संघ ने कभी संविधान को स्वीकार नहीं किया। गोलवलकर कुछ थोड़े बदलावों के साथ मनुस्मृति को ही संविधान का दर्जा देने के हिमायती थे। भारतीय संविधान पर अपनी राय संघ के मुख पत्र ऑर्गनाइजर ने 30 नवंबर, 1949 को अपने संपादकीय में इन शब्दों में प्रकट किया था– “ भारत के संविधान की सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।…यह प्रचीन भारतीय संविधानिक कानूनों, संस्थाओं, शब्दावली और मुहावरों की कोई बात नहीं करता। प्राचीन भारत की अद्वितीय सांविधानिक विकास–यात्रा के भी कोई निशान नहीं हैं। स्पार्टा के लाइकर्जस या फारस के सोलन से भी काफी पहले मनु का कानून लिखा जा चुका था। आज भी मनुस्मृति की दुनिया तारीफ करती है। भारतीय हिंदुओं के लिए वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है, मगर हमारे सांविधानिक पंडितों के लिए इन सबका का कोई अर्थ नहीं है।”
डॉ. आंबेडकर के लिए संघ ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया था वह था – सांविधानिक पंडितों के अगुआ। इस प्रकार उनके ऊपर भी परोक्ष तौर पर हमला बोला गया। इतना ही नहीं जब संविधान में महिलाओं को दिए गए समता और स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार को अमलीजामा पहनाने के लिए डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड़ बिल पेश किया तो संघ बिलबिला उठा। हिंदू कोड बिल को हिंदू संस्कृति और परिवार व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में संघ ने प्रचारित करना शुरू कर दिया। इसमें उसे करपात्री महाराज जैसे लोगों का भरपूर समर्थन मिला। हिंदूवादी संगठन सड़कों पर उतर आए। संघ ने हिंदू कोड बिल को हिंदू कानूनों, हिंदू संस्कृति और हिंदू धर्म के साथ क्रूर और अज्ञानतापूर्ण मजाक बताया। इसे हिंदूओं के विश्वास पर हमला कहा गया। इससे आगे बढ़कर संघ ने कहा कि “ तलाक के लिए महिलाओं को सशक्त करने का प्रावधान हिंदू विचारधारा से विद्रोह जैसा है।”

संघ ने डॉ. आंबेडकर पर व्यक्तिगत हमला करते हुए कहा कि वे तो हिंदू हैं ही नहीं, उनको हिंदू कानूनों में सुधार का क्या अधिकार है। मोहन भागवत के पहले के संघ प्रमुख के.सुदर्शन ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में संविधान को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था।
संविधान के बजाय मनुस्मृति को मानता रहा है आरएसएस
दलित-बहुजनों के वोट पर आरएसएस की नजर
आरक्षण और एससी-एसटी एक्ट को लेकर मजबूत हुई है बहुजन एकता
प्रश्न यह है कि अचानक संघ को क्यों संविधान को पूरी तरह स्वीकार करने की घोषणा करनी पड़ी और यह कहना पड़ा कि हम संविधान के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध है। केवल मूल संविधान के प्रति ही नहीं, 1976 के संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्दों के प्रति भी। हम सभी जानते हैं कि यह घोषणा संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में किया। संविधान को स्वीकार करने और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने की घोषणा संघ ने अपनी सद्इच्छा के चलते नहीं किया है, ऐसा करने को उनको बाध्य होना पड़ा है। इसके दो कारण हैं। पहली बात तो यह कि इस देश के दलित–बहुजनों (बीते कल के अतिशूद्र–शूद्र) को यह लगता है कि उन्हें जो अधिकार प्राप्त हुए हैं,वे संविधान के चलते ही प्राप्त हुए हैं और यह काफी हद तक सच भी है। औपचारिक–सैद्धांतिक और व्यवहारिक स्तर पर भी इस देश के दलित–बहुजनों को संविधान से ही एक हद तक की समता और स्वतंत्रता मिली है। इसके अलावा आरक्षण और कुछ अन्य विशेष कानूनी संरक्षण संविधान के चलते ही मिला है। संघ द्वारा संविधान को स्वीकार न करने के चलते और पिछले चार वर्षों में संविधान के संबंध में संघ–भाजपा के लोगों के बयानों के चलते दलित–बहुजनों के एक बड़े हिस्से की यह राय बनती जा रही थी कि संघ संविधान को बदलना चाहता है और उसकी जगह मुनस्मृति को लागू करना चाहता है। दलित–बहुजनों द्वारा बड़े पैमाने पर संविधान बचाओ अभियान भी चलाया जा रहा है। संघ की संविधान विरोधी छवि का प्रचार–प्रसार तेजी से दलित–पिछड़ों के बीच हो रहा था।

