भारत में बहुजन आंदोलन जितने सफल और प्रभावकारी महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में दिखते हैं, वैसे उदाहरण उत्तर भारत के राज्यों में कम ही देखने को मिलते हैं। 25 जनवरी 2017 को भारत पाटणकर से हमारी मुलाकात एक ऐसे ही बहुजन आंदोलन को नजदीक से जानने और समझने का मौका साबित हुई। लेकिन, महराष्ट्र के सांगली जिले के सुदूर इलाके में रहने वाले डॉ. पाटणकर के घर पहुंचना सहज नहीं था। इससे पहले हम अपनी भारत यात्रा के दौरान फुलेवाड़ा पहुंचे, जो महात्मा जोती राव फुले व सावित्री बाई फुले की कर्मस्थली है। वहां से करीब 200 किलोमीटर दूर है कसेगांव, जहां हम सतारा जिला होते हुए पहुंचे। यह जिला भी जोती राव फुले से जुड़ा है। इसी जिले के खाटव ताल्लुका के काटगुन गांव में फुले के पूर्वज रहते थे, जो बाद में फुलेवाड़ा में बस गये थे। सांगली जिले के कसेगांव जाने के पीछे हमारी इच्छा उस दंपति (गेल ऑमवेट व भारत पाटणकर ) से मिलने की थी, जिसने भारत के बहुजन आंदोलन को न केवल नये नजरिये से समझा, बल्कि उसे दुनिया के सामने प्रस्तुत भी किया। अपनी इस बातचीत के दौरान हम लोगों ने महाराष्ट्र में बहुजन आंदोलनों और सांस्कृतिक लड़ाई को भी समझने की कोशिश की। हम सौभाग्यशाली रहे कि भारत पाटणकर ने हमारे सवालों को सुना और अपने विचारों से अवगत कराया। उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :
सांस्कृतिक आधार के बगैर राजनीतिक अधिकार संभव नहीं : भारत पाटणकर
- एफपी ऑन द रोड
एफपी टीम : भारत भ्रमण के दौरान महाराष्ट्र पहुंचने पर हमने पाया है कि यहां देव पूजा का काफी महत्व है। साथ ही बौद्ध धर्म का प्रभाव भी दिखता है। आप क्या कहेंगे?
भारत पाटणकर : देखिए, महाराष्ट्र के सभी लोकाचार (मान्यताओं) में हमारे कुल दैवत (कुल देवता) और ग्राम दैवत (ग्राम देवता) मिलेंगे। ये हमारे पुरखे हैं, भगवान नहीं हैं। हमारे देव उनके ब्रह्मा-विष्णु-महेश जैसे नहीं हैं, जो स्वर्ग में रहते हैं। आसमानी देवताओं का सारा खेल तो हाल-फिलहाल का है। अभी हाल के वर्षों में कुछ धारावाहिक बनाने वालों ने इनकी स्टोरी बदलकर, उन्हें स्वर्ग-नरक से जोड़ दिया।
- विट्ठोबा आंदोलन से भारत पाटणकर ने महाराष्ट्र में सांस्कृतिक संघर्ष को दिया नया आयाम
- ब्राह्मणों ने विट्ठोबा को विष्णु का अवतार बताया था
- डी. डी. कोसंबी और रामचंद्र चिंतामण ढेरे ने हिंदू धर्म की मान्यताओं को किया था खारिज

एफपी टीम : अच्छा! इन देवताओं में एक बड़ा अंतर है। अंतर यह कि जो ब्राह्मणों के देवता हैं/ईश्वर हैं, वे बाहर रहते हैं। उनसे सब केवल आशीर्वाद लेते हैं, जबकि जो कुल देवता या पुरखे हैं, वे लोगों के जीवन के साथ-साथ चलते हैं। यानी कब शादी करनी है, क्या व्यापार करना है, ज़मीन-जायदाद आदि खरीदनी है, या फिर कब खेती करनी है? तो उनसे सलाह लेते हैं यानी पूछते हैं।
भारत पाटणकर : हरेक कुल दैवत और ग्राम दैवत की अपनी एक कहानी है। कहना गलत नहीं होगा कि ये कहानियां भी ब्राह्मणवादी सोच की उपज हैं, उनका असलियत से कुछ लेना-देना नहीं है। उसमें कुछ नहीं है। उदाहरण के लिए विट्ठल देव पूजा को ही देखें। महाराष्ट्र में हर साल एक बड़ा समारोह होता है। यह कब और कैसे प्रारंभ हुआ, यह कोई नहीं जानता है। आप जाएंगे, नमस्कार करेंगे और चले आएंगे। वहां दो-तीन सौ किलोमीटर दूर तक से लोग बड़ी संख्या में चलकर जाते हैं। उसे वारी (यात्रा) कहते हैं। वहां कुछ लोग ऐसे हैं कि जो चलकर नहीं आते हैं। वे लोग लाइन में खड़े होकर उधर अंदर ही उनके दर्शन लेते हैं। लेकिन, जो लाखों लोग चलकर आते हैं, वे सिर्फ मंदिर के ऊपर लगा कलश देखेंगे और हो गया। वे मान लेते हैं कि विठ्ठोबा को हमने देखा, अब हम चलते हैं। पूजा अंदर पुजारी लोग करते हैं। हमारा उससे कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन, अभी बदल दिया। इसके लिए हमने विठ्ठल रुक्माई मुक्ति आंदोलन नाम का एक बड़ा आंदोलन किया।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
एफपी टीम : इस आंदोलन के बारे में विस्तार से बताइए?
भारत पाटणकर : इस विषय पर दामोदर धर्मानंद कोसंबी (31 जुलाई 1907 – 29 जून 1966) ने बहुत अध्ययन किया है। उनके अतिरिक्त पूना के एक विचारक व लेखक रामचंद्र चिंतामण ढेरे (1930 – 1 जुलाई 2016)[1], जो अब नहीं रहे, ने भी काफी अध्ययन किया था इस पर। ढेरे वैसे तो एक ब्राह्मण थे, लेकिन उन्होंने बताया कि ब्राह्मणवादी सत्ता ने यह सब कैसे विकृत कर दिया। देवताओं को कैसे बदल दिया। उनकी कथाएं कैसे बदलीं। उनके लक्षण कैसे बदले। सबूत कैसे बदले – इस पर बहुत अच्छे तरीके से बहुत ही ठोस सबूत के साथ उन्होंने लिखा है। ग़ैर ब्राह्मण तो बिना सबूत के (ब्राह्मणों की बनायी परम्पराओं पर) बोल देते हैं। लेकिन कोसंबी ने यह दिखाया कि इधर महाराष्ट्र में जो 10 हजार साल पहले पाषाण कालीन युग था, तब कृष्णा, गोदावरी नदी के किनारों के आसपास खादर[2] पड़ा था, वहां बहुत बड़ा और घना जंगल था। वहां काली मिट्टी है, जिसमें उन दिनों बहुत दलदल रहती थी। उस समय जमीन को खेती के लायक बनाना संभव नहीं था। लोहे का आविष्कार हुआ नहीं था। तब तक कृषि आधारित संस्कृति का जन्मना संभव ही नहीं था। लोग सूखे क्षेत्रों, पहाड़ों आदि पर जाते रहते थे और भेड़-बकरी और थोड़ी संख्या में बड़े मवेशी लेकर। कोसंबी ने भी उसी रास्ते का अनुसरण किया और लिखा कि जिस रास्ते पर वारकरी[3] लोग जाते हैं। उन्होंने उसके आधार पर बहुत सारे यानी 100 प्रतिशत तथ्य जुटाए और सिद्ध किया कि ये लोग ज्यादा बरसात होने पर सूखे इलाकों में इसलिए चले जाते थे, क्योंकि इधर दलदल में बरसात के दिनों में भेड़ आदि के खुर सड़ जाएंगे। तो इधर से वे लोग कम बरसात वाले इलाकों में जाते थे। पंढरपुर कम बरसात वाला इलाका है। महाराष्ट्र के अन्य इलाकों की अपेक्षा शिरडी भी कम बरसात वाला इलाका है। वहां भी जाकर लोग ठहरते थे। अभी ये रास्ते इधर मिलते हैं महाराष्ट्र में, जिनसे वारकरी लोग आते-जाते थे। उधर पंढरपुर के नजदीक वारकरी नाम का एक गांव है। उधर अभी भी कुछ बना नहीं है। वहां अभी भी एक बड़ा मैदान है, वहां ये मिलते थे और चारों ओर फैल जाते थे। बरसात होने की वजह से वो सभी इलाके जो