इस नाराजगी का फायदा उठाने और अपने सवर्णों को अपनी ओर करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। राहुल गांधी को जनेऊधारी ब्राह्मण पहले ही साबित किया जा चुका है। अब कांग्रेस के डीएनए को ब्राह्मण डीएनए घोषित कर यह भी साबित किया जा रहा है कि नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी सब ब्राह्मण ही तो थे। कांग्रेस पार्टी जगह-जगह ब्राह्मण सम्मेलन भी कर रही है। हाल में बिहार में भाजपा से नाराज हो रहे सवर्णों को अपनी ओर करने के लिए कांग्रेस ने मदनमोहन झा को बिहार कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाया है। ध्यान रहे कि आजादी के बाद से ही सवर्णों की मुख्य पसंद कांग्रेस ही रही है। किसी विशिष्ट परिस्थिति में किसी खास समय में ही सवर्णों ने कांग्रेस से अलग अन्य पार्टी को वोट दिया है। हालांकि दोनों ही पार्टियाँ इस देश में उच्च जातीय वर्चस्व की स्तम्भ रही हैं।
मध्यप्रदेश एससी-एसटी एक्ट के विरोध का सबसे मुखर केंद्र बन गया है। 6 सितंबर, 2018 के सवर्ण बंद का आह्वान मध्यप्रदेश से हुआ था। भोपाल में 4 सितंबर को राजपूत करणी सेना के बैनर तले एससी-एसटी एक्ट के विरोध में एक बड़ी रैली की गई। यह वही करणी सेना है जो पद्मावत फिल्म के प्रदर्शन के दौरान हिंसा फैला रही थी। रैली का आयोजन कथा वाचक देवकी नंदन ठाकुर ने किया था। बाद में यही देवकी नंदन ठाकुर एससी-एसटी एक्ट के विरोध में सवर्णों का सबसे प्रमुख चेहरा बनकर सामने आया। सवर्ण भारत बंद का असर भी मुख्यत: मध्यप्रदेश, राजस्थान और कुछ हद तक बिहार के सवर्ण बहुल क्षेत्रों में देखने को मिला था।

मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति 15.1 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति 21.1 प्रतिशत है यानी करीब 36 प्रतिशत एससी-एसटी हैं। सबसे बड़ी आबादी ओबीसी समुदाय की है, 50 प्रतिशत से अधिक है। 13 से 15 प्रतिशत के बीच सवर्ण है। मुसलमानोंं की आबादी यहां 6.6 प्रतिशत है। जनसंख्या के तौर पर भले सवर्णों की आबादी मध्यप्रदेश में कम हो, लेकिन मध्यप्रदेश उन प्रदेशों में शामिल है, जहां जीवन के सभी क्षेत्रों में सवर्णों का बहुत ज्यादा वर्चस्व है। 1956 से लेकर अब तक मध्य प्रदेश में न केवल आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर सवर्णों का वर्चस्व रहा है, बल्कि राजनीति भी उनके ही नियंत्रण में रही है। 1 नवंबर 1956 में मध्यप्रदेश के पहले कांग्रेसी मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल से लेकर 29 अप्रैल 1977 तक के श्यामाचरण शुक्ल तक कमोवेश ब्राह्मण ही मुख्यमंत्री रहे। कांग्रेस सत्ता से बेदखल भी हुई तो, ब्राह्मण कैलाश चंद्र जोशी ही जनता पार्टी के मुख्यमंत्री बने। 1980 में कांग्रेस की वापसी के बाद ठाकुरों का दौरा शुरू हुआ। बीच-बीच में ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनते रहे। हां, भाजपा के सत्ता में आने पर उमा भारती और बाद में शिवराज सिंह चौहान जैसे ओबीसी समुदाय से आने वाले लोग मुख्यमंत्री बने। ओबीसी समुदाय से आने वाले ये मुख्यमंत्री ओबीसी समुदाय के होते हुए भी फुले, शाहू जी महराज, डॉ.आंबेडकर की बहुजन विचारधारा की नहीं, बल्कि हिंदुत्ववादी विचारधारा की सहायता से आए थे। यहां तक कि मध्यप्रदेश में लोहिया के सामाजिक न्याय के आंदोलन का भी कोई राजनीतिक असर नहीं था। यहां कांशीराम की राजनीति भी अपने लिए कोई जगह नहीं बना पाई थी।
ये सारे तथ्य यह बताते हैं कि मध्य प्रदेश की राजनीति पर आज भी किसी भी अन्य प्रदेश की तुलना में सवर्णों का निर्णायक प्रभाव है, भले ही उन्हें ओबीसी समुदाय से आये शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री स्वीकार करना पड़ा हो। अकारण नहीं है कि मध्यप्रदेश एससी-एसटी एक्ट को विरोध का सबसे बड़ा और मजबूत केंद्र बन कर उभरा है। यहां सवर्ण आक्रामक तरीके से एससी-एसटी एक्ट का विरोध कर रहे हैं। जिस विरोध को कांग्रेस भीतर-भीतर और खुले रूप में भी समर्थन दे रही है। इसके साथ ही इस विरोध को भाजपा के सवर्ण नेताओं का भी समर्थन प्राप्त है, कहीं खुले तौर पर और कहीं अप्रत्यक्ष तरीके-से। पार्टी दायरे से बाहर जाकर सवर्णों की यह गोलबंदी शिवराज सिंह और भाजपा पर भारी पड़ रही है। सवर्णों की इस गोलबंदी के निशाने पर व्यक्तिगत तौर पर भी शिवराज सिंह चौहान हैं।
शिवराज सिंह चौहान सवर्णों के इस आक्रामक हमलावर तेवर के सामने झुक गये और उन्होंने एससी-एसटी एक्ट में बदलाव का ऐलान कर दिया।
(कॉपी-संपादन : राजन)
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