देश के सबसे बड़े रेडलाइट एरिया कोलकाता के सोनागाछी इलाके और दुर्गा पूजा का एक खास रिश्ता है। खास रिश्ता इस मायने में कि दुर्गा की मूर्ति का निर्माण यौनकर्मियों के आंगन से लाई गई मिट्टी से किया जाता है, क्योंकि यह मिट्टी दुर्गा पूजा के लिए शुभ मानी जाती है।
मगर पिछले कुछ सालों से सेक्स वर्कर्स अपने आंगन की मिट्टी दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए देने से साफ इंकार कर रहे हैं और बंगाल के प्रमुख त्योहारों में शुमार दुर्गा पूजा अलग से आयोजित कर रहे हैं। सेक्स वर्कर्स द्वारा दुर्गा प्रतिमा के लिए मिट्टी न देने का कारण भी दुर्गा पूजा ही है, क्योंकि जिस दुर्गा पूजा के लिए उनके आंगन से मिट्टी और उनसे हजारों-लाखों रुपए चंदा वसूला जाता है, उसी में उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया जाता है। उनके साथ ऐसे सलूक किया जाता है जैसे पंडाल में उनके प्रवेश मात्र से दुर्गा अपवित्र हो जाएंगी।

हमारा जिस्म, हमारा पैसा और हमारी मिट्टी पवित्र, फिर दुर्गा हमसे अपवित्र कैसे?
सेक्स वर्कर्स एसोसिएशन दरबार समोनॉय कमिटी की मेंटर और सलाहकार भारती डे फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहती हैं, ‘सेक्स वर्कर के आंगन की मिट्टी से दुर्गा की मूर्ति बनायी जाती है, उनसे चंदा उगाहकर आयोजन किया जाता है, मगर जब सेक्स वर्कर दुर्गा पंडाल में जाना चाहती हैं तो उन्हें वहां घुसने नहीं दिया जाता है। सवाल है कि हमारी मिट्टी पवित्र, चंदे के लिए दिया गया हमारा पैसा पवित्र, रात के अंधेरे में सभ्य समाज के मर्दों द्वारा भोगा जाने वाला हमारा जिस्म पवित्र तो हम कैसे अपवित्र हो गये।’
भारती डे आगे कहती हैं, ‘हमें मुख्यधारा के समाज में हमेशा से बुरी नजरों से देखा जाता है और अलग-थलग कर दिया जाता है। तो यह पवित्र समाज हम अपवित्रों के आंगन की मिट्टी से दुर्गा की मूर्ति क्यों निर्मित करना चाहते हैं, इसीलिए हम सब सेक्स वर्कर ने मिलकर निर्णय लिया कि हम दुर्गा पूजा के नाम पर चुटकी भर भी मिट्टी दान नहीं करेंगे। ये कैसा मजाक है कि हमारी मिट्टी और हमारा पैसा इन लोगों के लिए पवित्र हैं, मगर हम नहीं।’
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अपने आंगन की मिट्टी से खुद बनवाती हैं दुर्गा की प्रतिमायें
भारती डे के मुताबिक, ‘सोनागाछी की यौनकर्मियों ने पिछले कुछ सालों से अपने आंगन की मिट्टी देना बंद कर दिया था। हम क्यों दें उस समाज को मिट्टी जो हमारे घर की मिट्टी से दुर्गा की मूर्ति निर्मित करता है, हमसे दुर्गा पूजा के नाम पर हजारों-लाखों रुपए वसूलता है, मगर हमें उस पूजा में शरीक नहीं होने देता। अब हम अपने आंगन की मिट्टी से खुद दुर्गा की मूर्ति बनवाते हैं और खुद ही दुर्गा पूजा आयोजित करते हैं। नहीं जरूरत है हमें ऐसे दोगले और ढोंगी समाज की, जिसके मानदंड संविधान द्वारा दिए गए समानता के अधिकार से इतर हर किसी नागरिक के लिए अलग-अलग हैं। इसीलिए पिछले 3 सालों से सेक्सवर्कर अपनी अलग दुर्गा पूजा आयोजित करती हैं।’

सोनागाछी में पिछले 13 वर्षों से यौनकर्म के काम से जुड़ीं रेशमा कुमारी बताती हैं, ‘हम वेश्याएं हैं, समाज हमें तिरस्कार की नजरों से देखता है। हां ये अलग बात है कि रात के अंधेरे में वही सभ्य समाज के सभ्य मर्द हमारे पास आते हैं, जिन्हें दिन के उजाले में हमारे नाम से भी परहेज है। इसीलिए तो हमारे आंगन से बनी मिट्टी की दुर्गा मूर्ति के पंडाल तक में हमें प्रवेश नहीं करने दिया जाता। तो हम क्यों दान करें अपने आंगन की मिट्टी ऐसे समाज की पूजा के लिए जो हमें अपवित्र, बुराइयों का प्रतीक, कुलटा जैसी उपाधियों से नवाजता है।’
मिट्टी के नाम पर फर्जीवाड़ा