सूखे के थे, हरे-भरे हो जाते थे, जिसमें भेड़-बकरियां और दूसरे बड़े मवेशी आसानी से रहते थे। अभी वे वहां अप्रैल तक रहेंगे। यानी अाषाढ़ (जून) में ये उधर (सूखे इलाकों में) जाएंगे। कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर के मध्य) में वहां सब सूखा हो जाएगा और उधर ठीक से पानी नहीं मिलेगा। तब ये लोग मवेशियों के साथ घूमते हुए उधर से इधर फिर आ जाएंगे। उनका यह हर साल का नियम था। तो वह जो पंढरपुर यात्रा का वृतांत है, उसमें यह (विठ्ठल) नायक थे, जिसको वीर कहते थे। वीर मतलब लड़ने वाला। जिन्होंने कुछ लड़कों को संकट से बाहर निकाला। वे उसका एक पत्थर खड़ा कर देते थे। यह वीर का बदला हुआ नाम है विठ्ठोबा। ब्राह्मण लोगों ने उसी विठ्ठोबा को विष्णु वगैरह का अवतार कर दिया। बीच में ऐसा हो गया कि वहां बडवे और उत्पात नाम के कुछ ब्राह्मणों ने इनकी सभी कहानियां बदल दीं। उन्होंने पुराणों में विठ्ठल को विष्णु का अवतार बना दिया और मंदिर उनके हाथ में था। तो मंदिर में जैसे कि चाेखामेला[4] एक वारकरी संत थे म्हार समाज के। हालांकि, अब इस समाज के अधिकांश लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया है।
उनकी एक कविता है, जिसमें वह कहते हैं, “हे विठ्ठल! मेरे गले में तुम्हारा हार आ गया, तो यह बडवे लोग मुझे मार रहे हैं। यह उनको मालूम नहीं है कि तुमने मुझे यह हार भेंट दिया हुआ है। इसलिए आप इन्हें बताओ कि मैं आपका आदमी हूं।”
इस तरह बहुत सारे उद्धरण हैं। यहां एक बात बतानी जरूरी है, वह यह कि उस समय हर जाति के संत होते थे। पुरुष और महिला संत समान थे। जैसे कि माली, कुम्हार, महार, दर्जी, कुनवी हैं। वे उनमें से हैं – कुनबी और मराठा। दोनों एक ही हैं। जो हर उत्पीड़ित जाति है महाराष्ट्र की, उसे ब्राह्मणों ने जातियों में बांटा – ऐसे लोग हैं ये। और उस समय जिनकाे अधिकार नहीं था – न्याय लेने और करने का, वे लोग बस ईश्वर के एक अनुभवमंडप में जमा होकर चर्चा करते थे। तो वासवन्ना[5] ने 12वीं सदी में एक जातिवाद विरोधी आंदोलन चलाया, ब्राह्मणवादियों द्वारा बनाये नियमों के खिलाफ। उन्होंने ऐसा लिखा है कि यह विठ्ठल एकमेव अद्वितीय है। यह दूसरा कोई नहीं है। यह विष्णु नहीं है। विष्णु क्यों नहीं है? इस बारे में उन्होंने बताया कि विष्णु के यह लक्षण होते हैं, वो लक्षण होते हैं। तो इस तरह जाति विरोधी विचारधारा हर एक कविता में खूब है। यह ऐसे ही चलते आया और आज़ादी के कुछेक साल बाद पांडूरंग सदाशिव साने गुरुजी (24 दिसंबर 1899 – 11 जून 1950) थे, जो समाजवादी थे। उन्होंने उधर मंदिर में अस्पृश्य जातियों को प्रवेश न मिलने के खिलाफ अनशन किया था मरने तक। उस अनशन में सभी वारकरी संत शामिल हुए थे। उन्होंने कहा कि बडवे और विठ्ठल का कुछ संबंध नहीं है। यह हमारे देव हैं। ये जो बडवे वगैरह हैं, इनकी विचारधारा हमें गुलाम बनाने वाली है। हमें गुलाम बनाने वाले हमारे देवता की या हमारे प्रतीक की कैसे पूजा कर सकते हैं? तो उनको (ब्राह्मणों को) मंदिर में सभी जातियों को प्रवेश देना पड़ा। तो महाराष्ट्र सरकार को यह कानून बनाना पड़ा कि इनको (ब्राह्मणों के रीति-रिवाज को) निकाला जाए। तब यह निकालने के बाद वे लोग कोर्ट में गए। कोर्ट में केस चला, जो सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन हाई कोर्ट में यह केस 45 साल चला। क्योंकि, सरकार वकील ही अच्छा नहीं देती थी। फिर उस वक्त जब हाईकोर्ट ने कहा कि यह सरकार का कानून है, यह सही है। उस वक्त हम लोगों ने फिर से नया आंदोलन किया कि मंदिर से बडवे लोगों का कोई संबंध नहीं है, इनको हटाओ। तब बहुत सारे लोगों ने पंढरपुर के आसपास जाकर एक तरीके का दबाव बढ़ाने वाला जन आंदोलन खड़ा कर दिया। उस वक्त हम लोगों ने उनको बाध्य कर दिया कि अच्छा वकील देना चाहिए।
एफपी टीम : इस आंदोलन की रूपरेखा क्या थी? क्या अाप धरना-प्रदर्शन करते थे?
भारत पाटणकर : हम प्रदर्शन तो करते ही थे। साथ ही मंदिर की तरफ मोर्चा निकालकर जाते थे। बडवे लोगों को रोकने की कोशिश भी कुछ वक्त तक की थी। वारकरी लोग जिधर जमा होते थे, उधर भी हम लोग एक जगह बैठकर आंदोलन करते थे, जिसे हम इधर ‘ठीया आंदोलन’ बोलते हैं। इसमें हजारों लोग बैठकर रहेंगे और तब तक नहीं हिलेंगे, जब तक कि रिस्पांस (प्रति वचन) नहीं मिलेगा। उसके बाद बडवे लोगों को हटाया गया। इसके सकारात्मक परिणाम आये। अभी उसमें जो पुजारी हैं या जो मंदिर-मूर्ति की सफाई आदि का काम करने वाले लोग हैं, वे साक्षात्कार के द्वारा चुनकर आते हैं। उसमें हर जाति के लोग हैं, औरतें भी हैं। लेकिन, फिर इन्होंने क्या किया कि पूजा के लिए ब्राह्मण ही चुने जाने लगे कि इस विशिष्ट जगह पर उन्हें ही खड़े होना है। क्योंकि, बाकी लोगों को तो मालूम नहीं था कि क्या है यह। तो बीते साल वह भी हम लोगों ने बंद करा दिया, अंदर घुसकर। हमने सवाल किया। तुम दिखाओ हमें कि कहां ऐसा लिखा है कि पूजा दूसरे लोग नहीं कर सकते? इसका क्या संबंध है इन सब में? जैसा यह कर्मचारी है, वैसे ही वह भी कर्मचारी है। बस उसका प्रशिक्षण ले लो। क्या करना है उसमें? मूर्ति धोना क्या बड़ी चीज है? कौन-सा उसमें ज्ञान चाहिए? और हमने प्रतीक भी बदले थे। उसके बारे में कहा कि यह विठ्ठल की मूर्ति जो है, वह कंधे पर छह फुट कंबल डाले और लाठी हाथ में लिए हुए है, जो चरवाहे और किसान जैसा है। तो इसको यह रेशम वगैरह किसने पहनाया है?
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कानून में क्या है? कुछ ब्राह्मण होंगे, उधर मंत्रालय में। यह बदलने का अभी सवाल है। लेकिन, अब उसकी प्रॉपर्टी भी वहां आ गई। प्रॉपर्टी में बहुत सारी ज़मीन है, जो मंदिर को मिली। इससे मंदिर की आय कम से कम 15 गुना बढ़ गयी और दर्शन के लिए ये लंबे अंतर से उधर दूसरे लोगों को जो रोकते थे, तो अभी सभी लोग सीधे मूर्ति के पास जाते हैं। इसके साथ ऐसी व्यवस्था की है कि अब लाखों लोग भी 3-4 घंटे में दर्शन कर लेते हैं।
एफपी टीम : वह जो वस्त्रों-प्रतीक के बदलने की बात हुई, वह हो गया?
भारत पाटणकर : नहीं, अभी प्रतीक का हो गया। लेकिन, उधर एक पूजा की जो अनिवार्यता कानून में है…।
एफपी टीम : नहीं, अब उनको कौन से वस्त्र पहनाए जाते हैं?
