एक लोकोक्ति है ‘जाके पांव फाटे बेवाई उ का जाने पीर पराई’। शायद यही वजह रही कि परशुराम राम ने जब जवानी की दहलीज पर कदम रखा और उनपर पारिवारिक जिम्मेवारी का बोझ बढ़ने लगा तब वे रोटी की जुगाड़ में मजदूरी करने गए और दलित, आदिवासी मजदूर के बच्चों को भी अपने मां-बाप के साथ काम करते देखा, तो उनके मन में एक टीस के साथ सवाल उभरा कि ‘क्या ये बच्चे भी मजदूर ही बनेंगे?’
यह सवाल बराबर उनका पीछा करता रहा और वे अंदर ही अंदर इस सवाल से उत्पन्न समस्या का समाधान ढूंढते रहे। अंतत: एक दिन समाधान मिला, मिला नहीं बल्कि सुझा। उन्होंने उन नौजवानों से जो अपनी पढ़ाई के साथ-साथ ट्यूशन वगैरह पढ़ाकर अपनी जीविका भी चलाते थे, को अपने भीतर की टीस के साथ उभरे सवाल से परिचय कराया। तब शुरू हुआ मजदूरों के बच्चों को शिक्षित करने का परशुराम का मिशन। वे शिक्षित नौजवान मजदूर के बच्चों को पढ़ाने को तैयार हो गए। बदले में परशुराम ने उन्हें अपनी मजदूरी से मिले पैसा भी देते रहे।
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