h n

क्यों संविधान और डॉ. आंबेडकर को मानने की शपथ खा रहा है आरएसएस?

संघ का इतिहास संविधान विरोधी रहा है। फिर चाहे वह गोलवलकर रहे हों या आज के मोहन भागवत। लेकिन हाल के दिनों में ऐसा क्या हुआ है कि संघ संविधान की शपथ खा रहा है और डॉ. आंबेडकर के विचारों के प्रति सम्मान प्रकट कर रहा है? जाहिर तौर पर यह उसकी सद्इच्छा तो बिल्कुल नहीं है। बता रहे हैं सिद्धार्थ

संघ ने कभी संविधान को स्वीकार नहीं किया। गोलवलकर कुछ थोड़े बदलावों के साथ मनुस्मृति को ही संविधान का दर्जा देने के हिमायती थे। भारतीय संविधान पर अपनी राय संघ के मुख पत्र ऑर्गनाइजर ने 30 नवंबर, 1949 को अपने संपादकीय में इन शब्दों में प्रकट किया था– “ भारत के संविधान की सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।यह प्रचीन भारतीय संविधानिक कानूनों, संस्थाओं, शब्दावली और मुहावरों की कोई बात नहीं करता। प्राचीन भारत की अद्वितीय सांविधानिक विकासयात्रा के भी कोई निशान नहीं हैं। स्पार्टा के लाइकर्जस या फारस के सोलन से भी काफी पहले मनु का कानून लिखा जा चुका था। आज भी मनुस्मृति की दुनिया तारीफ करती है। भारतीय हिंदुओं के लिए वह सर्वमान्य सहज स्वीकार्य है, मगर हमारे सांविधानिक पंडितों के लिए इन सबका का कोई अर्थ नहीं है।

डॉ. आंबेडकर के लिए संघ ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया था वह था – सांविधानिक पंडितों के अगुआ। इस प्रकार उनके ऊपर भी परोक्ष तौर पर हमला बोला गया। इतना ही नहीं जब संविधान में महिलाओं को दिए गए समता और स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार को अमलीजामा पहनाने के लिए डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड़ बिल पेश किया तो संघ बिलबिला उठा। हिंदू कोड बिल को हिंदू संस्कृति और परिवार व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में संघ ने प्रचारित करना शुरू कर दिया। इसमें उसे करपात्री महाराज जैसे लोगों का भरपूर समर्थन मिला। हिंदूवादी संगठन सड़कों पर उतर आए। संघ ने हिंदू कोड बिल को हिंदू कानूनों, हिंदू संस्कृति और हिंदू धर्म के साथ क्रूर और अज्ञानतापूर्ण मजाक बताया। इसे हिंदूओं के विश्वास पर हमला कहा गया। इससे आगे बढ़कर संघ ने कहा कितलाक के लिए महिलाओं को सशक्त करने का प्रावधान हिंदू विचारधारा से विद्रोह जैसा है।

हाल ही में विज्ञान भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यशाला को संबोधित करते आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

संघ ने डॉ. आंबेडकर पर व्यक्तिगत हमला करते हुए कहा कि वे तो हिंदू हैं ही नहीं, उनको हिंदू कानूनों में सुधार का क्या अधिकार है। मोहन भागवत के पहले के संघ प्रमुख के.सुदर्शन ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में संविधान को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था।

  • संविधान के बजाय मनुस्मृति को मानता रहा है आरएसएस

  • दलित-बहुजनों के वोट पर आरएसएस की नजर

  • आरक्षण और एससी-एसटी एक्ट को लेकर मजबूत हुई है बहुजन एकता

प्रश्न यह है कि अचानक संघ को क्यों संविधान को पूरी तरह स्वीकार करने की घोषणा करनी पड़ी और यह कहना पड़ा कि हम संविधान के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध है। केवल मूल संविधान के प्रति ही नहीं, 1976 के संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्दों के प्रति भी। हम सभी जानते हैं कि यह घोषणा संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में किया। संविधान को स्वीकार करने और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने की घोषणा संघ ने अपनी सद्इच्छा के चलते नहीं किया है, ऐसा करने को उनको बाध्य होना पड़ा है। इसके दो कारण हैं। पहली बात तो यह कि इस देश के दलितबहुजनों (बीते कल के अतिशूद्रशूद्र) को यह लगता है कि उन्हें जो अधिकार प्राप्त हुए हैं,वे संविधान के चलते ही प्राप्त हुए हैं और यह काफी हद तक सच भी है। औपचारिकसैद्धांतिक और व्यवहारिक स्तर पर भी इस देश के दलितबहुजनों को संविधान से ही एक हद तक की समता और स्वतंत्रता मिली है। इसके अलावा आरक्षण और कुछ अन्य विशेष कानूनी संरक्षण संविधान के चलते ही मिला है। संघ द्वारा संविधान को स्वीकार करने के चलते और पिछले चार वर्षों में संविधान के संबंध में संघभाजपा के लोगों के बयानों के चलते दलितबहुजनों के एक बड़े हिस्से की यह राय बनती जा रही थी कि संघ संविधान को बदलना चाहता है और उसकी जगह मुनस्मृति को लागू करना चाहता है। दलितबहुजनों द्वारा बड़े पैमाने पर संविधान बचाओ अभियान भी चलाया जा रहा है। संघ की संविधान विरोधी छवि का प्रचारप्रसार तेजी से दलितपिछड़ों के बीच हो रहा था।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना जिसमें निहित है डॉ. आंबेडकर के विचारों पर आधारित खूबसूरत भारत बनाने का सपना