भारत पाटणकर : हां, अभी क्या है उसमें पुरुष सूक्त से विठ्ठोबा की मुख्य पूजा होती है। पुरुष सूक्त जो ऋग्वेद में हैं। पुरुष सूक्त में ऐसा कहा है कि ब्रह्मा ने एक बहुत बड़ा मानव तैयार किया, जो विश्वव्यापी था और उसके मुख से ब्राह्मण आ गया, वगैरह-वगैरह! ये संत तो इसके खिलाफ थे। विठ्ठल की कहानी भी इसके खिलाफ है। क्योंकि, ऐसी कहानियां हैं कि विठ्ठल नामदेव शिम्पी (दर्जी) के साथ खाना खाते थे। खाना खाने के बाद बडवे यह बोलकर कि अाप अशुद्ध हो गये, तो आपको शुद्ध करना चाहिए। शुद्ध करने के बाद विठ्ठल फिर से जाता है नामदेव को बुलाकर फिर से उसके साथ खाना खाता है। कहता है कि कितनी बार तुम मुझे शुद्ध करोगे। तो विठ्ठल उनको कहता है कि यह शुद्धता वगैरह व्यर्थ है। ऐसी कहानियां ज्यादा हैं। हम यह सभी सबूत सामने लाये हैं, ताकि विट्ठल का प्रमाणिक संदर्भ ही सामने लाया जा सके। दूसरे लोगों का दृष्टिकोण इसमें क्यों शामिल किया जा रहा है? बडवे लोगों को हटाने के बाद, उनका दिमाग जो इधर चल रहा है, वह भी हटाना चाहिए। तो हम अब उसमें लगे हैं।
एफपी टीम : मौजूदा दौर में जो देश और संसार में वैश्वीकरण के नाम पर चल रहा है, उसके बारे में आप क्या कहेंगे?
भारत पाटणकर : देखिए, कई तरह की समस्याएं और मुद्दे रहे। इसके अपने ताने-बाने रहे। इनमें पूंजीवाद का खतरा तो है ही, राजनीतिक घालमेल भी बहुत रहा है। यह बात समझने की है कि सारा खेल पूंजी का है। पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मोड भी ऐसा ही एक पूंजीवादी खेल है। सरकार कहती है कि पूंजी के निवेश करने पर उसका जो रिटर्न (वापसी) यानी सरप्लस मिलता है, वह बहुत धीमा है और वह पूंजी काफी ज्यादा है। यह हम नहीं करेंगे, यह सरकार करेगी। उदाहरण के लिए बॉम्बे प्लान को ही लें। यह प्लान आजादी के पहले का था और जो वर्तमान में हो रहा है, वह इसी प्लान के तहत किया जा रहा है। व्यक्तिगत पूंजी व उत्पादन के संसाधनों पर एकाधिकार खत्म करने के लिए कई महत्वपूर्ण पहल इंदिरा गांधी ने भी की थीं। इसमें बैंकों और खदानों का राष्ट्रीयकरण शामिल था।
वामपंथी जैसे सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई (एमएल) भी यही कहती हैं। जमीन को बांटो। भूमि सुधार लागू करो। कहने का आशय यह है कि अगर सभी उत्पादन के साधन स्टेट के बन गए, तो लोगों के नहीं बनते। अगर बने होते, तो रूस में जो हुआ, वह नहीं होता। एक तो उत्पादन-साधन बराबर (ठीक) है कि नहीं। तो हम कहेंगे कि उनके उत्पादन साधन ही गलत है। डी.डी. कोसंबी और मेघनाथ साहा (वैज्ञानिक) जब टाटा इंस्टीट्यूट के फंडामेंटल रिसर्च में थे, तब कोसंबी ने वहां की ‘एग्जास्प्रेटिंग एसेज’[6] नाम की एक किताब में तीन-चार लेख लिखे। उसमें भी लिखा है कि अभी इधर जो प्रक्रिया आधारित विकास है, वह केंद्रीय ही होना है। तो आप सोसायटी कैसी बनाने वाले हैं? यह प्रदूषण वाली सोसायटी? तो सभी प्राकृतिक संसाधन खत्म हो जाने के बाद आप क्या करेंगे? यह सवाल पैदा होगा। अभी सवाल पैदा ही हुआ है फिर और ज्यादा सवाल पैदा होंगे। मार्क्स और फुले ने यह 19वीं शताब्दी में कहा है। मार्क्स ने कहा है कि प्रकृति ने जो संसाधन दिये हैं, वो वापस नहीं होते हैं और अगर वापस होते हैं, तो प्रदूषित/विषैले/गंदे तरीके से होते हैं। यह जो हम प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके उपयोग करते जा रहे हैं। तो यह हमें संशोधित करके उसी रूप में वापस भी तो करने हैं। मार्क्स की बातों में अंतर्विरोध भी दिखता है। मार्क्स ने अपनी किताब ‘कैपिटल’ के वाल्यूम-एक में कहा है कि उत्पादन-साधन मजदूरों द्वारा हाथ में लेने से समाजवाद आता है। उसी किताब में यह भी कहा है कि ऐसा नहीं है। इस तरीके से जो चालू है, यह शोषण को खत्म नहीं करेगा। तो सवाल यह है कि यह जो सभी है, यह राजकीय पूंजी बन गया। बाकी छोड़ दें। मान लें कि ये चीजें बाजू मेें (अलग) रखी हैं। यह जीवाश्म ईंधन है, कि नहीं है? जीवाश्म ईंधन का तो केंद्रीयकरण होगा ही। यानी एक जगह ही होती है कि जीवाश्म मिलता है। लेकिन, एक दूसरी तरफ देखें, तो यह क्या है? पूंजी पर राज्य का मालिकाना हक कायम हो जाने का मतलब समाजवाद नहीं है। क्योंकि, इधर हम, हमारे श्रमिक बिकते ही हैं। श्रम बिकता ही है। तो यह हम कैसे कहेंगे कि समाजवाद बन गया। यह एक जो नेशनलिज्म है, पेटी बुर्जुआ नेशनलिज्म है कि यह ऐसा हो गया, तो समाजवाद आ गया। निजीकरण जो बोलते हैं और अभी क्या बोलते हैं यह कि वैश्वीकरण क्या है? यह उदारीकरण, निजीकरण अौर वैश्वीकरण। अब यह निजीकरण क्या नई चीज है? किसको फंसा रहे हैं आप? खुद को फंसा रहे हैं। दूसरे को फंसा रहे हैं। पूंजीवाद तो पूंजीवाद है। यह शुरू हो गया, तो निजीकरण नहीं था? पूरा निजीकरण था। यानी या तो बता दीजिए जैसे कि ऐसे लगे कि निजीकरण कोई नई चीज है, पूंजीवाद में। वह तो आधार ही है पक्का, इसके ऊपर। पूंजी तो वैश्वीकृत थी ही। यह कोई नई चीज नहीं है। स्थापित वैश्वीकरण है, ऐसा कहना चाहिए। तो फिर पूंजीवादी क्यों विरोध करेगा? अपनी मेहनतकश जनता को समझेगा। तो ये (पूंजीवादी) नहीं मदद करते हैं। तो पेटी बुर्जुआ, सभी राष्ट्रवादी इसके साथ आते हैं। और लड़ाई क्या हो गई? यह यूनियन वाले काली पट्टी लगाएंगे, सभी नीचे आएंगे, मुर्दाबाद-मुर्दाबाद करेंगे, और खत्म। तो यह वैश्वीकरण नहीं चाहिए तुमको, तो क्या चाहिए? हमको वैश्वीकरण चाहिए कि नहीं चाहिए? न्याय का वैश्वीकरण चाहिए। वैज्ञानिक खोज का वैश्वीकरण चाहिए। ज्ञान का वैश्वीकरण चाहिए। तो वैश्वीकरण बुरी चीज है, ऐसा आप कैसे बोल सकते हैं? हम तो कहेंगे कि निजी हो या सार्वजनिक, पूंजी तो पूंजी है। इसमें से बहुत लोगों को गुमराह किया गया, कम्युनिस्टों के द्वारा।
एफपी टीम : हां, कम्यूनिस्ट पार्टी बार-बार बोल रही है कि वैश्वीकरण गलत है। जबकि मार्क्स का जो सिद्धांत है, वह खुद वैश्वीकरण की बात करता है। क्योंकि वैश्वीकरण सिर्फ उत्पादन का वैश्वीकरण नहीं होता है। बहुत सारी चीजों का होता है।
भारत पाटणकर : हां, मैंने इस पर मराठी में एक किताब भी लिखी है।
एफपी टीम : बहुत अच्छा है, अगर हिंदी/अंग्रेजी में होता, तो और अच्छा था। हम लोग हिंदी क्षेत्र के हैं, तो मराठी में दिक्कत होती है।
भारत पाटणकर : करेंगे, उसके लिए कुछ।
- वैश्वीकरण ने खोले हैं नये रास्ते
- हमें चाहिए ज्ञान-विज्ञान का वैश्वीकरण
- पूंजी हर हाल में पूंजी ही होती है चाहे वह निजी हो या सरकारी
- राजनीतिक आधार से पहले सांस्कृतिक आधार जरूरी
एफपी टीम : हिंदी में तो गेल की एक ही किताब है?