हम सभी को पता है कि पिछड़ी जातियों और दलितों को अपने साथ लिए बिना संघ की हिंदुत्व की परियोजना पूरी नहीं हो सकती है। उसे न तो दंगों के लिए जनबल मिल सकता है, न ही चुनावी बहुमत प्राप्त करने के लिए वोट। संविधान को स्वीकार कर और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर कर दलित–बहुजनों का विश्वास जीतने के अलावा संघ के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। ऐसा करके संघ ने उन दलित–पिछड़ी जातियों के नेताओं को भी एक अवसर दिया है, जो संघ या भाजपा के साथ हैं। ये नेता अब खुलेआम दलित–पिछड़ों से कह सकते हैं कि संघ संविधान को स्वीकार करता है, उसके प्रति प्रतिबद्ध है।
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संविधान को स्वीकार करने का दूसरा कारण यह है कि दलित–बहुजनों का एक बड़ा हिस्सा संविधान और डॉ, आंबेडकर को एक–दूसरे का पर्याय मानता है, विशेषकर दलित। दलितों में यह धारणा घर कर गई है कि जो संविधान नहीं स्वीकार करता, आंबेडकर को भी स्वीकार नहीं करता है। संविधान को स्वीकार करने की घोषणा और प्रतिबद्धता के साथ संघ ने आंबेडकर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी जोर–शोर से घोषित की है। इसी के साथ मोहन भागवत ने कुछ ना–नुकुर के साथ आरक्षण और एससी–एसटी कानून के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। जबकि गोलवलकर संविधान और आंबेडकर दोनों को खारिज करते थे। मोहन भागवत ने संविधान के साथ आंबेडकर के प्रति भी अपनी प्रतिबद्धता घोषित की। जाहिर तौर पर संविधान को स्वीकार किए बिना आंबेडकर के प्रति प्रेम कम से कम दलितों को तो नहीं ही स्वीकार होगी।

संविधान और आंबेडकर को स्वीकार करने का यह सारा उपक्रम करने का उद्देश्य दलित–बहुजनों को अपने दायरे में लाने की कोशिश का एक हिस्सा है, क्योंकि यदि दलित–बहुजन यदि संघ के वैचारिक और सांगठनिक दायरे से अलग हो जाते हैं, और मुसलमानों के साथ मोर्चा बना लेते हैं, जिसके लक्षण दिख रहे हैं, तो संघ की सारी परियोजना ही ध्वस्त हो जाएगी। इसके साथ ही हिंदुओं के वर्चस्व के नाम पर मुसलमानों, ईसाईयों और दलित–पिछड़ों पर उच्च जातियों के वर्चस्व का खात्मा हो जायेगा व हिंदुत्व के नाम पर उच्च जातीय–उच्च वर्गीय हिंदुओं के वर्चस्व की हजारों वर्षों की परंपरा का भी नाश हो जायेगा। इसका निहितार्थ संघ की हिंदू राष्ट्र की पूरी परियोजना का खात्मा होगा। जो कि संघ कभी नहीं चाहेगा।
इसके अलावा संविधान के प्रति अपनी आस्था जताकर संघ नवउदारवादी युग की अपनी एक नई वैश्विक और देशी छवि भी प्रस्तुत करना चाहता है। संघ विश्व को भी यह संदेश देना चाहता है कि वह कानून के शासन में सैद्धांतिक और औपचारिक तौर पर भी विश्वास करता है और उसे देश का शासक चुनने की चुनावी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भी विश्वास है, जिससे उसकी एक वैश्विक स्वीकृति बन सके। इसके अलावा भारत में वह नवउदारवादी युग की युवा पीढ़ी के सामने भी अपनी एक आधुनिक छवि प्रस्तुत करना चाहता है। 35 वर्ष के कम आयु के युवाओं की आबादी इस देश की कुल आबादी की दो–तिहाई से अधिक है। इन युवाओं के सामने अपनी आधुनिक छवि प्रस्तुत करने की इस कोशिश के तहत ही संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के साथ ही अन्तरजातीय विवाह का भी संघ प्रमुख ने समर्थन किया। यहां तक कि उन्होंने समलैंगिक संबंधों को भी एक तरह से स्वीकारा।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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