हम सभी को पता है कि पिछड़ी जातियों और दलितों को अपने साथ लिए बिना संघ की हिंदुत्व की परियोजना पूरी नहीं हो सकती है। उसे तो दंगों के लिए जनबल मिल सकता है, ही चुनावी बहुमत प्राप्त करने के लिए वोट। संविधान को स्वीकार कर और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर कर दलितबहुजनों का विश्वास जीतने के अलावा संघ के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। ऐसा करके संघ ने  उन दलितपिछड़ी जातियों के नेताओं को भी एक अवसर दिया है, जो संघ या भाजपा के साथ हैं। ये नेता अब खुलेआम दलितपिछड़ों से कह सकते हैं कि संघ संविधान को स्वीकार करता है, उसके प्रति प्रतिबद्ध है।

यह भी पढ़ें : आरएसएस-प्रायोजित आंबेडकर की घरवापसी

संविधान को स्वीकार करने का दूसरा कारण यह है कि दलितबहुजनों का एक बड़ा हिस्सा संविधान और डॉ, आंबेडकर को एकदूसरे का पर्याय मानता है, विशेषकर दलित। दलितों में यह धारणा घर कर गई है कि जो संविधान नहीं स्वीकार करता, आंबेडकर को भी स्वीकार नहीं करता है। संविधान को स्वीकार करने की घोषणा और प्रतिबद्धता के साथ संघ ने आंबेडकर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी जोरशोर से घोषित की है। इसी के साथ मोहन भागवत ने कुछ नानुकुर के साथ आरक्षण और एससीएसटी कानून के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। जबकि गोलवलकर संविधान और आंबेडकर दोनों को खारिज करते थे। मोहन भागवत ने संविधान के साथ आंबेडकर के प्रति भी अपनी प्रतिबद्धता घोषित की। जाहिर तौर पर संविधान को स्वीकार किए बिना आंबेडकर के प्रति प्रेम कम से कम दलितों को तो नहीं ही स्वीकार होगी।

बंच ऑफ थॉट्स : गोलवलकर की वह किताब जिसमें मनुस्मृति के आधार पर देश चलाने की बात कही गयी है

संविधान और आंबेडकर को स्वीकार करने का यह सारा उपक्रम करने का उद्देश्य दलितबहुजनों को अपने दायरे में लाने की कोशिश का एक हिस्सा है, क्योंकि यदि दलितबहुजन यदि संघ के  वैचारिक और सांगठनिक दायरे से अलग हो जाते हैं, और मुसलमानों के साथ मोर्चा बना लेते हैं, जिसके लक्षण दिख रहे हैं, तो संघ की सारी परियोजना ही ध्वस्त हो जाएगी। इसके साथ ही हिंदुओं के वर्चस्व के नाम पर मुसलमानों, ईसाईयों और दलितपिछड़ों पर उच्च जातियों के वर्चस्व का खात्मा हो जायेगा हिंदुत्व के नाम पर उच्च जातीयउच्च वर्गीय हिंदुओं के वर्चस्व की हजारों वर्षों की परंपरा का भी नाश हो जायेगा। इसका निहितार्थ संघ की हिंदू राष्ट्र की पूरी परियोजना का खात्मा होगा। जो कि संघ कभी नहीं चाहेगा।

इसके अलावा संविधान के प्रति अपनी आस्था जताकर संघ नवउदारवादी युग की अपनी एक नई वैश्विक और देशी छवि भी प्रस्तुत करना चाहता है। संघ विश्व को भी यह संदेश देना चाहता है कि वह कानून के शासन में सैद्धांतिक और औपचारिक तौर पर भी विश्वास करता है और उसे देश का शासक चुनने की चुनावी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भी विश्वास है, जिससे उसकी एक वैश्विक स्वीकृति बन सके। इसके अलावा भारत में वह नवउदारवादी युग की युवा पीढ़ी के सामने भी अपनी एक आधुनिक छवि प्रस्तुत करना चाहता है। 35 वर्ष के कम आयु के युवाओं की आबादी  इस देश की कुल आबादी की दोतिहाई से अधिक है। इन युवाओं के सामने अपनी आधुनिक छवि प्रस्तुत करने की इस कोशिश के तहत ही संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के साथ ही अन्तरजातीय विवाह का भी संघ प्रमुख ने समर्थन किया। यहां तक कि उन्होंने समलैंगिक संबंधों को भी एक तरह से स्वीकारा।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। हमारी किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्कृति, सामाज व राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के सूक्ष्म पहलुओं को गहराई से उजागर करती हैं। पुस्तक-सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

डॉ. सिद्धार्थ रामू

डॉ. सिद्धार्थ रामू लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

संबंधित आलेख

यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में
मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो...
साक्षात्कार : ‘हम विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध घुमंतू जनजातियों को मिले एसटी का दर्जा या दस फीसदी आरक्षण’
“मैंने उन्हें रेनके कमीशन की रिपोर्ट दी और कहा कि देखिए यह रिपोर्ट क्या कहती है। आप उन जातियों के लिए काम कर रहे...
कैसे और क्यों दलित बिठाने लगे हैं गणेश की प्रतिमा?
जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...