भारत पाटणकर : हां, हिंदी में गेल की एक ही किताब का अनुवाद हुआ है, जो दलितों पर है। अभी मराठी में एक बुद्धिज्म की किताब है। बहुत सारी किताबें हैं, सब बुद्धिज्म पर हैं।
एफपी टीम : आप जो बोल रहे हैं, यही लेफ्ट की आधुनिक आलोचना है। यूं समझें कि लेफ्ट के चरित्र में बदलाव हो रहे हैं। भारत में कुछ लोग बोल रहे हैं। यहां तक कि ब्रिटेन में भी है। जो पुराने ढर्रे के वामपंथी हैं, वे भी अब आंबेडकर के नीति और सिद्धांतों को मानने लगे हैं। यह अच्छी बात है। मार्क्स को साइड कर उन्होंने ऐसा किया है। देखें कि इसका भी वे वामपंथी ही विरोध कर रहे हैं, जो ब्राह्मण भी हैं और वामपंथी भी।
भारत पाटणकर : नहीं! नहीं!! बुद्ध और मार्क्स ने तीन-चार चीजें कही हैं, जो समान हैं। पहली बात यह कही उन्होंने कि यह जो दर्शन है, यह सिर्फ व्याख्या के लिए नहीं है, यह दुनिया बदलने के लिए है। पुनर्निमाण करने के लिए है। दूसरा, उन्होंने कहा है कि यह जो मेहनतकश हैं, उनका शोषण होता है। यह जो दो बाजू (हाथ यानी दो तरह के लोग- शोषक और शोषित) हैं। पहले वे, जो शोषण करने वाले और दूसरे वे, जो जिसका शोषण होता है। ये दोनों बाजू के खत्म होने से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है कुछ लोगों को। तीसरा उन्होंने कहा कि निजी संपत्ति जब तक है, तब तक यह खत्म नहीं होगा। यही बाबा साहब ने कहा। वहीं अभी इसका रियल बचा हुआ है। बाकी का सभी कुछ स्पेशिफिक था, कुछ मार्क्स ने भी…।
एफपी टीम : अभी वैश्वीकरण के बारे में आपने जो कहा कि तकनीक का वैश्वीकरण हो रहा है। फारवर्ड प्रेस ने एक लेख भी प्रकाशित किया था कि कैसे जो नई तकनीक है, वो लोगों को बदल रही है, उन्हें सशक्त कर रहा है। खासकर मैं उनकी बात कर रहा हूं जो डर्टी वर्क (गंदे काम) में लगे थे, चाहे वो मैला साफ करते हुए। चाहे वो नाली साफ करते हुए। चाहे वो सड़क पर झाड़ू लगाते हों। तो इसके बारे में क्या कहेंगे? क्या वे जो अस्पृश्य थे, उनको कहीं बदला है, सशक्त किया है इसने?
भारत पाटणकर : हालांकि, 1978 में फ्रंटियर में मैंने एक लेख लिखा था। कि यह स्वचालन कोई ऐसी चीज नहीं, जो बेरोजगारी बढ़ाएगा। स्वचालन का इस्तेमाल कैसे होता है? निर्भर करता है कि बेरोजगारी बढ़ेगी कि नहीं बढ़ेगी? नहीं तो आपके कहने का मतलब एेसा होगा कि यह पूरे शारीरिक श्रम पर निर्भर उत्पादन के जो सभी काम हैं, वो ऐसे ही करेंगे कि पसीना आना ही चाहिए। एकदम पीठ दुखनी ही चाहिए, ऐसा कुछ नहीं है न? तो यह गलत बात है और ऐसा कुछ हुआ भी नहीं। स्वचालन जबसे आया, कार्यालयों में कम्प्यूटर हैं। यानी बहुत ज्यादा बेरोजगारी बढ़ेगी वैश्वीकरण के बाद। वह नहीं है। अभी हमारे इधर सभी एसटीडी बूथ लगे हैं। हमारे जो बच्चे झोपड़पट्टी में रहकर कुछ करते, वे बूथ चलाकर कुछ कर रहे हैं। हमारे गांव में अभी बहुत लोग कम्प्यूटर चलाने वाले हैं। उधर जाकर काम उनको मिल रहा है। तो यह पूंजीवाद के अंदर है। लेकिन, अगर यह तकनीक हमने पूंजीवाद या वैश्वीकरण की वजह से जो कुछ स्वतंत्रता वैज्ञानिकों को मिली, उसकी वजह से जो कुछ आविष्कार हो गए हैं, उन्हें उनके खिलाफ हम इस्तेमाल कर सकते हैं कि नहीं?
एफपी टीम : कर ही रहे हैं, सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर ही रहे हैं।
भारत पाटणकर : नहीं, सोशल मीडिया तो है ही। उससे भी ज्यादा आवश्यक समाज के पुनर्गठन के लिए, उसे ज्यादा समृद्ध और शोषण रहित बनाने के लिए उत्पादन प्रक्रिया सहायक रही है। उधर ले जाने वाले पुनर्गठन को वे आगे नहीं ला रहे हैं। इधर, हमने आंदोलन बड़ा किया, जिसमें रिलायंस काे हराया। रिलायंस ने तीन हजार मेगावाट्स रिलायंस कोल वेस्ड पॉवर प्लांट (कोयले से बिजली बनाने का प्लांट) रायगढ़ जिले में समुद्र किनारे लगाने की योजना बनायी। पूरे 22 गांवों की ज़मीन उसमें जाने वाली थी। वे सभी गांव विस्थापित होने वाले थे। तब हम लोगों ने कहा कि यही तीन हजार मेगावाट बिजली का अभी के आविष्कार के आधार पर हम अक्षय ऊर्जा (रिन्युवल वेस) के तरीके से उत्पादन कर सकते हैं। तो सभी क्षेत्रों में काम करने वाले- औरतों समेत करीब तीन हजार लोगों ने रैली निकाली थी।
जब हमारे इधर जो दशहरा होता है, तो घट स्थापना होती है। घट स्थापना वैसे ही है, जैसे जो खेत में हम बोते हैं, उसमें पौधे उगकर आते हैं। तो वैसे ही हमारे यहां जो बच्चा होता है, तो नौ दिन… और 10वें दिन यह होगा। तो वह अंतिम दिन होता है, जिसमें माना जाता है कि बुरी चीजें चली जाएंगी और बलि का राज आ गया। तो वह घट जो है, सिर पर रखकर औरतें आगे थीं। हम बंबई विधान भवन की तरफ जा रहे थे। उस दौरान रास्ते में मुकाम (रायगढ़ में सिविक सेंटर) पड़ा। उधर हम रुके। उधर ये सभी सेमिनार हुए। उसमें कुछ लोगों ने एक-डेढ़ महीने काम किया। हम भी उसमें शरीक हो गए, आंदोलन देखते-देखते और इनको (रिलायंस को) विकल्प भी दे दिया आैर पूछा कि बताइए क्या यह विकल्प गलत है? इसके निवेश में क्या अंतर है? जितना इसका उत्पादन है, उतना इसका है। कोई वैज्ञानिक या तकनीक आधार है दिक्कत का? ऐसा बताइए न आप? अगर आप इसको सिद्ध कर देंगे, तो हम अपना आंदोलन वापस ले लेंगे। यह होते-होते बाद में जमीनी दबाव से वो बैकफुट पर आ गये और पूरी जमीन के कागजात वो उनके (किसानों के नाम) करके गए। यह सभी परिवर्तन जो किसानों की मिल्कियत का हो गया, पूरी ज़मीन का रिकॉर्ड क्लीयर हो गया। ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलेंगे कि हमने उनकी ही तकनीक का इस्तेमाल किया, जिसका जन्म पूंजीवाद से हुआ है।
एफपी टीम : लैंड रिकॉर्ड क्लीयर हो गया, क्या मतलब है? वापस मिल गई जमीन?