सेक्स वर्कर्स के मुताबिक अब सोनागाछी की मिट्टी के नाम पर कुछ लोग फर्जीवाड़ा कर रहे हैं, जबकि हम सिर्फ अपने पंडाल के लिए निर्मित होने वाली दुर्गा मूर्ति के लिए मोहल्ले की मिट्टी देते हैं। ये लोग सेक्सवर्कर्स के घर की मिट्टी कहकर जो मिट्टी बेच रहे हैं वह हमारे आंगनों की नहीं है, मगर इससे लाखों के वारे-न्यारे किए जा रहे हैं।
सेक्सवर्कर्स का संगठन सेक्स वर्कर्स एसोसिएशन दरबार समोनॉय कमिटी 1995 से उनके बीच काम कर रहा है, जिसमें तमाम कार्यकर्ता सेक्सवर्कर्स ही हैं। 1997 में संगठन से जुड़ी 48 वर्षीय भारती डे खुद सेक्स वर्कर रह चुकी हैं और अब वेश्याओं के हितों के लिए संघर्षरत हैं। उसी संघर्ष का एक हिस्सा दुर्गा पूजा में उनके आंगन की मिट्टी सभ्य समाज को न देकर अपना अलग दुर्गा महोत्सव आयोजित कर उसे स्थापित करना है।
धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक सेक्स वर्कर्स के आंगन से लाई गई मिट्टी को दुर्गा पूजा के लिए बहुत शुभ माना जाता है, कहा जाता है कि उसके बिना यह पूजा अधूरी रहती है।
मूर्ति बनाने वाले कारीगर भी कहते हैं, हिंदू धार्मिक मान्यता और सदियों से चल रही परंपरा के मुताबिक इस सेक्सवर्कर के आंगन की मिट्टी को जब तक दुर्गा मूर्ति में इस्तेमाल नहीं किया जाता तब तक वह पूर्ण नहीं मानी जाती। एक कारीगर के अनुसार “ मान्यता यह भी है कि सेक्स वर्कर के घर के बाहर की मिट्टी इस्तेमाल करने की वजह है कि जब कोई व्यक्ति ऐसी जगह पर जाता है तो उसकी सारी अच्छाइयां बाहर रह जाती हैं। उसी बाहर की मिट्टी को मूर्ति में लगाया जाता है।”
वहीं एक अन्य भारतीय मान्यता के मुताबिक नारी को ‘शक्ति’ का रूप माना जाता है और अगर वह कहीं गलत है तो उसके पीछे समाज और वक्त की खामियां रही होंगी। इसलिए उन्हें सम्मान देने के लिए ऐसा किया जाता है। मगर यह कैसा सम्मान कि सम्मान के बतौर मिट्टी तो प्रयोग करो मगर उनकी सशरीर उपस्थिति वर्जित हो।
दस जगहों की मिट्टी महत्वपूर्ण
पुराण विशेषज्ञ नृसिम्हा प्रसाद भदूरी कहते हैं, हिंदू अनुष्ठानों के लिए दशा मृतिका (दस जगह की मिट्टी) की आवश्यकता होती है, जो कि 10 विभिन्न स्थानों से लाई गई मिट्टी का मिश्रण होता है। वेश्यालय के अलावा, पहाड़ की चोटी, नदी के दोनों किनारों, बैल के सींगों, हाथी के दांत, सुअर की ऐंड़ी, दीमक के ढेर, किसी महल के मुख्य द्वार, किसी चौराहे और किसी बलिभूमि से भी मिट्टी लाई जाती है। 10 अलग-अलग स्थानों से मिट्टी का उपयोग करने की परंपरा वास्तव में पूजा में समाज के सभी क्षेत्रों के लोगों की भागीदारी का प्रतीक है।’
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भदूरी की बात को ही सही मानें तब भी दुर्गा पूजा में वेश्याओं को भी वही सम्मानपूर्ण स्थान मिलना चाहिए था जो एक आम औरत या मर्द को मिलता है, मगर ब्राह्मणवादियों की पोल यहीं पर खुल जाती है कि तमाम ढकोसले बघारने वालों का समाज उन्हीं के आंगन से मिट्टी से बनी दुर्गा के पंडाल में उन्हीं को प्रवेश इसलिए नहीं करने देता, क्योंकि वह सेक्स वर्कर हैं।
संगठन से जुड़ी हैं 65 हजार सेक्स वर्कर्स
भारती डे कहती हैं, ‘वेश्याओं की जिंदगी नरक से भी बदतर होती है, इसीलिए हमने सेक्स वर्कर्स एसोसिएशन दरबार समोनॉय कमिटी गठित की ताकि इसे कुछ बेहतर बनाया जा सके। फिलहाल हमारे संगठन से लगभग 65 हजार सेक्स वर्कर जुड़ी हुई हैं। हालांकि अभी लगभग आधी सेक्सवर्कर्स इस संगठन से नहीं जुड़ी हैं, क्योंकि सोनागाछी में लगभग 1 लाख 30 हजार सेक्स वर्कर्स हैं। मगर संगठन बनाने के बाद हम अपने हक की लड़ाई लड़ पा रहे हैं और जिंदगी भी पहले से थोड़ी आसान हो रही है।’
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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