भारत पाटणकर : हां, वो निरस्त हो गया न। तो वो हाई कोर्ट क्यों गये, आंदोलन के खिलाफ? तो कोर्ट में हमने भी अपनी बात रखी। तो हमने आंदोलन के दौरान जो कागजात तैयार किए थे, वो सामने रखे। हाई कोर्ट में उनसे पूछा गया कि ऐसा है कि नहीं? है! तो फिर निरस्त।
एफपी टीम : जो ब्राह्मणवादी त्योहार और रिवाज हैं, हमारे पास उनके विकल्प क्या हैं?
भारत पाटणकर : कोई विकल्प बना नहीं है। हमारे पास नुक्कड़ नाटक हैं, लेकिन यह जो ब्राह्मणों के बनाये त्योहार हैं, उनका विकल्प क्या है आपके पास? कुछ नहीं है। इधर, बलि राजा डैम है, वहां हर साल हम बलि राजा का उत्सव करते हैं और वहां हम उनको जगाते हैं, डैम की साइट पर ही। अभी डैम तो आधा है, उसका काम चल रहा है। लेकिन, यह कल्चर भी उसमें रखते हैं। जैसे कि हम सब भी। उसका उतना प्रचार-प्रसार हुआ नहीं है। लेकिन अब चालू हो गया। तो दूसरा यह है कि जो नौ दिन हैं, घट स्थापना से लेकर बलि राजा के वापस आने का जो दिन है…। बलि राजा का त्योहार दीवाली की बलि प्रतिपदा को मनाते हैं।
एफपी टीम : और घट स्थापना?
भारत पाटणकर : घट स्थापना का अलग समय है, दीवाली से एक महीना पहले है। फुले ने जैसे लिखा है कि बलि राजा वापस आते हैं और लोगों को मिलते हैं। इसका संबंध हमारी खेती से भी है। जाति और संबंध का, वगैरह-वगैरह! यह जो हमारे इधर नवरात्रि में देवियां बैठती हैं, ऐसा हमारी तरफ महाराष्ट्र में पहले कुछ नहीं था।
एफपी टीम : यह कब से हुआ?
भारत पाटणकर : यह तकरीबन 20 साल पहले, इससे ज्यादा नहीं।
एफपी टीम : हां, कहीं नहीं था। हमने कई जगह पता किया, तो पता चला कि 15-20 साल पहले शुरू हुआ, अधिकतम कहीं पर 30 साल पहले।
भारत पाटणकर : हां, तो जब यह शुरू किया, तो तासगांव नाम का एक छोटा-सा शहर है, पहले तहसील था। उधर हमने प्रयोग किये। मुंबई में भी किया। अभी जो देवियाें की प्रतिमाएं बिठाते हैं, उधर लोग कम जाते हैं। और घट जिधर है, उधर लोग ज्यादा जाते हैं।

एफपी टीम : दशहरा और घट स्थापना की तारीखें तो अलग-अलग हैं न आपकी?
भारत पाटणकर : हां, घट स्थापना के नौ दिन बाद दशहरा होता है।
एफपी टीम : कृपया थोड़ा और स्पष्ट करें। दशहरा जो विजयादशमी मनाई जाती है, उससे पहले यह आपका उत्सव होता है?
भारत पाटणकर : विजयादशमी हम नहीं मनाते। दशहरा और बलि का वापस आना, वही दिन है। दूसरे राज्यों में यह घट स्थापना नहीं होती।
एफपी टीम : आपने इतिहासकार देवी प्रसाद चटोपाध्याय की किताब ‘लोकायत’ पढ़ी है?
भारत पाटणकर : हां, पढ़ी है। वह तो बहुत पुरानी किताब है।
एफपी टीम : चटोपाध्याय के अनुसार, दुर्गा पूजा कृषि से संबंधित एक तंत्र क्रिया है, जिसका मौजूदा हिंदू धर्म से कोई सीधा संबंध नहीं है।
भारत पाटणकर : नहीं है। कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसी समुदाय का रहा है। इसमें ब्राह्मण नहीं लगता है। यह काेई कला से जुड़ा आंदोलन नहीं है। साहित्यिक आंदोलन भी नहीं है। अभी इधर 180 बुद्धिस्ट गुफाएं हैं। इधर नजदीक करार के और हमारे गांव के बीच में, पहाड़ी पर।
एफपी टीम : किस जिले में? उत्सव का नाम क्या है?
भारत पाटणकर : इधर, सतारा में अजंता-एलोरा जैसी 180 बुद्धिस्ट गुफाएं हैं। यहां (कसेगांव- भारत पाटणकर का गांव) से तीन किलोमीटर दूर सतारा शुरू हो जाता है। सतारा पुराना जिला है। यह गुफाएं तीन सौ ईसा पूर्व की हैं, जब बुद्ध की मूर्ति भी नहीं चलती थी, स्तूप चलता था। अभी सिर्फ बुद्धिस्ट,अस्पृश्य या म्हार ही नहीं, बाकी सब भी बुद्ध पूर्णिमा को हर साल उधर जाते हैं। हम सभी लोगों को लेकर जाते हैं और उत्सव करके आते हैं।

एफपी टीम : पुरातत्व विभाग ने संरक्षित कर रखा है उसको?
भारत पाटणकर : अभी आ गया पुरातत्व विभाग उसमें। वो आ ही नहीं रहा था। अभी हमारा विवाद चल रहा है, उसकी वजह से। इधर पर्यटन स्थल नहीं बनना चाहिए। इसलिए हम कोशिश कर रहे हैं।
एफपी टीम : क्यों? पर्यटन स्थल बनने से तो लोग आएंगे, फायदा होगा।
भारत पाटणकर : पर्यटन स्थल बनेगा, तो बौद्ध स्थल नहीं रहेगा। इसलिए पर्यटन स्थल नहीं बनेगा। यह ध्यान का केंद्र है और पर्यटन स्थल बनने से इधर पर्यटक आएंगे, वो गंदगी करेंगे। दारू आदि पीकर इधर-उधर बोतलें फेंकेंगे। यह तो ध्यान का केंद्र है। ध्यान का केंद्र ही रहेगा। तो हम गंदगी करने वाले पर्यटकों को नहीं आने देंगे। अभी एलोरा-अजंता में क्या चल रहा है? ऐसे ही लोग आते-जाते हैं और सिर्फ आते-जाते नहीं, उधर गंदगी फैलाते हैं। तो, सिर्फ अध्ययन करने वाले, ध्यान करने वाले लोग आने चाहिए।
एफपी टीम : क्या 10-12 साल पहले लोगों को इन गुफाओं के बारे में पता नहीं था?
भारत पाटणकर : हम स्थानीय लोगों को मालूम था, लेकिन पुरातत्व विभाग ने इसे नज़र अंदाज़ किया हुआ था।
एफपी टीम : पुरातत्व विभाग वालों को भी पता था पहले?
भारत पाटणकर : हां, पता था।
एफपी टीम : पुरातत्व विभाग ने बहुत-सी जगहों को नज़र अंदाज़ किया हुआ है। हाल ही में हम लोग कार्ला (मुंबई और पुणे के बीच लोनावला में बनी बुद्धिस्ट गुफाएं) गए थे। वहां अंदर तो गुफाएं हैं। बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं हैं। ध्यान केंद्र भी है। उसके ठीक बाहर एक माता का मंदिर बना दिया है। अगर आज इस जगह को पुरातत्व विभाग को नहीं सौंपेंगे, तो आने वाले समय में एक और देवी की प्रतिमा वहां रख दी जाएगी और कहा जाएगा कि यह हजाराें साल पुरानी है।
भारत पाटणकर : यह मूर्ति रख नहीं दी गई है। एकवीरा है। एकवीरा एक पुरानी, बुद्धिस्ट जमाने से है। लेकिन, एकवीरा कौन थी? यह सवाल है।

एफपी टीम : हां, कौन थी?
भारत पाटणकर : उधर, गुफाओं के लिए जिन लोगों ने दान दिया था, एकवीरा उन लोगों में से एक औरत है। उधर, अंदर पत्थरों पर खुदाई में यह लिखा हुआ है। पहले यह किसी को मालूम नहीं था, कोसंबी ने उसको टॉर्च लेकर ढूंढा और उसका अध्ययन करके अनुवाद किया। इससे यह साफ हो गया कि वह महिला कोली (समुद्र से मछलियां पकड़ने वाले मछुआरों की एक जाति) जाति की थी, कोली देवी। तो एकवीरा को कौन आता है? वही लोग आते हैं। एक बार जब हमारी बेटी छोटी थी, तब हम (पत्नी गेल सहित) बैलगाड़ी से उधर जा रहे थे। तब उधर पैदल जाते हुए एक व्यक्ति ने हमसे बैठाने के लिए अनुरोध किया। हमने उसे बैठा लिया। हमने उससे पूछा कि किधर से आये हो? तो बोला कि कोली जाति का हूं, मुंबई से आया हूं। एकवीरा देवी के दर्शन करने जा रहा हूं। तो हमने पूछा कि उधर क्या है? दूसरा कुछ नहीं है? तो बोला बड़ा ऊंचा पहाड़ है उधर। उसको कुछ भी नहीं मालूम। हमने पूछा कि दूसरा कुछ भी है उधर, पहाड़ के अंदर? तो बोला- हां, कुछ है उधर अंदर में। तो हमने कहा कि कोली जाति का इतिहास आपको मालूम है? वहां बुद्धिस्ट गुफाएं हैं। कोली जाति के लोगों ने उसके स्तंभ को बनाने के लिए मदद की थी। तो अंदर का भी अपना ही है। आप लोग भी बुद्धिस्ट हैं। तो उसको मालूम नहीं था। अब सवाल यह है कि यह अखिल भारतीय बुद्ध महासभा है या बाबा साहब आंबेडकर का नाम लेने वाली जो पार्टियां हैं। इसमें से कोई उधर जाता नहीं है, कुछ करता नहीं है। तो कार्ला में जाकर हमने कुछ क्यों नहीं किया? यह सवाल आप पूछ सकते हैं। लेकिन, इसका असल कारण यह है कि उधर हमारा ऐतिहसिक जनाधार ही नहीं है। सिर्फ उधर नहीं, इधर भी एक देवी बिठायी हुई है। अभी ऊपर की तरफ एक देवालय भी बना हुआ है। मगर, अभी हम लोगों ने इधर इतना कर दिया है कि हमसे कोई सवाल नहीं कर सकता कि क्या यह स्थान बुद्धिस्ट है? तो यह स्थान बुद्धिस्ट है बस।
एफपी टीम : दरअसल, वहां एकवीरा मंदिर में दो पुजारी बैठे हुए थे। हमने उनसे कहा कि हम दिल्ली से आए हैं। तो उन लोगों ने बताया कि 1750 ईसवी में इस मंदिर की स्थापना हुई थी। फिर हमने अनजान बनते हुए बुद्धिस्ट गुफाओं की ओर इशारा करके पुजारियों से पूछा कि यह क्या है? तो एक अनजान की तरह बोला कि पता नहीं, कुछ होगा। उधर बुद्ध का है। फिर हम वहां पर गए तो पता चला कि पूरा का पूरा बाज़ार सजा हुआ है और लोग एकवीरा को देखने जा रहे हैं, न कि बुद्धिस्ट को।
भारत पाटणकर : वास्तव में लोगों ने एकवीरा को दुर्गा बना दिया है।
एफपी टीम : बुद्धिस्ट की तरफ शायद वही लोग जा रहे थे, जो कि बाहर से आए हुए होंगे। फर्क यह है कि मंदिर में 30 रुपये तो चढ़ाने ही पड़ेंगे और कुछ मिलना भी नहीं है। यहां तो लोग 10 रुपये चढ़ावा चढ़ाते हैं और कुछ मांग भी लेते हैं बदले में, दुआ चाहिए।
भारत पाटणकर : बराबर (ठीक), ऐसा ही है। सारनाथ में तीन दिन का एक सेमिनार हुआ। वहां कोरिया के बुद्धिस्ट थे। पुरातत्व विभाग में लगे कुछ बुद्धिस्ट थे। खुद बुद्धिस्ट होने वाले प्रोफेसर थे। मैं और गेल थे उसमें। तो हमने उनकी बैठक बुलाई, कि भाई! आप लोग इधर इकट्ठे हुए हैं, तो एक ज़रूरी काम है कि आप लोग सभी बुद्धिज्म मानने वाले लोग हैं। कुछ बुद्धिस्ट नहीं हुए हैं, लेकिन फिर भी बुद्धिज्म अच्छा है, यह मानते हैं। आप लोग तो अच्छी तनख्वाह वाले लोग हैं। तो हम लोग पहले तो इधर इकट्ठे होकर सेमिनार करेंगे और फिर एक प्रबोधन का अभियान चलाएंगे कि क्या है इनका इतिहास? क्या एकवीरा है? और क्या अंदर वाला है? इधर अंदर कैसे मूर्ति गई? यह बद्धिस्ट की तरफ एक यह सब कैसे हो गया? और इधर बुद्धिज्म का ही क्षेत्र था और सभी लोग पहले बुद्धिस्ट ही थे, ईसवी सन् 600 तक। तो यह हमें स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए। यह प्रक्रिया सिर्फ ऐसे आंदोलन से नहीं होगी। इसके लिए हमें बौद्धिक स्तर पर काम करना पड़ेगा। छोटी-छोटी किताबें लिखनी/निकालनी पड़ेंगी। लोगों को जागरूक करना पड़ेगा। कलमी (कलम संबंधी) कार्यक्रम करने पड़ेंगे कि यही विषय है। बुद्धिज्म हमारी विरासत है और हम सभी बुद्धिस्ट हैं। ऐसा चलन निकालना पड़ेगा।
एफपी टीम : वे लोग कह रहे हैं- वेदों की ओर लौटो। हम कहें- बुद्धिज्म की ओर लौटो।
भारत पाटणकर : लेकिन, हमें ऐसा फंसाया इन लोगों ने कि तोड़ नहीं है। अगर हम दूसरी योजना बना रहे हैं, तो ज़रूरी नहीं कि दूसरे लोग आएंगे इधर। क्या करेंगे, नहीं करेंगे। न आएं, न सही। लेकिन यह प्रकाश आंबेडकर (डॉ. आंबेडकर के प्रपौत्र) भी तैयार नहीं होते।
एफपी टीम : प्रकाश आंबेडकर का क्या कहना है?
भारत पाटणकर : कहना कुछ नहीं होता है, करना चाहिए। लेकिन, उनको चुनाव महत्वपूर्ण है। तो हमने कहा भी कि चुनाव में हम भी मदद करेंगे। यह सब करने से चुनाव तुम हारोगे तो नहीं, जीतोगे ही।
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एफपी टीम : नहीं, भारत में आप चुनाव भी लगातार तभी जीत पाएंगे, जब आपका सांस्कृतिक आधार हो। बल्कि सांस्कृतिक आधार के बिना आप शासन नहीं कर सकते। शासन करना और चुनाव जीतना दो अलग-अलग चीजें हैं।
भारत पाटणकर : हां, सही बात है। सांस्कृतिक आधार के बिना असंभव है। संसदीय राजनीति का जो कुछ भी है, उसके लिए भी जो आरंभिक तैयारी चाहिए, वह भी इनके पास नहीं है। यह एक लंबे समय की तैयारी है। तो महाराष्ट्र की सभी मुख्य राजनीतिक पार्टियों- कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, सीपीएम, ख़ुद प्रकाश आंबेडकर और हम लोग सभी तीन दिन उधर बैठे थे। हमने उनको कहा कि सांस्कृतिक क्षेत्र में हमारी सरकार आती है, तो सांस्कृतिक नीति क्या होगी? पानी की नीति क्या होगी? इस पर हम चर्चा करेंगे। उस पर लिखेंगे और हमारा पूरा वैकल्पिक कार्यक्रम रखेंगे। इसके बाद जब हम एक-एक पहलू पर चर्चा करने लगे, तो कोई कुछ भी नहीं बोल पाया, किसी को कुछ भी पता नहीं। तो इसका मतलब है कि ये लोग मानते या समझते हैं कि पूंजीवादी गलत हैं। सभी भ्रष्टाचारी हैं और हम अच्छे हैं। हम समाजवादी हैं। अांबेडकरवादी हैं। बाबा साहब अांबेडकर जिंदाबाद वगैरह के ऊपर से हम चुनाव लड़ने वाले हैं। यानी कल के लिए हमारे पास कोई कार्यक्रम (योजना) नहीं है। मगर उनके पास कार्यक्रम है, वह जो पूरे में हैं। मोदी के पास कार्यक्रम है। उसके पास विकास का कार्यक्रम है। आरएसएस के पास सांस्कृतिक कार्यक्रम है। दूसरे क्षेत्रों में भी उनके पास योजनाएं हैं। मगर, ये एक भी कार्यक्रम नहीं बता सकते। तो वहां हम दो बार इकट्ठे हुए। इधर कोंकण में एक साने गुरुजी केंद्र है, वहां भी इकट्ठे हुए, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला।

तो मैं कहूंगा कि आप जैसे लोगों को इकट्ठा होना चाहिए। आप लोग (फारवर्ड प्रेस की टीम) तो देश में घूम रहे हैं और जवान लोग हैं, तो लोगों को इकट्ठा कर सकते हैं। इकट्ठा कीजिए और बुद्धिज्म के बढ़ावे के लिए काम कीजिए, कार्यक्रम कीजिए… गंभीरता से। हंसते हुए… अब हम तो आपके जैसे घूम नहीं सकते। लेकिन हां, आप कार्यक्रम करेंगे, तो उसमें ज़रूर शरीक होंगे। तो आंदोलन वाले लोग ही इसे आगे बढ़ा सकते हैं, लेकिन नये सिरे से शुरू करना है। वैकल्पिक रूप से शुरू करना है।
एफपी टीम : बिल्कुल, हम कोशिश कर रहे हैं।
भारत पाटणकर : तो इन लोगों की गाड़ी वहीं रुक गई है। अभी कुछ नहीं होगा शायद हमारे पास। लेकिन, एक दिशा अगर है, तो हम आगे जा सकते हैं। दिशा नहीं है, तब तक हम आगे नहीं जा सकते। मुझे लगता है कि ये तीन- मार्क्स, फुले, आंबेडकर जो हैं। इन्हें लेकर (इनके सिद्धांतों को लेकर) हमें कुछ नयी वैचारिकी (बुद्धिज्म के सिद्धांतों पर ले जाने वाला नया रास्ता) बनानी चाहिए।
एफपी टीम : इसमें तीन ही नहीं हैं, और भी बहुत लोग हैं; जैसे- पेरियार, रामस्वरूप वर्मा, कर्पूरी ठाकुर जैसे लोग हैं।
भारत पाटणकर : हां, कई एक मुंबई के लोग हैं। तो हम सभी को इन सबके वैचारिक मेल से एक नई वैचारिकी का सृजन करना चाहिए। इधर की परिस्थिति के लिए और नीचे (ज़मीनी स्तर) से उठना चाहिए। जैसे कि इधर संयुक्त महाराष्ट्र में एक आंदोलन हुआ था। उस वक्त कोई देखता ही नहीं था कि यह आदमी कौन खड़ा है चुनाव के लिए। संयुक्त महाराष्ट्र समिति का है, चलो वोट दे दो; बस ख़त्म।
एफपी टीम : दरअसल, एनजीओकरण इतनी तेजी से हो गया है कि यह सब बहुत कठिन लगता है। ज़मीनी स्तर पर कोई है ही नहीं कि कार्य करे। अब बुद्धिजीवी, प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक गांव में नहीं रहते हैं। सबका सरोकार ही बदल गया है। तो कोई कहां से सोच पाएगा कि हवा का हम किराया ले सकते हैं। उसका सरोकार बहुत सीधा सा रह गया है कि सरकार बदल जाए। बसपा आ जाए, यह आ जाए, वह आ जाए… लेफ्ट कभी आएगा कि नहीं…?
भारत पाटणकर : बात यह है कि जो नेता हैं, वे सिर्फ इकट्ठी की हुई भीड़ में भाषण करने के लिए आते हैं। अभी मैं भी महाराष्ट्र का श्रमिक मुक्ति दल का अध्यक्ष हूं। लेकिन मैं अभी भी गांव-गांव में जाकर बैठक लेता हूं। गांव-गांव में जाकर सफाई करता हूं। इतना ही नहीं, रात को 1:00 बजे भी किसी अनजान का भी फोन आ जाए, तो रिसीव करता हूं। लोगों को पता है कि मैं फोन उठाऊंगा ही। इसकी वजह में कोई यूं ही फोन नहीं करता। मैं किसी का भी फोन इसलिए उठाता हूं, ताकि गांव के किसी व्यक्ति पर संकट हो, तो काम आ सकूं। अब क्या है कि जो एक बार नेता बन गया, तो उसको लगता है कि अब उसे कुछ नहीं करना। कार्यकर्ता हैं गांवों में काम करने के लिए। वे गांव में नहीं आते। वे बस ऑफिस में और बड़ी-बड़ी सभाएं करते हैं। तो ज़मीनी स्तर पर जुड़े रहकर काम करना चाहिए।
एफपी टीम : लेकिन, पिछले 15 साल से बहुत कुछ बदल गया।
भारत पाटणकर : नहीं, अभी मुंबई के गांव के लोग, जो मुंबई में शारीरिक श्रम करने के लिए चले गये। वो लोग सेंट्रल मुंबई में चॉल में रहते थे। फिर उन्हें वहां से जब हटाने लगे, तो उन्होंने वह जगह बेच दी। अब वे सभी मुंबई के बाहर उपनगराें में झोपड़पट्टी बनाकर रहते हैं। तो उन सभी असंगठित अौर छोटे स्तर के संगठित श्रमिमों में 93 प्रतिशत जो असंगठित श्रमिक हैं, वे मुंबई के बाहर हैं। धारावी और अटुंबरा के आगे बसे हैं। तो ये सभी मुंबई में जो हमारे बुद्धिजीवी लोग हैं, (मुस्कुराते हुए) हमारे भी…! तो ये सब (श्रमिक) उनके (बुद्धिजीवियों के) घरों में जाकर बर्तन मांजने, कपड़े धोने का काम या दूसरे काम करते हैं। तो उनको इतना ही मालूम है कि यह कपड़े धोने वाली बाई है और यह अपनी सोसाइटी का गार्ड है।
एफपी टीम : शहरों में लोगों को सबसे बड़ी चिंता यह रहती है कि अभी महंगाई बढ़ गई। प्याज महंगा हो गया, चावल महंगा हो गया, दाल महंगी हो गई, टमाटर महंगा हो गया। तो लोग कभी भी नहीं सोचते कि इस महंगाई से किसी को फायदा भी होता होगा। अब टमाटर ही को लें, टमाटर उगाना कितनी मेहनत का काम है। दिल्ली में बैठकर दो रुपये किलो खरीद रहे हो और 20 रुपये किलो हो गया, तो कहते हो कि महंगा हो गया।
भारत पाटणकर : हंसते हुए (व्यंग्य के रहने में)… कपड़ा महंगा होता है, तो कोई नहीं बोलता।

एफपी टीम : गेल के बारे में बताइए? वे अमेरिका छोड़कर यहां आयीं और आपके साथ शादी की। क्या आप इसको एक त्याग के रूप में देखते हैं?
भारत पाटणकर : यह त्याग की बात एक ग़लत धारणा है। त्याग का सवाल नहीं है, लेकिन उसको जो जीवन में खुशी थी, वह है। उसे जीवन में इसकी ख़ुशी थी कि वह इस तरह के आंदोलन में शामिल हो और उसका साथी भी आंदोलन का हो। दूसरा, अमेरिकी समाज में उस समय हर चीज़ काे उत्पाद बनाने (खरीदने-बेचने योग्य बनाने) का दौर था। उस समय वह पीएच.डी. करने वाली थी। हालांकि, वहां माहौल आंदोलन का था। लेकिन, तब तक आंदोलन का माहौल खत्म-सा हो चुका था। तो उसकी धारणा थी कि इधर (भारत में) लोग ज्यादा ही मानवीय हैं और देहातों में जो लोग रहते हैं, उनमें मानवता ज्यादा है और उनकी समझ भी हर तरह से ज्यादा है। मुझे उसकी एक बात जो बहुत अच्छी लगती है, वह यह कि उसने गांव में रहने में कभी असमर्थता नहीं जतायी। हमारा घर करीब 80-90 साल पुराना है। पहले इसमें सेकेंड फ्लोर पर जाने के लिए जीना (सीढी) नहीं था। तो हम सीढ़ी लगाकर ऊपर जाते थे। तब प्राची बहुत छोटी थी। तो वह (गेल) बहुत ही अलग है और मुझे अचरज (आश्चर्य) लगता था कि गेल खुश रहती थी। खेतों में जाना और भरी बरसात में नंदुरबार जिले में गांव-गांव जाकर आंदोलन करना। पूरी धुआंधार बारिश में, जिसमें सड़क पर कीचड़ रहती थी, चलते रहते थे। गेल बिल्कुल भी परेशान नहीं थी। उसकी जो साथी यहां आती थीं, कभी-कभी तो वो डरती थीं, कुछेक चीजों से। तो मुझे लगता है कि उसमें एक दृढ़ निश्चय है।
एफपी टीम : उनका सबसे बड़ा योगदान क्या रहा अभी तक?
भारत पाटणकर : अभी लगता है कि तीन किताबें हैं उसकी। ‘दलित एंड द डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन’, ‘वी शैल स्मैश दिस प्रिजन : इंडियन वुमेन इन स्ट्रगल’, ‘री-इन्वेंटिंग रिवोल्यूशन : न्यू सोशल मूवमेंट एंड द सोशलिस्ट ट्रेडिशन इन इंडिया’। बाकी और भी किताबें हैं। एक जो है बुद्धिज्म की किताब है ‘बुद्धिज्म इन इंडिया’। दूसरी यह है कि ‘कल्चरल रिवोल्ट इन कोलाेनियल सोसायटी’ और तीसरी है ‘जोतीराव फुले सोशल रिवोल्यूशन इन इंडिया’। ‘वी शैल स्मैश दिस प्रिजन : इंडियन वुमेन इन स्ट्रगल’ की खासियत है कि ग्रामीण महिलाओं पर जो उसका अनुभव रहा, उसके आधार पर उसने लिखा। बाबा साहब आंबेडकर पर किताब ‘आंबेडकर टूवार्ड्स एन एनलाइटेंड इंडिया (पेंग्विन, 2005)’ अभी जा रही है अनुवाद होने के लिए। तो इनके ऊपर जो काम किया है। तो वह बात ब्रेकिंग है। इसे भारत में ही नहीं विश्व भर में पसंद किया जाता है। यह इधर इस देश के आंदोलन को और उसने यह बताने की कोशिश की है कि कौन-सी विरासत के आधार पर आप आगे जा सकते हैं? यह किसी ने नहीं किया। जाति के बारे में तो लेफ्ट तो छोड़िये, लेकिन आंबेडकर के बाद कांशीराम ने भी कुछ नहीं लिखा होगा। लेकिन, कुछ विचार किया। बाकी हम कांशीराम के बहुत बड़े आलोचक रहे हैं। उस वक्त जब उन्हाेंने मुलायम सिंह यादव के साथ अपना गठबंधन खत्म किया, उस समय हम महाराष्ट्र में साथ काम कर रहे थे। उन्होंने जो कहा, वह किया। कांशीराम ने कहा कि क्या हमने फुले को सीखा और हम जो कुछ विचार करते हैं। ‘कैडर कौम’ एक छोटी-सी किताब है, उसकी प्रस्तावना में भी लिखा है। तो हम कहेंगे कि चमार समुदाय से आकर एक बहुजनों का नेता बनना, यह बाबा साहब अांबेडकर के बाद उन्होंने किया है, जो रेडिकल अपॉजिट तरफ से। जगजीवन राम वगैरह तो दलितों के नेता थे। बाबा साहब अांबेडकर दलितों के नेता नहीं थे। हमने उनको दलितों का नेता बनाया, लेकिन थे नहीं। कांशीराम भी उसी तरह से आए, लेकिन सैद्धांतिक स्तर पर वह कमजोर थे। गेल ने जो लिखा है वह इतनी गंभीरता से, जो कांशीराम ने लिया, वह लिख देती, तो फिर अलग दिशा हो जाती। व्यक्तिगत तौर पर भी मैं कहूंगा कि क्यों न मेरा घर सत्य शोधक आंदोलन के इतिहास वाला घर हो, लेकिन मेरे संस्कार जो (पिता के दिये) थे बचपन से, वो ये थे। क्योंकि, मेरे दादाजी (मेरे मां के पिताजी) 1930 में कम्युनिस्ट पार्टी में थे। तब देहात का कोई कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं था और बहुजन समाज का तो बिल्कुल भी नहीं था, ब्राह्मणवादी ही थे।

एफपी टीम : कम्युनिस्ट पार्टी तो 1927 में बनी थी?
भारत पाटणकर : हां, 1927 में बनी, तो ऐसा बैकग्राउंड रहा हमारा।
एफपी टीम : आपकी जाति क्या है?
भारत पाटणकर : हम कुनबी हैं, एकदम कुनबी भी नहीं हैं, वो जिनको मराठा बोलते हैं, वो कुनबी ही थे, कुनबी ही हैं। इतना ही नहीं है जब हम इधर आये थे तो हमारा घर भी नहीं था। यह जो हमारा घर है, यह एक ब्राह्मण का पड़ा हुआ घर था। जब मेरे पिताजी और मेरे दादा-दादी इधर कृषि श्रमिक थे। अभी यह जो कृषि की भूमि हमारे पास है वह टेनेंट की जो लड़ाई (पट्टेदार- जो पट्टे पर ज़मींदारों की ज़मीन जोतते थे- की भू-स्वामियों से लड़ाई) हुई थी, उसके बाद टेनेंसी एक्ट की वजह से यह जमीन मिली। क्योंकि इसके लिए आंदोलन किया। ये बहुत सारे घर हैं, लोगों के, ये भी टेनेंसी एक्ट के अंतर्गत ही मिले। यह मेरी मां ने मुझे बताया, मुझे मालूम ही नहीं था। मैं तो बच्चा था।
एफपी टीम : गेल का जब आपसे विवाह हुआ, तब आपके घर में कौन-कौन लोग थे?
भारत पाटणकर : पिताजी की तो 1952 में ही हत्या हो गयी थी, पहले चुनाव के बाद। उनकी हत्या में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व शामिल था क्योंकि वह आजादी के बाद भी लोगों के हक-हुकूक की बातें कर रहे थे। उनकी डेड बॉडी भी नहीं मिली थी। कुछ लोग उन्हें उस समय पकड़कर ले गये थे, जब वे खेत में हल चला रहे थे। वे बहुत लोकप्रिय थे और उनकी हत्या मुश्किल थी। उनकी हत्या की खबर सुनकर एक हजार से ज्यादा लोग आये थे। प्रांतीय सरकार के केंद्र सरकार के बहुत सारे नेता, कार्यकर्ता, सभी पार्टियों के कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता यहां आए। इधर सामने एक पहाड़ी है, उसके ऊपर सफेद कपड़ों में सफेद धब्बों जैसे लोग दिख रहे थे- मां बताती थीं।
एफपी टीम : उस समय आपकी उम्र क्या थी?
भारत पाटणकर : ढाई साल। जब हमारी और गेल की शादी हुई, उस समय मां थीं, मेरी मामी थीं। मेरे मामा के सभी बच्चे भी इधर ही बड़े हुए हैं, इसी घर में। बाद में उनके दो बच्चे अपने गांव में रहने लगे, अभी उधर ही रहते हैं। एक इधर ही रहता है। हमारा सबका परिवार एक ही घर जैसा चला है।
एफपी टीम : अपने माता-पिता के बारे में और बताइये?
भारत पाटणकर : मेरे पिता जी अंतरिम सरकार में सैन्य अधिकारी समिति में थे। मेरे मामा जी अौर मेरी मां भी सैन्य दल में थे। जब आज़ादी मिलने को थी, तब उन्होंने सरकार को हथियार वापस कर दिये थे।
[फारवर्ड प्रेस टीम की भारत-यात्रा वृतांत का अंश। दिल्ली से कन्याकुमारी तक की इस यात्रा में फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन, समाजशास्त्री अनिल कुमार व फारवर्ड प्रेस के संपादक (अंग्रेजी) अनिल वर्गीज शामिल थे। 5 जनवरी- 15 फरवरी, 2017 के बीच की इस यात्रा में हमने 9 राज्यों और एक केंद्र शासित राज्य (हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, दमन, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तामिलनाडु, केरल) में लगभग 12,000 किलोमीटर का सफर तय किया। टीम इस दौरान महाराष्ट्र के कसेगांव में 25 जनवरी को गेल ऑम्वेट व भारत पाटणकर से उनके घर में मुलाकात की।]
(लिप्यांतरण : प्रेम बरेलवी, कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी व एफपी डेस्क)
(आलेख परिवर्द्धित : 14 जनवरी, 2022 05:07 PM)
संदर्भ :
[1] मराठी लेखक व विचारक डॉ. रामचंद्र चिंतामण ढेरे का जन्म 1930 में पूना में हुआ था। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘राइज ऑफ फोक गॉड’ और ‘विट्ठल ऑफ पंढरपुर’ शामिल है।
[2] बाढ़
[3] वारी का अर्थ है यात्रा करना, फेरे लगाना। जो अपने आस्था स्थान की भक्तिपूर्ण यात्रा बार-बार करता रहता है, उसे वारकरी कहते हैं।
[4] चोखामेला (1300-1400) महाराष्ट्र के एक नामी संत थे। उन्होंने कई अभंग लिखे हैं, जिसके कारण उन्हें भारत का पहला दलित-कवि कहा गया है।
[5] वासवन्ना ने हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ कर्नाटक में लिंगायत को एक अलग धर्म के रूप में स्थापित किया था।
[6] क्रोध दिलाने वाले लेखों का संग्रह
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